बंगाल की पहचान ‘श्रीराम’ नहीं ‘दुर्गा’ हैं

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बंगाल की पहचान ‘श्रीराम’ नहीं ‘दुर्गा’ हैं

शंभूनाथ शुक्ल 
देश के गृहमंत्री कह रहे हैं कि बंगाल में “जै श्री राम” बोलना गुनाह है. उनके निशाने पर वहाँ की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं. वे यह भी दावा करते हैं कि मई के बाद ममता दीदी स्वयं राम-राम ही जपेंगी. अब या तो गृहमंत्री अमित शाह बंगाल से वाक़िफ़ नहीं हैं अथवा वे वहाँ राम भक्ति को आरोपित करना चाहते हैं. पर वहाँ राम भक्ति को आरोपित करना आसान नहीं है. बंगाली हिंदू राम को नहीं जानते. वहाँ राम नवमी कोई पर्व नहीं है न ही वहाँ राम लीलाएँ होती हैं. और इसकी वजह है कि बंगाल शुरू से ही शाक्तों का गढ़ रहा है. इसीलिए वहाँ दुर्गा भक्ति तो है पर श्रीराम नहीं हैं. वहाँ सभी मंदिरों में देवी दुर्गा या उनके प्रतिरूपों की ही प्रधानता है. नादिया (नवद्वीप) में ज़रूर कृष्ण की पूजा देखने को मिल जाएगी. वहाँ मंदिर भी कृष्ण के हैं. नादिया के दूसरी तरफ़ मायापुर है, जहाँ इस्कान का विशाल मंदिर है. जिसमें राधा-कृष्ण की अद्भुत प्रतिमा है.  
मैं तीन साल कोलकाता में रहा हूँ. हालाँकि तब वहाँ कम्युनिस्ट राज था, लेकिन यह राज बस सरकार को चलाने भर से सीमित था. बंगाली लोक मानस में धर्म की जड़ें बहुत मज़बूत थीं. आज भी वैसी ही हैं. मगर आस्था, विश्वास अलग मामला है. यूँ भी अपने देश में कहीं राम पूजे जाते हैं तो कहीं कृष्ण. कहीं शिव तो कहीं देवी दुर्गा. एक भारत में कोई एक देवता, एक ईश्वर या एक मत नहीं है और विविधता भारत की पहचान है. मैंने अपने प्रवास के दौरान उत्तर भारत के पर्वों के विपरीत वहाँ के पर्व, त्योहार और पूजा पद्धतियाँ देखीं. मैं जब कोलकाता में जनसत्ता के सम्पादक पद को सम्भालने पहुँचा तो पहले तो मौसम की मार देख कर चौंका. क्योंकि वहाँ जाने के पूर्व मैं चंडीगढ़ में जनसत्ता का संपादक था. मैं फ़रवरी में कोलकाता गया था, इसलिए चंडीगढ़ और दिल्ली के मौसम के अनुकूल स्वेटर और कोट वग़ैरह सब पहन रखे थे. किंतु कोलकाता में हवाई अड्डे से बाहर आते ही ये सारे ऊनी वस्त्र उतार कर रखने पड़े. वहाँ हाफ़ शर्ट का मौसम था. देश एक लेकिन विविधता अनेक.  
