फ्रीलांस की फुकती पकड़े दिल्ली घूमते रहे

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फ्रीलांस की फुकती पकड़े दिल्ली घूमते रहे

चंचल  
बहैसियत एक्सक्यूटिव एडिटर हम  हिंदुस्तान  न्यूज एजेंसी में जो वक्त काट रहे थे , वे हमारे आराम  और ऐश के दिन थे . वह बिल्डर जिसने हिंदुस्तान  खरीदा था , बुड़बक तो था नही , घाट घाट का पानी पिये हुए था , उसने हिंदुस्तान  बिल्डिंग के पीछे जो बड़ा सा लान था उसे एक सरदार जी को किराए पर उठा दिया और कागज पर यह दर्ज हुआ कि एजेंसी अपने कर्मचारियों के लिए एक कैंटीन खोल रही है . यह बात दीगर थी कि दफ्तर एक तरह से अपने दरवाजे को ओढ़का चुका था , कर्मचारी न के बराबर थे , एक्सक्यूटिव एडिटर साहब को  गर पानी पीना होता या चाय की तलब लगती तो उन्हें उठ कर सड़क  पार जाना पड़ता लेकिन ' माया  भगवान की ' सरदार जी का टेंट लग गया . फर्नीचर फैल गए और कैंटीन खुल गयी . इसके पहले ग्राहक होते खुद एक्सक्यूटिव एडिटर साहब .  
- कुलदीप ! बोहनी हो गयी ?  
- जी सर ! बासवानी साहब  आये थे , पूछ रहे थे , घूमने गए हैं अभी आएंगे .  
-  बासवानी हमारा दोस्त . आप जानते होंगे अगर  
' जाने भी दो यारो ' और चश्मेबद्दूर फ़िल्म देखे होंगे तो उसमें रवि बासवानी का जबरदस्त रोल है . रवि का घर ठीक दफ्तर के सामने सड़क पर था . रवि वासवानी से हमारी  दोस्ती  हुई थी आज के सबसे बड़े और चर्चित पर्यावरणविद राकेश खत्री की मार्फ़त . सुबह की चाय हम दोनों साथ शुरू करते . रवि को हमेशा जल्दी रहती और खाने पीने में परहेज करना था सो रवि दोनो शर्तों का भरपूर पालन करता - यार  देखो , देर हो जाएगी जल्दी भागूंगा , नही नही भाई नास्ता घर पर यार , अच्छा चलो एक हल्का ले लेते हैं , क्या है दोस्त कुलदीप ?  जो हुक्म और रवी का नास्ता दोपहर के भोजन के बराबर हो जाता . और जल्द निकलना 12 बजे के आस पास .  
     दोपहर का हमारा भोजन शानी जी ( मशहूर लेखक गुल्शेरखां शानी ) के साथ होता . अक्सर तो हिंदुस्तान  की कैंटीन में या कभी कभी साहित्य अकादमी के दफ्तर जो मंडी हाउस के रविन्द्र भवन में था और साहित्य अकादमी से निकलनेवाली पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे शानी जी . हम दो कभी  भी दोपहर का  लंच अकेले या दो जन ने नही लिया . विष्णुखरे ,  राठी जी या कोई न कोई जरूर आ जाते या बुलाये जाते . मन और मिजाज से शानी साहब की नफासत और  नवाबी  दस्तरखान को जिंदा रखती . लेकिन  हमारा यह निकम्मापन कब तक चलता . सरकार ने इमारत और जमीन वापस ले ली , . बिल्डर गायब . कुलदीप का तंबू उखड़ गया और हम लौट के फ्रीलांसर होकर घर आये .  
    फकीरी की आदत अब काम आ रही थी लेकिन नौकरी नही रही. एक दिन हल्ला मचा दिल्ली से चौथी दुनिया ' लांच ' हो रही है . भाई संतोष भारती इसके संपादक हैं , सम्पादकीय टीम में राम कृपाल , कमर वहीद नकवी , अजय चौधरी , अर्चना झा , वगैरह वगैरह लोग जुट रहे हैं . संपादक संतोष जी के अलावा हम दो और लोंगो से बावस्ता रहे जिसमे राम कृपाल जी और कमर् वहीद नकवी जी . इन तीनो से हमारा  अच्छा परिचय रहा  और ये लोग इस बात से अनभिज्ञ नही रहे कि  यह आज कल खाली है , फिर भी बुलावे का कोई संकेत नही . लेकिन हमने अपनी तरफ से कोई पहल नही की  ,गो की राम कृपाल और नकवी जी चाहते थे , चंचल आ जाय . लेकिन संपादक जी की तरफ से ग्रीन सिग्नल नही मिल रहा था . चुनांचे हम  अपने फ्रीलांस की फुकती पकड़े दिल्ली घूमते रहे  . पर  सांझ राम कृपाल के घर कटने लगी .  बे नागा संडसा उनके घर गिरा रहता .  
एक दिन बात बात में मजाकिया टिप्पणी के कालम की बात चली राम कृपाल ने कहा भैया आप लिखेंगे ?  
- फ्रीलांसर से कई सवाल नही पूछे जाते , जिसमे से एक यह भी है . अच्छा एक पीस दीजिये आज ही , कितना समय लगेगा ?  
- जितनी देर में नकवी जी  बाथ रूम से वापस आएंगे .  
अपना एक बना कर हम किनारे जाकर बैठ गए और एक पीस लिख डाला . पढ़ने के लिए हमने अर्चना जी Archana Jha  को पकड़ा दिया . अर्चना जी पढ़ती जाती और  हंसती जाती . दूसरे दिन वह चौथी दुनिया मे छापा गया -  कालम का नाम  रखा गया  ' लममरदार कहते भये ' /  चिखुरी चिचियाने फिर बस्ते में चले गए .  
हुकूमत को पत्रकारीय हिलाती है , बाज दफे उसके बनने में मदद भी करती है , कुछ कम कभी ज्यादा . जिन दो अखबारों ने  'खुल कर ' हुकूमत के खिलाफ माहौल बनाये हैं निष्पक्षता का लबादा फेंक  कर  मैदान में उतरे उसमें रामू जी राव का  'ई नाडू ' है जिसने एमटीआर की तेलगुदेशम को स्थापित किया और दूसरा है  'चौथी दुनिया '  जो  वीपी सिंह के लिए  जिया और जब वे ' जी गए ' तो चौथी दुनिया ने खुद को विसर्जित कर लिया . बहरहाल चिखुरी के चिचियाने की.लालसा  पूरी हुई भाई हरिवंश के कार्यकाल में जब वे 'प्रभात खबर ' के संपादक रहे . आप चिखुरी से महरूम न रहें इस लिए सोचता हूँ फेसबुक पर जदा कदा चिखुरी  का चिल्लाना सुनाई पड़े.चिखुरी कथा समाप्त .(  शानी जी ) 
 

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