पद्मश्री पुरस्कार घर तक भिजवाने का आग्रह

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पद्मश्री पुरस्कार घर तक भिजवाने का आग्रह

फैजाबाद.और टर्निंग पॉइंट को शिरोधार्य किया है मोहम्मद शरीफ ने.उनके जीवन में मानव प्रेम एक शक्तिशाली ताकत के रूप में निखरा.मज़हब नहीं सीखाता आपस में बैर रखना वाले अध्याय को बतौर अपने जीवन में उतारा और उससे जुड़े मामलों के बारे में ईमानदारी से पालन किया.मानव तो हर एक परिवर्तन एक नयी दिशा दिखाता है.मोहम्मद शरीफ के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ पुत्र मोहम्मद रईस की आकस्मिक मौत है.आइए इस महत्वपूर्ण मोड़ को अधिक स्पष्ट रूप से देखा जाए. 

यह एक सत्य मार्मिक कहानी है जो पुत्र वियोग पर केंद्रित है.वह एक आदमी है जो पहले साइकिल की मरम्मत करते थे मगर बाद में सामाजिक कार्यकर्ता बन गए, जिनका नाम मोहम्मद शरीफ है, मगर लोग उनको प्यार से “शरीफ चाचा” कहते हैं. इस कहानी की शुरुआत 1992 यानी  करीब 29 साल पहले शुरू होती है.जब शरीफ चाचा का 25 साल का बेटा, जिसका नाम मोहम्मद रईस था, पहले गायब हो जाता है और करीब एक महीने के बाद सुल्तानपुर जनपद (फैजाबाद से 56 किलोमीटर की दूरी पर)  पुलिस को उसकी लाश मिलती है, लाश को लावारिस समझ कर पुलिस उसे गोमती नदी में बहा देती है. 
 
इस हादसे ने शरीफ चाचा की ज़िन्दगी को ही बदल दिया उनको इस बात का दुःख तो था ही कि उनका बेटा उनसे छीन लिया गया इसके साथ ही उनको ये ग़म भी सता रहा था कि वह अपने बेटे का अंतिम संस्कार न कर सके, अपने इस ग़म को कम करने के लिए उन्होंने क़सम खायी की अब किसी भी इन्सान का बच्चा चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान या किसी भी धर्म से सम्बंधित, यदि उसके साथ ऐसा कोई हादसा होता है तो उसके परिजनों को शरीफ चाचा की तरह दोहरे दर्द से नहीं गुज़रना पड़ेगा.इसके बाद उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी इस कार्य में लगा दी, किसी भी परिस्थिति की परवाह किये बिना कि  उनको इज्ज़त मिल रही है या बे-इज्ज़ती.वह अपने उद्देश्य को सामने रखते हुए तन,मन और धन से काम करते रहे. 

शुरूआती दौर में उनको बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा मगर सालों की मेहनत रंग लाई और समाज ने उनके काम को सराहा और उनको अपना सहयोग देना शुरू कर दिया. इस सहयोग और सहानुभूति से उनका विश्वास बढ़ा और फिर उन्होंने लोकल प्रशासन को कहा की अब लावारिस लाशों को फेकने या बहाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि अब लाशें लावारिस नहीं बल्कि उनका वारिस मैं हूँ और फिर लावारिस लाशों के वारिस बनकर उनका का अंतिम संस्कार उनकी धार्मिक परम्पराओं के आधार पर करने लगे.इस सफ़र में अब तक शरीफ चाचा 2500 मुस्लिम और 3000 हिन्दू तथा अन्य समाज की लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार उनके धार्मिक रीति रिवाज के अनुसार कर चुके हैं. 

इस काम के लिए उन्हें स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पुरस्कृत किया जा चुका है. वर्तमान ही में उनको भारत सरकार ने “पद्म श्री” से सम्मानित किया  है.फिल्म अभिनेता आमिर खान द्वारा आयोजित “सत्यमेव जयते” में भी उनको आमंत्रित किया जा चुका है. 

