हां, मैंने काजीरंगा देख लिया

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हां, मैंने काजीरंगा देख लिया

सतीश जायसवाल 

दुनिया भर के वन्यप्राणी प्रेमियों को अपने एक सींग वाले राइनो के लिए असम का "काजीरंगा" अपनी तरफ बुलाता है -- यहां नहीं पहुंचे तो क्या देखा ?यह तो बिल्कुल असगर वज़ाहत वाली बात हुयी , जिन लाहौर नईं देखा वो जन्मेया नईं..तो, अब मैं कह सकता हूँ, हाँ मैंने काजीरंगा देख लिया.दोस्तों को बताने के लिए उस राइनो की फोटो भी दिखा सकता हूँ. बहुत दूर से दिखा.जितना मेरे बेचारे मोबाइल कैमरे की ताकत थी, उतना खींच लिया.और अब एक बात कान में कह सकता हूँ कि यारों--यह देखना भी क्या देखना  हुआ ?

फिर भी, देख लिया.

बाहर से आने वालों के मन से कोविड का डर अभी तक गया नहीं है.यहाँ टूरिस्ट्स का आना अभी तक शुरू नहीं हुआ है.देसी, परदेसी दोनों तरह के. बस, थोड़े बहुत आ रहे हैं तो अभी भीड़ नहीं है.शायद वन्य प्राणियों को भी मजा नहीं आ रहा है.खाली खाली जंगल कुछ सूना-सूना सा फैला हुआ है.और यह सूना  फैलाव कोई 450 वर्ग किलोमीटर को घेर रहा है.

पिछली रात बारिश हुई थी.अभी सब भीगा भीगा है और जमीन भी गीली है.वन्य प्राणी भीतर की तरफ कहीं दुबके हुए होंगे.हाँ, हाथियों के झुण्ड के झुण्ड जरूर नजर आए.मैदानों  में चरते हुए. घरेलू भी और जंगली भी. जंगली हाथियों के बड़े बड़े दांत दूर से भी चमकते हुए दिखे. मेरे मोबाइल कैमरे से बाहर.लेकिन तनवीर के डी0 एस0 एल 0 आर0 की पकड़ के भीतर. 

राइनो भी दिखे. पहले इक्का दुक्का.फिर परिवार के साथ.और फिर समूह में भी.

इतने बड़े प्राणियों को घास-फूस, पेड़-पत्ती चरते चबाते देखना एक और किस्म का अनुभव होता है.ताज्जुब होता है कि इतने विशालकाय प्राणियों का काम इस शाकाहार से कैसे चल जता होगा ?

यहां चिड़ियां भी हैं.इनको प्रवासी बताया जाता है.मुझे तो चिड़ियों की पहिचान उनके नाम-धाम और पता-ठिकाना से नहीं.यह काम विशेषज्ञों के है.मेरी पहिचान चिड़ियों को देखने के आनंद के साथ है.उनके साथ मेरा मन अभी किसी जल सतह पर तैर रहा था, अभी किसी पेड़ की ऊंची वाली फुनगी पर जा बैठा.और अब, सीधे आसमान पर ! एक चिड़िया ऐसी नजर आयी जिसका बदन एकदम सोन सुनहरा.सोने के पंख.और मैँने ढूंढा, कोई सोन मछरिया.लेकिन वह तो हरिवंश राय बच्चन की उस कविता में है जो उन्होंने हमें गाकर सुनाई थी.यह हमारे कॉलेज के दिनों की बात हुई.

मैंने तो अपना काजीरंगा ढूँढ़ लिया.बेमौसम की बारिश के बाद भी वह मेरे मन में मिल गया.लेकिन जो कुछ टूरिस्ट्स वहां पहुंचे हुये थे, टूरिज़्म विभाग का बताया हुआ काजीरंगा ढूँढ़ रहे थे.उनकी उत्सुकताएं और उनकी निराशाएं उन पर हावी थीं, दिख रही थीं.उन्हें देखना भी एक दृश्य था.फिर भी वो लोग यहां से अपने साथ कुछ लेकर जाने के उपाय कर रहे थे.काजीरंगा की कोई निशानी, कोई यादगार.

हमको हाथी की सवारी तो नहीं मिली.जीप सफारी जरूर मिल गयी.वापसी के रास्ते में एक वाच टावर के पास थोड़ी देर के लिए गाड़ियों को रोककर टूरिस्ट पार्टियों को राहत दी जाती है.बीच जंगल में थोड़ी सी चहलकदमी की मोहलत.वरना यहां जमीन पर उतरना मना है.बस, इसी मोहलत में उन लोगों ने काजीरंगा की यादगार निशानी अपने साथ ले जाने का उपाय कर लिया.वो शायद अभी  नए जोड़े बने थे या अभी पुराने नहीं हुए थे. उन लोगों ने वहां बीच जंगल में अपनी फोटुएं खींचीं-खिंचवाइं.कभी गलबहियां डालकर, कभी अंगड़ाइयां दिखाते हुए.

काजीरंगा के वन्य प्राणी काजीरंगा में दूरियों में दिखे. लेकिन काजीरंगा से बाहर एकदम करीब से देखने मिल गए.अपने पूरे आकार में.एक-एक रग-पट्ठे तक साफ, उभरे हुए.हमने काजीरंगा पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन ढूंढा था.दो स्टेशन दिखे.मारियानी और दूसरा फ़र्कटिंग.जाते समय हम मारियानी पर उतरे.लेकिन यहां से काजीरंगा दूर पड़ा.कोई 100 किलोमीटर के आसपास.इस रेलवे स्टेशन पर ऐसा कुछ नहीँ है जिससे काजीरंगा के नज़दीक पहुंचने का कोई निशान मिले.

वापसी में हमने फ़र्कटिंग वाला रास्ता लिया.यह नज़दीक भी है. यह ठीक रहा.यहां,स्टेशन में घुसते ही एक विशाल राइनो दिखा.बिल्कुल असली जैसा. पत्थर का राइनो.एक बड़ी सी दीवाल पर दीवार भर चरते हुए हाथियों के  झुंड भी मिल गए.बस, हो गया.वहां, काजीरंगा में दिखे असली राइनो और यहां, फ़र्कटिंग में पत्थर का राइनो, दीवार भर चरते हाथियों का झुन्ड एक साथ मिलाया तो काजीरंगा पूरा हो गया.अब मैं कह सकता हूँ हां, मैंने काजीरंगा देख लिया.

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