सत्यम पांडेय
ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ एक तयशुदा पटकथा के अनुसार घटित हुआ हो. शांतिपूर्ण ढंग से दो महीने से अधिक संचालित आन्दोलन में ‘गणतंत्र दिवस’ की ट्रैक्टर परेड के दौरान हिंसा, मीडिया के बड़े हिस्से द्वारा उसे एक आपराधिक और अभूतपूर्व हिंसा के तौर पर प्रस्तुत करना, किसानों द्वारा देश का भरोसा तोड़ने जैसे जुमलों का इस्तेमाल कर आन्दोलन के प्रति उभर रहे जन-समर्थन को ख़त्म करना, आन्दोलन स्थलों पर बिजली-पानी जैसी बुनयादी सुविधाओं को बंद कर देना, बाहरी लोगों को भेजकर झगडे करना और अंत में पुलिस के हस्तक्षेप से किसानों को जबरन उठा देना.
सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था, लेकिन संयोगों की अपनी ऐतिहासिक गति होती है और संभवतः इस बार राकेश टिकैत के आंसुओं को यह सौभाग्य हासिल हुआ. उन्होंने अपने गाँव से पानी नहीं आने के पहले पानी नहीं पीने का संकल्प ले लिया. अब पानी के महत्व को किसानों से अधिक कौन पहचानता है. बात की बात में उत्तरप्रदेश के अनेकों गाँव से लेकर ‘जेएनयू’ तक से लोग उनके लिए पानी लेकर आ गए और बाजी एकदम पलट गई.
अब जाहिर है, ये आन्दोलन एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल कर चुका है और एक लम्बे समय तक देश को प्रभावित करने के लिए उपस्थित है. चूँकि, हमारी पीढ़ी को इस तरह के दूरगामी आन्दोलनों को देखने का तजुर्बा नहीं है और आन्दोलन का मतलब टोकन आन्दोलन से लगाया जाने लगा है और जेल भरो का अर्थ सांकेतिक गिरफ्तारी हो चला है. न केवल आजादी के पहले, बल्कि उसके बाद भी कई आन्दोलन राजनैतिक हालत को बदलने में सफल इसलिए रह सके हैं क्योंकि वे सांकेतिक नहीं थे, बल्कि उन्होंने पर्याप्त समय तक जन-जीवन को प्रभावित किया था.
हमें भूलना नहीं चाहिए कि कोरोना काल के पहले भी देश में नागरिकता सम्बन्धी आन्दोलन सक्रिय था और लॉक डाउन के तुरंत बाद किसान आन्दोलन आरम्भ हुआ. दोनों ही आन्दोलन अपने कुछ मामलों में समानता लिए हुए हैं, जैसे - राजनैतिक पार्टियों और स्थापित नेतृत्व की गैर-मौजूदगी. इसका मतलब है कि हमारा देश एक दीर्घकालिक आंदोलन के दौर में प्रवेश कर चुका है. अब सवाल ये है कि क्या किसानों का यह आन्दोलन अपने भविष्य के लिए क्या निश्चित करता है और किस तरह से आगे बढ़ता है? इसके लिए यह देखना जरुरी होगा कि आन्दोलन किस तरह से अपने आधार को व्यापक और समावेशी करता है.
कोई भी आन्दोलन ऐतिहासिक तभी बनता है जब वह तात्कालिक मांगों और मुद्दों से आगे बढ़ पाए, जबकि सभी की शुरुआत तात्कालिक मुद्दों से ही होती रही है. इस आन्दोलन को भी किसानों से जुड़े दीर्घकालिक सवालों को अपना एजेंडा बनाना पड़ेगा. हालाँकि किसानों की आमदनी को बढ़ाना एक लम्बे समय की मांग रही है, लेकिन फ़िलहाल तीन कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर ही शुरुआत हुई है. किसानों की आमदनी बढाने के लिए खेती में आमूलचूल बदलाव की बात अगर आन्दोलन करेगा तो यह प्रतिकार से आगे विकल्प देने की स्थिति में आ सकेगा.
इसके लिए विकास के मौजूदा मॉडल को चुनौती पेश करनी होगी, जो खुद आन्दोलन के कथनानुसार कॉरपोरेट्स के मुनाफे के लिए काम कर रहा है. इसलिए जरुरी है कि शहर और उद्योग केन्द्रित विकास के मुकाबले गाँव और कृषि आधारित विकास को प्रधानता दी जाए. गाँव और जिलों को इकाई मानकर उनका विकास किया जाए और कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए. इससे गाँवों में रोजगार के अवसरों में बढ़ोतरी होगी और श्रमिकों को पलायन की जरुरत घटती जाएगी, जिसके चलते कोरोना काल जैसे अमानवीय पलायन की नौबत नहीं आएगी.
