दिल्ली की शामे ज्यादा ही चुहुलबाज होती थी

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दिल्ली की शामे ज्यादा ही चुहुलबाज होती थी

चंचल  
हमने जब यह विषय उठाया और लिखने की सोचा तो इसका नाम रखा था  -' चिखुरी उवाच ' .एक सांझ यस पी (  यस पी  सिंह , सुरेंद्र प्रताप सिंह , रविवार छोड़ कर दिल्ली आए थे , नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक थे , बाद में  'आज तक ' की शुरुआत की )  घर आये .उन दिनों दिल्ली की शामे ज्यादा ही चुहुलबाज होती थी,  अब तो सुना है-  सब है , वैभव है,  नाम है, रुतबा है , रसूख है ,  पर फुर्सत नही है,  क्यों कि खुद के फैलाये  गए खुराफातों का कबाड़  चौरफ़ा घेर लिया  है. फुर्सत तक  पहुंच नही बन पा रही है .बहरहाल यस पी का नमूदार होना एक लवाजमे की शक्ल में होता था .भाई राम कृपाल , कमर वहीद नकवी ,  वगैरह  सांझ सवार देते .उन दिनों हम हिंदुस्तान समाचार एजेंसी के कार्यकारी संपादक थे .संघियों की संस्था थी,  मरहूम बालेश्वर अग्रवाल की मेहनत मसक्कत पर खड़ी की गई एक प्रतिबद्ध संस्था थी,  कालांतर में जो भी घटा , उसका जिक्र यहां जरूरी नही है , लेकिन यह इतनी बड़ी संस्था एक बिल्डर के हाथ बेच दी गयी .यहां दो चालाकियों  के  बीच सौदेबाजी का खेल था . हिंदुस्तान प्रशासन ' भागते  भूत की लँगोटी ' भर चाह रहा था और बिल्डर को ' एजेंसी जाय भाड़ में '  '  जमीनिया '  तो सोना ऊगली न ?  बिल्डर की नजर जमीन पर थी जिस पर हिंदुस्तान का दफ्तर था ।( दिल्ली में  इसका दफ्तर रहा शंकर  रोड .लबे सड़क ।)  सौदा हो गया और हिंदुस्तान बिक गया . इन साहब को कहीं से पता चला कि चंचल फुर्सत में है , फ्रीलांस से खर्च निकाल रहा है , सस्ते में मिल जाएगा , इसे संपादक बना दो .और हम बन गए .लेकिन जिस हादसे का अंदेशा था वही हुआ . 
      संघ की कई बेहतर आदतों में से एक है - ये अपने विरोधी को दुश्मन समझते है और उसके होने को पहले ही सूंघ लेते हैं .दर्जनों संवादाताओं , कर्मचारियों , मशीनमैनो वगैरह का एक नालायक दस्ता हमे मिला .हम उन्हें समझे , इसके पहले ही वे हमें समझ चुके थे .इसके नेता रहे रामजी प्रसाद सिंह .रु ब रु होने पर इतना सभ्य और सुसंस्कृत  '  मैन ' हमे कम ही  मिले हैं .ये साहब रोज षड्यंत्र रचते .एक उदाहरण दे कर आगे बढ़ता हूं -  
    हिंदुस्तान न्यूज एजेंसी के टेलीप्रिंटर मशीन  हर अखबार , अन्य न्यूज एजेंसी , जिम्मेदार नौकरशाह व मंत्रियों के यहां लगे हुए थे .हम जो खबर देते वो मशीन हर जगह भेज देती . हमारे संवाददाता असहयोग पर थे .या तो खबर दें नही , या डांट  डपट के बाद दे भी तो,  बकवास खबर .जब कोई खबर न हो तो हम मशीन मैन को बोल देते थे रिपीट कर दिया करो .यानी उसी खबर को दुबारा चला दो .एक दिन नवभारत टाइम्स से फोन आया .फोन पर थे कार्यकारी संपादक यस पी सिंह .बोले - क्या भाई ये कैसी भैंस है , तब से  मरी जा रही है ?  
- हमने पूछा क्या हुआ ? बोले - सुनो  खबर जो तुम्हारे यहां से चल रही है , ' पिलखुआ - आज सुबह 6 बजे पिलखुआ आउटर पर मालगाड़ी से टकरा कर एक भैंस मर गयी .दो घंटे से रेल आवागमन वाधित है ' अभी बज रहे हैं ग्यारह .सात बार यह भैस मर चुकी है .कब तक मारोगे ?  
     दूसरे दिन सुबह दफ्तर पहुंचा तो दफ्तर के सामने मैदान में दस पन्द्रह लोग बैठे - चंचल मुर्दाबाद , चंचल वापस जाओ , चीखते मिले .हम चुपचाप अंदर गए सात और लोंगो को नोटिस जारी कर दिया .और इस लिए कह रहा हूँ कि आज जिस वजह से मुर्दाबाद हो रहा है कल शाम को ही चार लोंगो को निकाल चुका था ।  
   इस तरह एक तरफ से  बर्खास्तगी दूसरी तरफ से मुर्दाबाद चलता रहा .ये लोग जब IFWJ के पास गए हमारे खिलाफ तो वहां से तक सा जवाब मिला हम बीच मे नही पड़ेंगे .अचानक यह सब रुक गया क्यों कि भारत सरकार की तरफ से हिंदुस्तानन्यूज एजेंनसी के  कार्यकारी संपादक चंचल के नाम एक खत मिला कि सारी न्यूज एजंसियों को जोड़ कर PTI के तहत एक हिंदी सेवा शुरू  किये जाने की योजना है , आपकी एजेंसी में जो कर्मचारी कार्यरत हैं उनकी सूची तत्काल भेजिये जिससे उन्हें नई संस्था में समाहित किया सके .'  
    इस खबर ने आंदोलन बन्द करा दिया .मुर्दाबाद वाले फर्सी सलाम करने लगे . 
   जारी

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