मैं वहाँ अलीपुर में रहता था. इसलिए मैंने पहला काम यह किया कि वहाँ की प्रतिष्ठित काली मंदिर (काली बाड़ी) में गया. उस दिन बुधवार था. मंदिर की नालियों में तेज़ी से रक्त प्रवाह जारी था. पता चला, कि बुधवार को माँ के समक्ष बलि दी जाती है. वह भी भैंसे के. अब आप कल्पना करिए कि मुझ जैसे शुद्ध शाकाहारी वैष्णव ब्राह्मण पर क्या गुजरी होगी! लेकिन यह आचार-विचार और आस्था का मामला है, जो एकदम निजी है. कोलकाता में नौकरी के लिए गया था. इसलिए कोई ज़रूरी नहीं कि सब जगह मेरी आस्थाओं के अनुकूल ही आचरण होता हो. इसलिए मैंने श्रद्धावनत होकर माँ काली के दर्शन किए. मैंने वहाँ देखा कि चैत्र की नवरात्रि और रामनवमी को लेकर बंगाली घरों में कोई विशेष पूजा-अर्चना नहीं होती. कृष्ण जन्माष्टमी की प्रतिष्ठा है, लेकिन बंगाली हिंदू इस दिन व्रत नहीं करता. नॉन वेज भी घर पर बनता है, यहाँ तक कि बंगाली वैष्णव ब्राह्मण “सेन शर्मा” भी मछली खाते हैं और वे इसे मांसाहार नहीं मानते. ज़ाहिर है, वहाँ पर आहार में भी यह अलगाव है.  
पूरे बंगाल में त्योहार खूब ज़ोर-शोर से मनाए जाते हैं. बंगाली 14/15 अप्रैल को नव वर्ष मनाते हैं. इसे “पोयेला बैशाख” कहा जाता है. इसके अलावा बसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) विश्वकर्मा पूजा आदि को भी खूब उत्साह से मनाते हैं. लेकिन क्वार की नवरात्रि यानी शारदीय नवरात्रि में तो पूरा बंगाल उमड़ पड़ता है. षष्ठी से दशमी तक देवी दुर्गा का उत्सव इतनी धूमधाम से मनता है कि उत्तर का व्यक्ति तो चकित रह जाए. बंगाली उत्तर भारत के हिंदुओं की तुलना में कहीं अधिक आस्थावान और उत्साही होता है. लेकिन वैष्णव मत के प्रति उसकी ममता कम है. मैंने कभी भी नवरात्रि पर उनके यहाँ राम पूजा या राम लीला होते नहीं देखी. अलबत्ता वहाँ का पंजाबी समाज रावण दहन के रोज़ दिन दो बजे शाम सात बजे तक राम लीला का मंचन ब्रिगेड मैदान में करता है. साल 2001 में इस समाज के कर्त्ता-धर्ता योगेश आहूजा ने मुझे इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया था. तब पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक दिनेश वाजपेयी और परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती भी मंच पर मेरे साथ थे. लेकिन यह एक तरह का रिवाज पूरा करने जैसा था. इस लीला में वहाँ के लोकल पंजाबी और उत्तर प्रदेश समाज के लोग थे. बंगाली हिंदू तो बस यूँ ही इस प्रहसन को एक तमाशा समझ कर आए थे. कोलकाता का मारवाड़ी समाज और गुजराती समाज बहुत समृद्ध है, इसलिए ताकतवर भी. किंतु ये लोग भी कृष्ण भक्त वैष्णव होते हैं. इसलिए उनकी दिलचस्पी भी राम और उनके जीवन से जुड़ी बातों को समझने में नहीं होती. न ही वहाँ अभिवादन में राम-राम बोलने का रिवाज है.  
