क्या ये होना ही था ?

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क्या ये होना ही था ?

संजय कुमार सिंह 

आज दिल्ली में ट्रैक्टर रैली का जो रूप दिखा वह किसी के लिए अनजाना हो तो हो, मेरे लिए बिल्कुल नहीं था. कल रात मैं साथी अजीत अंजुम का वीडियो देख रहा था और वो बता रहा था कि ट्रैक्टर रैली की अनुमति 37 शर्तों के साथ मिली थी. 5000 ट्रैक्टर ही दिल्ली में जाने थे और 5000 लोगों को ही रैली में शामिल होने की अनुमति थी. यही नहीं, सबको कोविड प्रोटोकोल का भी पालन करना था. कहने की जरूरत नहीं है कि ये जबरदस्ती की शर्तें थीं और इन्हें मान लेने का मतलब नहीं था कि यह संभव है. अगर किसी को गलतफहमी रही हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता. दिल्ली पुलिस ने किसानों से भीड़ संभालने के लिए कार्यकर्ता भी मांगे थे. नेताओं को उपलब्ध रहने के लिए भी कहा था आदि आदि.

कुल मिलाकर स्थिति यह थी कि जबरन किसान विरोधी कानून बनाया गया, भारी दबाव के बावजूद बातचीत के नाटक के साथ (और नाटक दोनों तरफ से था किसान नेता कम दोषी नहीं हैं) आंदोलन को तोड़ने कमजोर करने की कोशिशें चलती रहीं. किसानों ने रैली निकालनी चाही तो मजबूरी में अनुमति दी गई और रोकने की तैयारियां कम नहीं थीं. ऐसे में आज सुबह सिर्फ आईटीओ पर पुलिस कमजोर पड़ी. आईटीओ पर किसानों को जाना नहीं थी इसलिए वहां पुलिस कम होना कोई बात नहीं है पर बाकी जगह रोकने के उपाय क्यों थे? और ये उम्मीद क्यों की गई कि बाकी किसान रैली में दिल्ली नहीं जाएंगे. आखिर ये हालात बनाए किसने थे. किसान अगर तय रूट से अलग गए तो उन्हें तय रूट पर रोका भी गया.

मेरे ख्याल से आईटीओ पहुंचने वाले ज्यादातर किसान (या आंदोलनकारी) लाल किला पहुंचना चाहते थे और सरकार या पुलिस को इसका अनुमान नहीं था. अगर खुफिया सूचना नहीं थी तो यह पुलिस की भारी चूक है. किसानों ने लाल किले पर बाकायदा सफलता पूर्वक समानांतर समारोह कर दिया और झंडा फहरा दिया. इसे प्रतीकात्मक ही माना जाना चाहिए और यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे जीत गए, जो चाहते थे वह कर लिया. लेकिन इसकी छीछालेदर की जा रही है. कौन झंडा था, किसका था, किसका प्रतीक है आदि. मेरे ख्याल से ये सवाल बेमतलब हैं. मैंने टेलीविजन पर देखा कई बार झंडा फहराने की कोशिश हुई. कई युवक चढ़े और उतरे. एक सिख युवक ने सिखों का निशान साहिब लहरा दिया और राज करेगा खालसा के नारे भी लगाए पर यह ज्यादा नहीं चला और यह झंडा लेकर युवक खंभे पर बना रहा. बाद में कोई दूसरा झंडा फहराया जा सका.


किसानों का कोई एक सर्वसम्मत झंडा नहीं है इसलिए जो झंडा फहरा वह क्या था, महत्वपूर्ण नहीं है. तिरंगा अपनी जगह पर लहरा रहा था. इसलिए इसे प्रतीकात्मक ही माना जाना चाहिए इसमें ज्यादा अर्थ निकालने की जरूरत नहीं है. जहां तक भीड़ के बेकाबू हो जाने का मामला है वह किसी से नियंत्रित नहीं होती. अयोध्या में भी नहीं हुई थी. यह अलग बात है कि तब पत्रकारों की प्रतिक्रिया अलग थी. तब कोई मंदिर आंदोलन के नेताओं के खिलाफ नहीं था. आज लोगों को सारी उम्मीद किसान नेताओं से थी. और किसान नेताओं को ही भला बुरा कहा जा रहा था. अगर बाबरी मस्जिद गिरने से भाजपा मजबूत हुई थी तो आज लाल किले पर किसानों के झंडा फहराने से भाजपा कमजोर हुई है. और किसान आंदोलन विपक्ष के लिए माहौल बनाने का काम वैसे ही करेगा जैसे बाबरी मस्जिद ने भाजपा के लिए किया था.


इसे देखने का आपका नजरिया अलग हो सकता है पर मैं साथी प्रदीप श्रीवास्तव से सहमत हूं कि किसान कानून के विरोधियों की संख्या के मामले में सरकार जी को चंपुओं और मीडिया ने गुमराह कर दिया. उन्हें अब उनकी संख्या का अहसास हुआ होगा. अगर उन्हें वाकई यकीन होगा कि मुट्ठी भर किसान विरोध कर रहे हैं तो अब पूछना चाहिए कि मुठ्ठी भर किसानों ने लाल किले पर कब्जा कर लिया तो वे कितने लोकप्रिय हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली में आज यह हाल तब हुआ जब डबल इंजन वाले हरियाणा और उत्तर प्रदेश में हजारों किसानों को रोक दिया गया. डीजल नहीं देना टूमच डेमोक्रेसी का असली रूप है. पर वह अलग मुद्दा है.



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