बोलते हैं तो हिम्मत के साथ बोलते हैं जयंत चौधरी

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बोलते हैं तो हिम्मत के साथ बोलते हैं जयंत चौधरी

उर्मिलेश  
ये जयंत चौधरी जब भी बोलते हैं, हिंदी-भाषी राज्यों की राजनीति के अपने कई अन्य सम-वयस्कों से कुछ अलग नजर आते हैं. उनकी बातों में अपेक्षाकृत प्रौढ़ता और समझदारी होती है. अपनी बात वह साहस के साथ कहते हैं. यूपी के कुछ अन्य 'युवा ह्रदय-सम्राटों' या पूर्व-अपूर्व मुख्यमंत्रियो की तरह वह किसी जाने-अनजाने डर से नहीं अटकते!   
कल यानी सोमवार की शाम एक अंग्रेजी चैनल पर उनका इंटरव्यू सुन रहा था. उनके जवाब में गंभीरता थी. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि चौधरी चरण सिंह जैसे दिग्गज और प्रभावशाली नेता की 'विरासत' के बावजूद यह युवा नेता यूपी या उत्तरी राज्यों की राजनीति में अपना प्रभावी जनाधार क्यों नहीं बना सका? कृषकों और कृषि-क्षेत्र में भी यह पार्टी अपेक्षा के अनुरुप लोकप्रिय क्यों नहीं हो सकी?  
मजे की बात है कि यूपी, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान या बिहार में इस वक्त जितने भी 'नेता-पुत्र' दिख रहे हैं, उन सब में जयंत का अंदाज कुछ अलग है. वह सज्जन और शालीन दिखते हैं. बीते कुछ समय से उन्हें कई बार सुन चुका हूं. हर बार मैं इसी नतीज़े पर पहुंचता हूं कि आज के ज्यादातर राजनीतिक सवालों या मुद्दों पर समझदारी के साथ बोलने में वह गैर-वामपंथी और गैर-भाजपा पृष्ठभूमि के अन्य कई युवा नेताओं के मुकाबले दक्ष हैं. उनके पिता सियासी तौर पर चाहे जितने 'चतुर' रहे हों पर जयंत राजनीतिक तौर पर निश्चय ही उनसे ज्यादा समझदार दिखते हैं. 
अब कोई ये ग़लतफहमी न पाले कि मैं जयंत चौधरी को 'प्रमोट' कर रहा हूं. सच ये है कि उनसे मैं आज तक कभी मिला नही हूं! कभी फोन पर भी बात नही की. उनके पिता अजित सिंह से कुछेक मुलाकातें जरूर हैं, जब वह राजनीति में खूब सक्रिय थे और मैं 'हिन्दुस्तान' अखबार का राजनीतिक संवाददाता था.  बस प्रोफेशनल सम्बन्ध थे. वह भी बरसों पहले! सच ये है कि मैं बड़े नेताओं से कभी निजी रिश्ते नहीं बनाता!  
जयंत के दादा यानी चौधरी चरण सिंह से भी तीन-चार बार मिला था. दो बार इंटरव्यू भी किया था. अन्य सभी नेताओं की तरह उनसे भी मेरी खास निकटता नहीं रही. एक इंटरव्यू के बाद चौधरी साहब ने अपनी दो पुस्तकें उपहारस्वरुप दी! उसमें एक किताब भारतीय अर्थव्यवस्था के गांधीवादी परिप्रेक्ष्य पर थी. उसे मैं पढ़ गया था. सन् 1986 मैं दिल्ली से 'नवभारत टाइम्स' के संवाददाता के रूप में पटना चला गया और फिर राष्ट्रीय-राजनीति के तत्कालीन दिग्गजों से मिलना-जुलना कम हो गया.   
चौधरी साहब के पौत्र जयंत की अब तक की राजनीतिक-यात्रा बहुत चमकदार नही है. अपने पिता के मुकाबले वह ज्यादा समझदार और संवेदनशील दिखते हैं. इसके बावजूद अगर यूपी या उत्तर की सियासत में वह नहीं चमके तो कोई न कोई बात तो होगी! उन्हें ईमानदार आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. शायद, इससे कोई नया रास्ता दिखे! 
 

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