वैष्णव भक्ति आंदोलन पूरे भारत में चौथी-पाँचवीं शताब्दी के आस-पास फैला. लेकिन तब उसका प्रसार दक्षिण भारत में ही था. फिर वह क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ा. पश्चिमी भारत से उत्तर की तरफ़ किंतु पूर्व में वह अपना कोई ख़ास असर नहीं दिखा सका. कन्नौज साम्राज्य के अधीश्वर हर्ष वर्धन की मृत्यु के बाद जब भोज परमार, चंदेल तथा सेन व पाल वंश का फैलाव हुआ तब वैष्णव मत को राज्याश्रय मिला. उस समय तक विष्णु के दस अवतार माने जाते थे, इसमें से शूकरावतार की बहुत प्रतिष्ठा थी. आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक “बाणभट्ट की आत्मकथा” पढ़ें. उसमें इस शूकर अवतार के पूजा का विशद वर्णन है. तब तक राम और कृष्ण की पूजा ज़्यादा प्रचलित नहीं थी. किंतु तुर्क ग़ुलामी के बाद उत्तर के हिंदुस्तान को एक त्राता की ज़रूरत थी. ऐसे में भक्त कवियों- सूर और तुलसी ने श्रीमद् भागवत और वाल्मीकि रामायण से कृष्ण और राम को नए रूप में प्रस्तुत किया. एक में लास्य है तो दूसरे में वीरोचित मर्यादा. राजपूती काल में वैष्णवों के आराध्य देव राम हुए. उत्तर भारत में तो राम भक्ति का प्रसार क्षिप्र गति से हुआ. किंतु पूर्वी भारत में वैष्णव आंदोलन 15वीं शताब्दी के बाद पहुँचा. वहाँ के प्रमुख वैष्णव चिंतक चैतन्य महाप्रभु की वैष्णव भक्ति कुछ भिन्न प्रकार की थी. इसका मुख्य उद्देश्य बंगाल में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देना था. दरअसल बंगाल में बौद्ध अधिक प्रबल थे. ब्राह्मण वहाँ दसवीं शताब्दी में शशांक के समय पहुँचे. इसके पहले यहाँ बौद्ध मत का प्रभाव था. बंगाल की वैष्णव भक्ति कई मामलों में उत्तर भारत और प्राचीन दक्षिण भारत की भक्ति से अलग थी. इसे दो श्रीमद् भागवत और बौद्धों के सहजिया तथा नाथ आंदोलनों से प्रेरणा मिली. जयदेव के गीत गोविंद में राधा और कृष्ण के शृंगारिक पद अधिक हैं. उसमें भक्ति का अभाव है. चंडीदास और विद्यापति के काव्य में हम वैष्णव भक्ति पाते हैं. मगर वह भी सहजिया से प्रभावित है.  
इस तरह चैतन्य महाप्रभु को ही बंगाल में वैष्णव भक्ति आंदोलन का जनक माना जा सकता है. पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले में 18 फ़रवरी 1486 को जन्मे चैतन्य ने बंगाल में इतनी प्रतिष्ठा पा ली थी कि लोग इन्हें साक्षात कृष्ण का अवतार समझते थे और इन्हें महाप्रभु कहा जाने लगा. चैतन्य महाप्रभु ख़ुद ब्राह्मण जातक थे, लेकिन इन्होंने उस समय वहाँ निचली कही जाने वाली जातियों के बीच समानता बरती. यहाँ तक कि हज़ारों बंगाली मुसलमान भी इनके इस गौड़ीय मत से जुड़े. इस मत में बौद्धों के सहज योग और नाथ संप्रदाय की समानता पर बाल दिया गया. यही कारण है कि बंगाल, ओडीसा और असम में देखते ही देखते इस मत का खूब प्रसार हुआ. चैतन्य महाप्रभु ने मात्र 47 वर्ष का जीवन पाया और 14 जून 1534 को पुरी में उनका निधन हुआ. बंगाल में जो समता और समरसता मिलती है वह चैतन्य महाप्रभु की देन है. इधर और उधर दोनों तरफ़ के बंगाल में ‘बाउल’ जोगी मिलते हैं. जो हिंदुओं की तथाकथित नीची जातियों और मुस्लिम होते हैं, वे सब चैतन्य महाप्रभु को अपना ठाकुर मानते हैं.  
इसलिए बंगाल में यह कहना कि पूरा बंगाल एक झंडे के तले आ जाएगा, नासमझी है. बंगाल में विविधता है और यह वैविध्य ही उसकी पहचान है. वहाँ वैष्णव हैं, लेकिन उनकी पूज्य शाक्त की अधिष्ठाता देवी दुर्गा हैं.फोटो साभार 

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