तपोवन परियोजना ने फिर बड़े बांधों पर सवाल खड़े किये

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तपोवन परियोजना ने फिर बड़े बांधों पर सवाल खड़े किये

सुरेश भाई 
चार दिन पहले उत्तराखंड में हुए हादसे और उसमें दो बड़ी बांध परियोजनाओं  ऋषिगंगा और तपोवन परियोजनाओं की तबाही ने एक बार फिर बड़े बांधों के औचित्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं. एक तरफ इन बड़े बांधों के कारण होने वाली तबाही सामने आ रही है, वहीं दूसरी तरफ चीन सरीखे देश विशालकाय बांध परियोजनाओं को खड़ा करने के मंसूबे बांध रहे हैं. प्रस्तुत है, ब्रहमपुत्र पर चीन में प्रस्तावित बड़े बांध की पड़ताल करता सुरेश भाई का यह लेख.-संपादक 
  
भारत, चीन, पाकिस्तान, नेपाल की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से बहकर आ रही ब्रहमपुत्र, सिंधु, महाकाली के पानी के बॅटवारे पर किसी-न-किसी रूप में विवादास्पद बयान सामने आते रहते हैं. चीन कह रहा है कि वह ब्रहमपुत्र पर विशालकाय बांध बनाने जा रहा है. चीन में इस नदी को यारलुंग जांगबाओ के नाम से जाना जाता है, जो तिब्बत के रास्ते से होकर भारत, बांग्लादेश में पहुंच रही है. वैसे विभिन्न सूचनाओं के आधार पर जानकारी मिल रही है कि यांगसी नदी पर चीन तीन बड़े बांध बना रहा है, जिससे तीन गुना से भी अधिक बिजली पैदा होगी. इसके बाद भी भारत और बांग्लादेश के साथ ब्रहमपुत्र के पानी के बंटवारे के लिये कोई समझौता और वार्ता किये बिना ही यारलुंग जांगबाओं बांध की योजना पर काम हो रहा है. यदि ऐसा होता है तो चीन के साथ पानी के बंटवारे के मुददे पर जंग छिडने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता. 
बांधों का निर्माण सिंचाई, बिजली और पेयजल के नाम पर किया जाता है. इसके चलते कई नदियों का पर्यावरण बिगड़ चुका है. दुनिया के कई देशों, जिनमें प्रमुख रूप से चीन, भारत, पाकिस्तान आदि शामिल हैं, में बड़े बांधों के निर्माण की होड़ लगी हुई है. विश्वबैंक के दस्तावेज बताते हैं कि दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा यानि एक अरब से अधिक लोग निर्जल इलाके में रहते हैं. अगर आने वाले वर्षों में उन्हें पानी के विकट संकट से छुटकारा दिलाने के लिये उचित जल-प्रबंध नहीं हुआ तो पानी छीनने के लिये वे एक-दूसरे से मारकाट कर सकते हैं. दुर्भाग्य से ऐसे निर्जल इलाके भारत, पाकिस्तान, चीन आदि देशों में ही सबसे अधिक हैं. वैसे दुनिया में पानी की मांग हर बीस वर्ष में दुगुनी हो जाती है और पानी की मात्रा भी उतनी ही कम हो जाती है. इसलिये चिंता है कि सिंचाई, पेयजल और बिजली के लिये पानी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से बड़े बांधों के निर्माण के अलावा दूसरा रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है. 
नर्मदा और भागीरथी पर बड़े बांध विरोधी आन्दोलनों के कारण दुनियाभर में इस विषय पर तीन-चार दशकों से बहसें हो रही हैं. इसके परिणाम-स्वरूप 1994 में बड़े बांधों पर अमेरिका जैसे देश ने स्थगन प्रस्ताव लाया है. इसके पीछे यह भी कारण बताया गया था कि इसमें आर्थिक हानि, लाभ से कई गुना अधिक है. यूरोप में भी कहा गया है कि बांधों के कारण पानी का सही इस्तेमाल नहीं हो पाता है. इसके लिये उन्‍होंने वैकल्पिक तकनीक और जल-नियोजन का सही रास्ता चुनने की दिशा में काम किया है. 
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटकर कहती हैं कि चीन और भारत के दिल और दिमाग में ये विचार अभी नहीं आये हैं और वे अपने देश में बड़े-बड़े बांधों की फाइलें खोलते जा रहे हैं. दुनिया में करीब 45 हजार बड़े बांध हैं. इसमें ज्यादातर बांध भी इन्‍हीं दोनों देश में हैं. अकेले भारत में 5000 से अधिक बांध हैं. चिन्ता इस बात की है कि इन बांधों से अनाज उत्पादन में केवल 10 प्रतिशत बढोतरी हुई है, जबकि देश में चूहे भी 10 प्रतिशत अनाज खा लेते हैं. यही आंकडा चीन में भी है, जहां भारत से भी अधिक संख्या में बड़े बांध हैं. 
ब्रहमपुत्र नदी 2,56,928 वर्ग किमी पर्वतीय क्षेत्र और 108 वर्ग किमी ग्लेशियर के क्षेत्र में बहती है. इसका ऊपरी हिस्सा चीन के पास है, जिसके चलते वह पानी की बड़ी मात्रा बांध में रोक सकता है और वर्षांत के समय बांध का गेट खोलकर भारत और बांग्लादेश में बड़ी तबाही ला सकता है. ऐसी स्थिति में अपार जन-धन की हानि हर वर्ष उठानी पड़ेगी. 
बांध बनाने के पीछे चीन की निर्माण कम्पनियों का लालच मुनाफा कमाने का भी होगा, लेकिन जिस तरह से भारत, चीन के बीच लगातार तनातनी बनी रहती है उस पर वह पानी के कारोबार के नाम पर भारत के उत्तर-पूर्व हिस्सों में बाढ़ से तबाह करने की अनोखी जंग का सहारा ले सकता है. वैसे प्रत्येक देश को सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी सुरक्षा को चाक-चौबंद रखने के लिये नदियों के उदगम पर बड़े बांधों के निर्माण का फैसला त्यागना चाहिये, क्योंकि यह एक तरह से जल बम जैसा हथियार है जिस पर कई देशों के पर्यावरणविद सरकारों का ध्यान आकर्षित करते रहते हैं. 
इस विषय पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाने की आवश्यकता है. भारत के पास इस समय अच्छा मौका है कि उसे स्वयं बड़े बांध विरोधी के रूप में आगे आकर अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से बहने वाली नदियों पर समाज और पर्यावरण संरक्षण की लडाई के रूप में कार्यवाही करनी चाहिये. सन 1998 में दक्षिण-अफ्रीका के जल-संसाधन मन्त्री कादिर अस्माल की अध्यक्षता में बने ‘विश्व बांध आयोग’ का गठन हुआ था और इसमें दुनिया के विभिन्न पक्षों के लोग (जिनमें बांध विरोधी व समर्थक) शामिल थे. भारत से योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष लक्ष्मी चंद जैन भी इस आयोग में थे. ‘विश्‍व बांध आयोग’ की सिफारिशों को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर बांग्लादेश के सहयोग से अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार बहने वाली नदियों का मुददा पर्यावरण संरक्षण से जोडकर विश्व के लोगों का ध्यान आकर्षित कर सकता है. इस तरह का प्रयास जलवायु नियंत्रण का बड़ा संदेश दुनिया में पहुंचाएगा. (सप्रेस) 
❖  श्री सुरेश भाई लेखक, एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं एवं उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं. वर्तमान में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं.

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