जब हम किसानों की आमदनी की बात करते हैं तो यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि देश में सबसे ख़राब हालत लघु, सीमान्त किसानों और खेतिहर श्रमिकों की है. पलायन करने वाली आबादी में सबसे बड़ी संख्या इन्हीं समुदायों की रहती है. इसके लिए कृषि मालिकाने में गैर-बराबरी प्रमुख कारण है. एक तरफ खेती पर निर्भर अधिकांश लोगों के पास या तो बिलकुल भी जमीन नहीं है अथवा बहुत थोड़ी सी है, दूसरी ओर भूतपूर्व जमींदारों-राजाओं और सामंतों के पास हजारों एकड़ जमीन मौजूद है.
नए कानूनों के बाद यह गैर-बराबरी और अधिक बढ़ने की आशंका है क्योंकि अब जमीन के मालिकाने में कॉर्पोरेट का भी दखल होगा. इसलिए यह जरुरी है कि खेती की जमीन के समान बंटवारे और समग्र भूमि सुधार की मांग को किसान आन्दोलन का अजेंडा बनाया जाए. इससे लघु, सीमान्त किसानों और खेतिहर मजदूरों को आन्दोलन से जोड़ने और राजनीति के विमर्श को बदलने में मदद मिलेगी.
खेतिहर श्रमिकों के मामले में एक और संवेदनशील सवाल को ध्यान में रखना होगा और वह यह है कि उत्तर भारत के उन इलाकों में जहाँ इस आन्दोलन का आज महत्वपूर्ण आधार है, जाति के आधार पर भेदभाव, वंचना और अत्याचार भी एक सच्चाई है. जातिगत वंचना का एक प्रकार भूमि के मालिकाने का नहीं होना भी है और इसी कारण खेतिहर मजदूरों की अधिकांश आबादी शोषित, वंचित और दलित जातियों से ताल्लुक रखती है. सामाजिक न्याय और जातिगत भेदभाव से मुक्ति का भरोसा दिलाये बिना खेत मजदूरों को आन्दोलन से जोड़ना मुश्किल है.
विकास के मॉडल से दूसरी महत्वपूर्ण चिंता जो किसान आन्दोलन को अपने एजेंडे पर लेनी चाहिए, वह खेती के तौर-तरीकों के चलते विषाक्त होती जा रही जमीन और पर्यावरण के उभरते संकट की है. कृषि लाभ का व्यवसाय भी बने और रासायनिक उर्वरकों आदि पर निर्भरता को भी कम किया जा सके, यह उम्मीद कठिन तो है, परन्तु जैविक और सतत कृषि के बिना किसानों के उज्जवल भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती. क्या यह संभव है कि किसान आन्दोलन के माध्यम से खेती के इस तरह के प्रयोग की आशा की जा सके, जहाँ जहरीले उर्वरकों का इस्तेमाल किए बिना कोई गाँव सामूहिक रूप से खेती कर रहा हो और सामूहिक मालिकाने का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए आमदनी का भी समान बंटवारा करे. जाहिर है, ऐसे गाँव में जाति या लैंगिक आधार पर भेदभाव अथवा अत्याचार की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
अभी तक की कहानी यह है कि आन्दोलन में पंजाब से तो महिलाओं की भागीदारी उत्साह जनक और अब तक देखे गए तमाम आन्दोलनों से बेहतर तस्वीर दिखाती है. इस मामले में यह विगत वर्ष के नागरिकता आन्दोलन की याद को ताजा करता है, लेकिन पश्चिमी उत्तरप्रदेश, हरियाणा और राजस्थान आदि के किसान जत्थों में महिलाओं की वैसी भागीदारी नजर नहीं आती. यह वहां की सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप ही है, लेकिन खापों के महिला विरोधी वातावरण से निकले बिना और महिलाओं को आन्दोलन में बराबरी की भूमिका दिए बिना क्या किसी दूरगामी आन्दोलन की कल्पना की जा सकती है?
जाहिर है, ऊपर लिखित उम्मीदें बहुत अधिक हैं और अपेक्षाएं बहुत बड़ी हैं, परन्तु कोई भी बड़ा आन्दोलन बड़े सवालों से मुठभेड़ करके ही बड़ा बनता है. हमारे देश में मजदूर आन्दोलन ऐतिहासिक और परिवर्तनकारी नहीं बन सका, क्योंकि अवसर होने के बावजूद उसने बड़े सवालों का सामना ना करने की सुविधा का चुनाव किया. आज यही अवसर किसान आन्दोलन के सामने भी है. क्या किसान आन्दोलन भी कठिन सवालों से मुठभेड़ किए बिना फौरी मांगों को पूरा करने की सुविधा को अपनाएगा अथवा वास्तव में एक बड़ा आन्दोलन बनने का विकल्प चुनेगा और न केवल खुद को उन ऐतिहासिक मांगों के अनुरूप ढालेगा, बल्कि देश और समाज को भी समय के साथ बदलने का विकल्प प्रस्तुत करेगा? (सप्रेस)
Copyright @ 2019 All Right Reserved | Powred by eMag Technologies Pvt. Ltd.
Comments