सतीश जायसवाल
निर्मल वर्मा के संस्मरणों का एक संकलन है -- हर बारिश में. 'इस ''हर बारिश में'' उनके यूरोपिय देशों के संस्मरण संकलित हैं. उनके ये संस्मरण बार-बार पढ़ने के लिए हैं.उनकी इस बारिश ने बारिश को किसी एक मौसम या किसी एक मन के लिए नहीं छोड़ा. बल्कि अनुभूतियों में व्याप गयी. उसमें रूमान भी हो सकता है और कोई उदास स्मृति भी धीरे से साथ हो सकती है.
शिमला की किसी बरसती शाम का, कृष्णा सोबती का संस्मरण है ... और घंटी बजती रही.उनके इस संस्मरण में मैं गिनती करता रहा कि कृष्णा सोबती ने उस शाम में कितनी बार चाय पी ?
उनकी वह चाय शिमला की उस बरसती शाम को हद दर्ज़े तक रूमानी बना रही थी. लेकिन आखीर में उस संस्मरण ने रूमान को उदासी में अकेला छोड़ दिया.वहाँ, जहां घण्टी बजती रही लेकिन उस तरफ से किसी ने फोन नहीं उठाया. क्योंकि वहाँ पर अब वो था ही नहीं, उस तरफ जिसे फोन उठाना था.उदासी भी रूमान का एक रंग है. और वह भी बारिश में घुला हुआ मिलता है.
मुंबई की बारिश रूमानी होती है. हिन्दी फिल्मों की, शायद सबसे रूमानी जोड़ी नरगिस और राजकपूर ने मिलकर इस रूमान को सजाया है.राजकपूर की फिल्म श्री ४२० ने एक ऐसा रूमान रचा जिसकी छुअन अभी तक बनी हुयी है. 'श्री ४२०' का वह कोमल प्रसंग . वैसे का वैसा अभी तक अनुभूतियों में भीग रहा है जैसा उस बारिश में भीग रहा था. किसी पुल के कोने पर दुअन्नी वाली चाय की अपनी केतली और सिगड़ी लेकर बैठा हुआ वह, मूछों वाला भैय्या. और उस बरस रही बारिश में नरगिस-राजकपूर के बीच एक छाते की साझेदारी में कितना कुछ पनप गया --प्यार हुआ, इकरार हुआ...एक छाते की वह भीगती हुयी साझेदारी पीढ़ियों का सपना रचने लगी -- मैं ना रहूंगी, तुम ना रहोगे: फिर भी रहेंगी निशानियां..."छतरियों का सौंदर्य तो मुंबई में खिलता है. बारिश की एक बौछार पड़ते ही रंग बिरंगी छतरियों के शामियानेसा फ़ैल जाता है. मुंबई की बारिश धूप-छाँव का खेल खेलती है. छतरियां उसके साथ संगत करती हैं. मुझे जब भी मुंबई की कोई बरसात मिलती है, मैं दादर के उस रेल-पुल तक जरूर जाता हूँ, जो दादर ईस्ट और वेस्ट को जोड़ता है.शायद मैं दुअन्नी की चाय वाले उस भैय्या को वहाँ ढूंढता हूँ, पुल के इस या उस कोने में बैठा हुआ मिल जाए .
कथाकार कमलेश्वर को मुंबई पसन्द थी. क्योंकि मुंबई में समुद्र है. और समुद्र की बारिश खूबसूरत होती है. वह देखने की होती है. भीगने की होती है. बार-बार भीगने की. वह सुनने की होती है. लय में बंधकर उतरती है और धुन बाँधकर बजती है.कमलेश्वर ने मुंबई की बारिश को उसकी स्वर लिपि में लिखा. खूब लम्बी आलाप की तरह लम्बे शीर्षक में बाँधकर -- उस रात ब्रीच कैन्डी की बरसात में वह मेरे साथ थी और ताज्जुब की बात कि दूसरी सुबह सूरज पश्चिम से निकला....यह कमलेश्वर की एक कहानी का शीर्षक है, जिसमें मुंबई की बारिश लगातार बरस रही है. भिगा रही है. यह कहानी रात का रहस्य रचती है. एक बार वह ब्रीच कैन्डी पर रात का रहस्य है. और अगली बार वह बारिश का रहस्य हो जाता है. ब्रीच कैन्डी उसमें विलीन हो जाता है.मैंने अभी तक ब्रीच कैन्डी पर बरसात नहीं देखी है. फिर भी लगता है कि मैं उसे जानता हूँ. बारिश को या उसे जो उस रात वहाँ साथ थी ? क्या मालूम . लेकिन मुंबई तो बारिश में ही होती है.
कमलेश्वर की इस कहानी का शीर्षक असाधारण रूप से लम्बा है. और एक अलग से शिल्प की रचना करता है. इससे प्रभावित कुछ ऐसा ही शिल्प मुझे अपनी एक कहानी के लिए सुझा -- बारिश में साथ घूमती हुयी आवारा लड़की किसी यायावर के लिए एक घर से कम क्या होगी .उसमें भोपाल की बारिश है. मुंबई की बारिश समुद्री होती है. भोपाल की बारिश मैदानी. लेकिन उसमें, गिर्द
के पठार से चलकर आ रही ठण्डी हवा के तीखे झोंके होते हैं. तब न्यू मार्केट में किसी ठेले पर खड़े होकर भुट्टे खाना भोपाल की बारिश को हद दर्ज़े का रूमानी बना देता है. ऐसे में कोई आवारा लड़की साथ हो तो ?फोटो -अंबरीश कुमार
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