बस्तर के आदिवासी बाजार में सल्फी

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बस्तर के आदिवासी बाजार में सल्फी

अंबरीश कुमार 
यह जो कटहल का दरख्त देख रहे हैं यह सौ साल पुराना है .यह दावा सर्किट हाउस के रसोइये का था जिसने रात के खाने में कटहल का दो प्याजा बनाया .बनाया तो कड़कनाथ भी था क्योंकि अपने साथ अरविंद उप्रेती भी थे जो दिल्ली से बस्तर देखने आए थे .बस्तर के व्यंजनों का स्वाद भी लेना चाहते थे .इसलिए सभी इंतजाम था .दिन भर की यात्रा के बावजूद काफी पीने बाजार गए तो आदिवासी बाजार भी देखा .लाल चींटी की चटनी दोने में मिल रही थी और दोने में ही सल्फी भी थी . बस्तर के हाट बाजर में मदिरा और सल्फी बेचने का काम आमतौर पर महिलाएँ ही करती हैं. सल्फी उत्तर भारत के ताड़ी जैसा है पर छत्तीसगढ़ में इसे हर्बल बियर की मान्यता मिली हुई है. यह सम्पन्नता का भी प्रतीक है सल्फी के पेड़ों की संख्या देखकर विवाह भी तय होता है.बाजार से निकले और सर्किट हाउस लौट आए .यह सर्किट हाउस भी बहुत पुराना है .वैसे भी बस्तर अंचल अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक शासकवर्ग के लिए मौज-मस्ती की भी पसन्दीदा जगह रही है. मासूम आदिवासियों का लम्बे समय तक यहाँ के हुक्मरानों ने शोषण किया है इसी के चलते दूरदराज के डाक बंगलों के अनगिनत किस्से प्रचलित हैं. इन बंगलों के खानसामा भी काफी हुनरमंद हैं. पहले तो शिकार होता था पर अब जंगलों से लाए गए देसी मुर्गो को बाहर से आने वाले ज्यादा पसंद करते हैं. पर झाबुआ के मशहूर कडक़नाथ मुर्गे भी यहां मिलते है . शायद आबोहवा का असर हो . 

कोंडागाँव पीछे छूट गया था और बस्तर आने वाला था. आज भी यह छोटा सा गाँव जिन्दा है. इसका जिला मुख्यालय जगदलपुर है जो ग्रामीण परिवेश वाला आदिवासी शहर है. बस्तर का पूरा क्षेत्र अपने में दस हजार साल का जिंदा इतिहास सँजोए हुए है. हम इतिहास की यात्रा पर बस्तर पहुंच चुके थे. दस हजार साल पहले के भारत की कल्पना सिर्फ अबूझमाड़ पहुंच कर की जा सकती है. वहाँ के आदिवासी आज भी उसी युग में हैं. बारिश से मौसम भीग चुका था. हस्तशिल्प के कुछ नायाब नमूने देखने के बाद हम गाँव की ओर चले. 
बस्तर क्षेत्र को दंडकारण्य कहा जाता है. समता मूलक समाज की लड़ाई लडऩे वाले आधुनिक नक्सलियों तक ने अपने इस जोन का नाम दंडकारण्य जोन रखा है जिसके कमाँडर अलग होते हैं. यह वही दंडकारण्य है जहाँ कभी भगवान राम ने वनवास काटा था. वाल्मिकी रामायण के अनुसार भगवान राम ने वनवास का ज्यादातर समय यहाँ दंडकारण्य वन में गुजारा था. इस दंडकारण्य की खूबसूरती अद्भुत है. घने जंगलों में महुआ-कंदमूल, फलफूल और लकडिय़ाँ चुनती कमनीय आदिवासी बालाएँ आज भी सल्फी पीकर मृदंग की ताल पर नृत्य करती नजर आ जाती हैं. यहीं पर घोटुल की मादक आवाजें सुनाई पड़तीं हैं. असंख्य झरने, इठलाती-बलखाती नदियाँ, जंगल से लदे पहाड़ और पहाड़ी से उतरती नदियाँ अपनी प्राकृतिक खूबसूरती से मन मोहती हैं. कुटुंबसर की रहस्यमयी गुफाएँ और कभी सूरज का दर्शन न करने वाली अंधी मछलियाँ, इसी दंडकारण्य में हैं.जारी  
 

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