इतने लम्बे संघर्ष के बाद आज शरीफ चाचा फैज़ाबाद और अयोध्या में सांप्रदायिक सौहार्द की एक मिसाल बन गए हैं.हिंदू, मुस्लिम और अन्य समाज के नौजवान उनसे प्रेरणा लेते हुए समाज में शान्ति और सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखने में लगे रहना चाहते हैं.जिससे कि हमारे मुल्क का दुनिया में नाम रोशन हो और भारत सुपर पॉवर बन सके. 
 
                        
इन दिनों शरीफ़ चाचा बीमार हैं.शरीफ़ चाचा लीवर  की बीमारी से जूझ रहे हैं और बिस्तर के पर्याय बन गये हैं.अभी 80 साल के हो गये हैं.चाचा जान को  यूपी सरकार और लोकल मसीहा की तरह मिल गये हैं. 

मोहम्मद शरीफ़ चाचा के पुत्र मोहम्मद शागीर ने कहा कि मेरा 22 वर्षीय भाई किसी काम से सुल्तानपुर गये थे.इसके बाद बदमाशों ने मेरे भाई की हत्या कर दी.उसके बाद बदमाशों ने भाई की लाश को बोरे में भरकर फेंक दिया था. अब्बू (चाचा शरीफ) को अपने बेटे की लाश तक नही मिली,उनके बेटे की मौत और लाश नसीब ना होने से इतना बड़ा ज़ख्म दिया कि उन्होंने उस ज़ख्म को भरने के लिए ठान लिया.  
लावारिश लाशों के वारिस बनने के लिए.मोहम्मद शागीर कहते हैं शरीफ चाचा ही हैं जो अपने बेटे की तरह ही लावारिश लाश को गला लगाते,उसके माथे को चूमते और अपने हाथों से मज़हब के अनुसार उसे दफ़नाते या मुखाग्नि देते हैं. 

उन्होंने कहा कि चाचा जान ने अपने जीवन को 
लावारिश लाशों को सम्मानपूर्ण अंतिम संस्कार करने में झोक दिये है.लावारिस लाशों के वारिस शरीफ़ चाचा 27 साल में 28 हज़ार से अधिक लाशों को उनके रीति रिवाजों के अनुसार मुखाग्नि और दफ़ना चुके हैं. 


मोहम्मद शब्बीर कहते हैं कि भारत सरकार ने साल 2020 के लिए पद्म पुरस्कार से सम्मानित होने वाले नामों की घोषणा की थी. इसमें 7 लोगों को पद्म विभूषण, 16 को पद्म भूषण और 118 लोगों को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. कुल 141सम्मानित व्यक्तियों की लिस्ट में 123 नम्बर पर सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद शरीफ का नाम है. मगर बीमार हो जाने के कारण सम्मान ग्रहण करने नहीं जा सके.  

सामाजिक कार्यकर्ता के पौत्र मोहम्मद शब्बीर कहते हैं कि बीमार होने के बावजूद दादा पद्मश्री अवार्ड लेने जाने का मन बना लिये थे. 2500 रुपये अपने पड़ोसी से उधार भी ले लिये थे. दिल्ली जाने के लिए ट्रेन का टिकट भी कराया लेकिन लॉकडाउन की वजह से राष्ट्रपति भवन में होने वाला अवार्ड प्रोग्राम स्थगित हो गया.शरीफ़ चाचा आज भी उस अवार्ड का इंतज़ार कर रहे हैं.शरीफ़ चाचा की ख़्वाहिश है कि भले ही अवार्ड अपने हाथों से ना लू लेकिन किस तारीख़ को मिलेगा वह तारीख़ अपने जीते जी जानने के लिए ख्वाहिशमंद हैं. 

इस बीच लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाले फैजाबाद के शरीफ चाचा को उनका पद्मश्री अवॉर्ड दिलाने के लिए बीजेपी सांसद और विधायक आगे आए हैं. अयोध्या से विधायक वेद गुप्ता और सासंद लल्लू सिंह ने वादा किया है कि वह केंद्र को पत्र लिखकर उनके खराब स्वास्थ्य हवाला देते हुए पद्मश्री पुरस्कार घर तक भिजवाने का आग्रह करेंगे. 

 

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