कुकुरमुत्ता जिसे मेरे गांव में च्यूं कहते थे

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कुकुरमुत्ता जिसे मेरे गांव में च्यूं कहते थे

देवेन मेवाड़ी 

पहले तक मशरूम मेरे लिए केवल कुकुरमुत्ता था जिसे पहाड़ के मेरे गांव में च्यूं कहते थे। वहां जंगलों में बरसात के मौसम में उगे कुकुरमुत्तों की सुंदर छतरियां दिखाई देती थीं। ऐसी सबसे बड़ी सफेद छतरी मैंने तब बनौलिया के जंगल में चीड़ के पेड़ों के बीच देखी थी। घर के बड़े-बुजुर्ग च्यूं खाने से मना करते थे। हालांकि, यह भी कहते थे कि इसकी सब्जी बनती है और जो लोग इसे खाते हैं, वे कहते हैं कि इसकी सब्जी बड़ी स्वादिष्ट होती है। इसलिए मन च्यूं की सब्जी खाने के लिए तरसता रहता था।


सन् 1960-62 में पहली बार चुपचाप अपने सहपाठी पनीराम की बनाई च्यूं की सब्जी खाई तो इसके स्वाद का पता लगा। सन् 1970 की गर्मियों में पद्मश्री शुकदेव पांडे जी की संस्था ‘उत्तराखंड सेवा निधि, नैनीताल में दो जापानी विशेषज्ञों को मशरूम की खेती करते, सिखाते देखा। उनकी बैठक में भी लकड़ी के एक सुंदर सजावटी बक्से में श्वेत बटन मशरूम उग रहे थे। 

विशेषज्ञ हिगाशियामा और यामासिता ने मुझे बताया था कि जापान में मशरूम लोकप्रिय भोजन है। वे शीताके, हिराताके, इनोकी और सिमेजी प्रजातियों के मशरूम की खेती के तरीके सिखा रहे थे ताकि पहाड़ के लोग मशरूम उगा कर अच्छी आमदनी कमा सकें। उन्होंने मुझे बांज के पेड़ों के टुकड़ों में सुराख करके उगाए गए शीताके मशरूम दिखाए और बताया कि बांज के अलावा भेकुल, खड़क, बैंस, पय्यां, पांगर और अखरोट के तने के टुकड़ों में भी यह मशरूम उगाया जा सकता है। वहां बांज के एक टुकड़े में कुछ दिन पहले उन्हें एक साथ एक किलोग्राम शीताके मशरूम की उपज मिली थी। यह सब देख-सुन कर मन मशरूम खाने को ललचाता रहा। 

तभी, पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में मेरे युवा मित्र अरविंद सक्सेना ने पादप रोग विज्ञान की ओर से बड़े उत्साह के साथ मशरूम की खेती शुरू की। खेती ही शुरू नहीं की बल्कि जोर-शोर से उसका प्रचार भी शुरू किया। बच्चे अरविंद को मशरूम अंकल कहने लगे। बड़ी-बड़ी मूंछों वाला एक व्यक्ति ‘मशरूम! मशरूम ले लो!’ कहता मौसम की कालोनियों में घूमता और मशरूम के पैकेट बेचता। 

अरविंद मित्रों के घर जाकर मशरूम की सब्जी और मशरूम पुलाव बनाने के लिए उत्साहित करने लगा। हमने भी तब खिचड़ी के अलावा स्वादिष्ट मशरूम पुलाव बनाना शुरू किया। उधर, उद्यान विभाग के मित्र पनराम आर्य ने ‘किसान भारती’ के ‘ज्योनार स्तंभ’ में मशरूम के व्यंजनों की जानकारी दी। इस तरह पंतनगर में मशरूम के दिन आ गए। 

मशरूम के बारे में पढ़ते-सुनते इतना कुछ जान गया था कि एक लंबा लेख लिखा, ‘कित्ते-कित्ते कुकुरमुत्ते’जो मनीषी संपादक नारायणदत्त जी ने ‘नवनीत’ के फरवरी 1979 अंक में प्रकाशित किया। दो साल बाद ‘किसान भारती’ में मैंने किसानों की जानकारी के लिए मशरूम पर विशेष सामग्री प्रकाशित की।


एक दिन प्रसिद्ध व्यंग्यकार और ‘हिंदी एक्सप्रेस’ के संपादक शरद जोशी जी का पत्र मिला कि तुरंत कोई लेख भेजो। ‘हिंदी एक्सप्रेस’ की तबियत का विषय मान कर महाप्राण निराला की सर्वहारा के प्रतीक ‘कुकरमुत्ता’ पर लिखी कविता को याद कर लेख भेजा ‘कुकुरमुत्ता बोला, जो मई 1981 में ‘हिंदी एक्सप्रेस’ में छपा। निराला की कविता के अंश आज भी कानों में गूंजते हैं: 

वहीं गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता 

पहाड़ी से उठे सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता- 

“अबे, सुन बे, गुलाब, 

भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब 

खून चूसा तूने स्वाद का अशिष्ट,

डाल पर इतराता है कैपीटलिस्ट! ”


फिर शहर दिल्ली, लखनऊ में यदा-कदा मटर-मशरूम का स्वाद चखने का मौका मिला। लेकिन, मशरूम का असली मुरीद बना मैं पंचकूला, चंडीगढ़ जाकर। वहां लगभग साल भर मशरूम मिलता था और मैं भी लगभग साल भर मशरूम खाने लगा। गज़ल रेस्त्रां का चिली-मशरूम कुछ इतना जुबान चढ़ा कि घर पर भी न्यूट्रिनगेट और शिमला मिर्च के साथ मशरूम बनने लगा। साढ़े तीन साल बाद वहां से दिल्ली लौटा तो जुबान में मशरूम का स्थायी स्वाद लेकर लौटा और घर में बिला नागा हर दिन मशरूम बनने लगा। घर वाले हैरान कि आखिर ये इससे ऊबते क्यों नहीं? लेकिन, ऊबे तो वह जिसका मन मशरूम से भर गया हो। मैंने नहीं ऊबना था, नहीं ऊबा। गर्ज़ यह कि पिछले लगभग 16 वर्षों से मशरूम खा रहा हूं और कहता रहता हूं, ‘अगर मशरूम खाने के लिए कोई पुरस्कार दिया जाता तो पहला पुरस्कार में ही जीतता!’

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