ये शहीदों के बीच कौन आ गया ?

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ये शहीदों के बीच कौन आ गया ?

सुभाष चंद्र कुशवाहा 

हजूर, यह पोस्ट देशहित और देशभक्ति के प्रति सभी जिम्मेदार लोगों के कर्तव्य को याद दिलाते  लिख रहा हूँ. कल चौरी चौरा शताब्दी वर्ष की शुरुआत हुई और शहीद स्मारक संग्रहालय, चौरी चौरा  पर आज जाने का मौका मिला. सोचा शहीदों को नमन कर लूं. जहां यह जानकर थोड़ी तसल्ली हुई कि टूटी मूर्तियां आबाद हो चुकी हैं वहीं एकाएक दिमाग झन्ना गया. 19 शहीदों की जगह 50 के लगभग मूर्तियां स्थापित हो चुकी हैं. 1857 के बन्धु सिंह से लेकर अन्य शहीदों की मूर्तियां भी बीच-बीच में स्थापित कर दी गयी हैं. क्या यह बेहतर न होता कि चौरी चौरा के शहीदों की मूर्तियों को एक ओर और बाकी शहीदों को दूसरी ओर स्थापित कर स्थिति स्पष्ट कर दी जाती. मगर कुछ और भी गम्भीर बातें हैं, इसलिए फिलहाल इसे छोड़ते हैं और निम्नलिखित पर विचार करते हैं -

 1-शहीद रामपति पुत्र मोहर, नामक मूर्ति देखकर, माथा ठनका. इस नाम का कोई भी व्यक्ति शहीद नहीं हुआ था. ऐसा कोई भी व्यक्ति इस विद्रोह में शामिल न था, क्योंकि 225 लोगों की पूर्ण सूची सेशन कोर्ट के फैसले में दी हुई है.

2-एक मूर्ति, शहीद लाल अहमद पुत्र हाकिम -कोता की लगी है. इस नाम का भी कोई व्यक्ति शहीद न हुआ था. सही नाम था, लाल मुहम्मद पुत्र श्री हाकिम शाह.

3-द्वारिका प्रसाद पांडेय पुत्र श्री  नेपाल पांडेय, न तो स्वतंत्रता सेनानी थे, न चौरी चौरा विद्रोह से उनका कोई सम्बन्ध था, फिर भी उनकी मूर्ति लगी हुई  है. 27-2 1981 मृत्यु तिथि लिखी है. यह तो गजब है. 

4-शहीद बालदेव प्रसाद दुबे की मूर्ति लगी है. शहीद तिथि 2 जुलाई 1923 लिखी है जो चौरी चौरा विद्रोह के कुछ शहीदों की तिथि है. लेकिन उनके पिता का नाम नहीं लिखा है. इस नाम का कोई व्यक्ति चौरी चौरा विद्रोह में शामिल नहीं था. 

5-चौरी चौरा के वास्तविक शहीदों के पूरे नाम नहीं दिए हैं. जैसा कि अभिलेख में भगवान अहीर लिखा है जबकि स्थापित मूर्ति के नीचे सिर्फ -भगवान लिखा है. यही हाल बाकी शहीदों के साथ है मगर, सिंह, पांडेय, दुबे वाली उपाधियां विराजमान हैं.

6-ग्रेनाइट पत्थर पर लिखे इतिहास में गांधी जी का गोरखपुर आगमन 1920 लिखा है जब कि ऊप्र राजकीय अभिलेखागार, सांस्कृतिक विभाग के बोर्ड पर 8 फरवरी 1921. इसी बोर्ड पर 4 फरवरी को जलूस का प्रस्थान डुमरी गांव से दिखाया गया है और महज डेढ़ किलोमीटर दूर थाने पर पहुंचने में एक दिन लग गया है यानी 5 फरवरी को थाने गेट पर जलूस पहुंचाया गया है. है न कमाल? यह विद्रोह 4 फरवरी को हुआ. आप शताब्दी समारोह भी 4 को ही शुरू करते हैं मगर 5 फरवरी को जलूस को थाने पर पहुंचाते हैं.

दूसरी ओर ग्रेनाइट के इतिहास पर डुमरीखुर्द गांव दर्ज नहीं है. दर्ज है, ब्रह्मपुर दुबे का गांव.

7-हर कहीं डुमरीखुर्द गांव का नाम डुमरी लिखा हुआ है. जबकि डुमरी गांव से मतलब, डुमरी खास या डुमरी कला से होता है, जो सरदार जागीरदार का गांव था. जब डुमरी खास और डुमरी कला, दो गांव 7 किलोमीटर के फासले पर हैं तो यह कन्फ्यूजन क्यों पैदा किया गया?

8-अभी भी सभी शहीदों की फांसी तिथि   2 जुलाई 1923 लिखी है, जो गलत है. यह तिथि अलग-अलग, 2 से 11 जुलाई है.

मुझे लगता है की गम्भीर मसला है और उच्च अधिकारी इस पर जरूर विचार करेंगे. ऐसी त्रुटि अकारण नहीं हो सकती. त्रुटि करने वाले को दंडित करेंगे. आखिर शताब्दी वर्ष का मान, सम्मान और शहीदों के बलिदान का मामला है.

(लेखक ने चौरी चौरा आंदोलन पर शोध किया और पुस्तक लिखी है )



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