हिसाम सिद्दीक़ी
हम बचपन से सुनते आए हैं कि हिन्दुओं के परिवार के बड़े बेटों को सिख बनाया जाता था जो बड़ा होकर परिवार, समाज और देश की हिफाजत करने का काम करता था। अब अचानक वही सिख गद्दार हो गए, वह पाकिस्तानी एजेण्ट और खालिस्तानी हो गए क्योकि उन्होंने पीएम नरेन्द्र मोदी के लाए हुए किसानी कानूनों के खिलाफ आवाज उठाने की गलती की है। लोनी गाजियाबाद के बीजेपी के मेम्बर असम्बली नंदकिशोर गूजर जब अपने सौ-डेढ सौ साथियों के साथ गाजीपुर बार्डर पर राकेश टिकैत का धरना जबरदस्ती हटवाने पहुचें थे उनके कई साथी सिखों को न सिर्फ देश का गद्दार कह रहे थे बल्कि उन्हें गंदी गालियां देते हुए बाकायादा सिखों का नाम लेकर उनके लिए इंतेहाई काबिले एतराज बातें कह रहे थे। इसपर वहां मौजूद कुछ लोगों के साथ गूजर के साथियों की झड़प और हाथापाई भी हुई। इसी तरह 29 जनवरी को खुद को मकामी बताकर कोई सौ-डेढ सौ लोग बाकायदा पुलिस प्रोटेक्शन में सिंघुबार्डर पर पहुंच गए थे, उन्होने भी सिखों को ही अपना निशाना बनाया तो दोनों तरफ से पथराव और हिंसा हो गई वह गुण्डे भी सरकारी बताए गए थे, उनकी हरकतों से लगता भी था कि सरकारी हैं। क्योकि दिल्ली पुलिस और मोदी सरकार ने उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। धरना मुजाहिरा करने वालों को सड़क से हटाने का काम पुलिस और एडमिनिस्ट्रेशन का है। सौ-डेढ सौ गुण्डों को यह अख्तियार किसने दे दिया कि वह आएं और धरने पर बैठे लोगों के साथ मार-पीट करके उन्हें हटाने का काम करें। यही काम तो दिल्ली के जाफराबाद में कपिल मिश्रा और रागनी तिवारी ने किया था और भयानक दंगा हो गया था।
वजीर-ए-आजम नरेन्द्र मोदी ने तीस जनवरी को अपोजीशन पार्टियों के लीडरान के साथ बातचीत के दौरान कहा था कि किसानों के साथ बातचीत के दरवाजे हमेशा खुले हैं और वजीर जराअत (कृषि मंत्री) किसानों से बस एक फोन काल के फासले पर हैं, क्या मिस्टर मोदी पूरी ईमानदारी और इखलास के साथ यह बात कह रहे थे अगर ईमानदारी से बातचीत की पेशकश कर रहे थे तो किसानों के धरने के हर मोर्चे पर इण्टरनेट क्यों कटवा दिया, बिजली पानी क्यों कटवा दिया। बार-बार यह कहकर सिखों के खिलाफ राष्ट्रवाद को फैलाने का काम क्यों किया गया कि कौमी परचम (तिरंगे) की तौहीन की गई है।
अस्ल सवाल यह है कि तिरंगे की तौहीन अगर हुई तो वह तौहीन किसने की अब तो हर तरफ से साबित हो चुका है कि लाल किले तक सिखों को ले जाने का काम जिस पंजाबी अदाकार दीप सिद्धू ने किया और अपने साथी को पोल पर चढा कर सिखों का मजहबी झण्डा लगवा दिया, वह दीप सिद्धू कौन है? पीएम मोदी और होम मिनिस्टर अमित शाह के साथ उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। इससे तो यही जाहिर होता है कि लाल किले में किसानों के खिलाफ साजिश की गई। दिल्ली पुलिस ने तकरीबन सवा सौ किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करके उन्हें तिहाड़ जेल भी पहुंचा दिया, लेकिन दीप सिद्धू के खिलाफ तीन फरवरी तक कोई कार्रवाई नहीं की इस दरम्यान वह अपने वीडियो बनाकर वायरल करता रहा। आठ दिन बाद दिल्ली पुलिस ने दीप सिद्धू और उसके साथियों पर इनाम का एलान किया।
अगर पीएम मोदी पूरी ईमानदारी के साथ किसानों से बातचीत ही करना चाहते हैं तो फिर 26 जनवरी की टै्रक्टर रैली के लिए तकरीबन सैंतीस किसान लीडरान के खिलाफ डकैती, एकदामे कत्ल और मोहलिक (घातक) हथियारों के इस्तेमाल जैसी संगीन दफाएं लगाने का क्या जवाज है। इस तरह तो बातचीत नहीं हो सकती इसका तो साफ मतलब है कि सरकार किसानों पर कानूनी आतंक नाफिज करके उन्हें दबाव में लेना चाहती है ताकि ग्यारह नाकाम मीटिंगों के बाद होने वाली अगली किसी मीटिंग में उनसे जबरदस्ती सरकार की बात तस्लीम कराई जाए। हालांकि यह सरकार की खाम ख्याली ही है। हमने पहले भी लिखा है कि सरकार किसानों के साथ वही हरबा अख्तियार कर रही जो सीएए और एनआरसी को खत्म करने के सवाल पर मुजाहिरा करने वाले मुसलमानों के खिलाफ अख्तियार कराया था। जाफराबाद में धरने पर बैठे लोगों को जबरदस्ती हटवाने के बहाने कपिल मिश्रा और रागिनी तिवारी ने दंगा कराकर बयालीस से ज्यादा मुसलमानों को कत्ल करा दिया था उन्हीं के कारोबार, मस्जिदों, घरों और इमलाक को आग लगवा दी थी फिर पुलिस ने यकतरफा तौर पर मुसलमानों के खिलाफ ही कार्रवाई की। मोदी और सरकार दोनों को यह याद रखना चाहिए कि किसान बीस फीसद मुसलमान नहीं हैं देश में किसानों की आबादी साठ से अस्सी फीसद तक है, वह किसी भी सरकार को उखाड़ फेंकने की ताकत रखते हैं। इसकी नुमाइश देशभर के किसान छः फरवरी को पूरे देश में चार घंटे का चक्का जाम करके कर देंगे। यह मजमून लिखे जाने तक पच्छिमी उत्तरप्रदेश में चार किसान पंचायतें करके अपनी ताकत का मुजाहिरा कर चुके थे। पीएम मोदी किसानों के साथ अब किस बातचीत की पेशकश कर रहे है। ग्यारह दौर की बातचीत सरकार और किसानों के साथ हो चुकी किसानों ने बार-बार कहा है कि उन्हें तीनों किसान कानून वापस लेने और एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से कम पर कुछ और मंजूर नहीं है। सरकार का बार-बार जवाब रहा है कि कानून वापस लेने का सवाल ही नहीं है। एमएसपी की गारण्टी तो ली जा सकती है लेकिन कानूनी दर्जा नहीं दिया जा सकता। इसके बाद बातचीत करने के लिए बचा क्या? अगर दोनों फरीक अपने-अपने मौकुफ (स्टैण्ड) पर इतनी सख्ती से डटें हैं तो बात क्या होगी? अगर पूरे हालात का बारीकी के साथ जायजा लिया जाए तो किसानों के मामले में हर सरकारी सतह से या तो झूट बोला जा रहा है या उनके साथ फरेब किया जा रहा है जो किसी भी सरकार के लिए अच्छी बात नहीं है.
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