जहां हिल्सा के बिना कोई शुभ काम नहीं होता

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जहां हिल्सा के बिना कोई शुभ काम नहीं होता

कोलकाता . हिल्सा सिर्फ एक मछली नहीं है यह बंगाल की संस्कृति भी है .दो देशों के बीच एक पुल भी है .हिल्सा का सेवन ओडीशा, त्रिपुरा, असम, आंध्र प्रदेश और मिजोरम में भी होता है, लेकिन जो बात बंगाल में है वह कहीं और नहीं है. शंकर छद्मनाम से लिखने वाले बांग्ला उपन्यसाकार मणि शंकर मुखर्जी बताते हैं कि पहले आम बंगाली परिवार में हिल्सा खाना और घर आने वाले अतिथियों को खिलाना शान की बात समझी जाती थी. लेकिन अब दूसरों को खिलाना महंगा सौदा हो गया है. वे बताते हैं कि डेढ़ से दो किलो वजन वाली हिल्सा सबसे अच्छी होती है. लेकिन इनकी कीमत एक हजार रुपए किलो से भी ज्यादा होती है और आपको इसके लिए पहले से विक्रेताओं को आर्डर देना होता है.

बंगाली हिंदू परिवारों में हिल्सा के बिना कोई भी शुभ काम पूरा नहीं होता. वह चाहे शादी-विवाह का मौका हो या फिर किसी पूजा या त्योहार का. बंगाली परिवार तो अपने बांग्ला नववर्ष पोयला बैशाख की सुबह की शुरूआत ही हिल्सा और पांता भात यानी रात भर पानी में भिगो कर रखे गए भात के साथ शुरू करता है. शादी के मौके पर वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को इलिस का जोड़ा उपहार दिए बिना बात ही नहीं बनती. हालांकि महंगाई की मार से अब इसकी जगह रोहू मछली ले रही है. हिल्सा वैसे तो बंगाल की खाड़ी में भी पाई जाती है. लेकिन समुद्री हिल्सा उतनी स्वादिष्ट नहीं होती जितनी नदी वाली हिल्सा. यहां गंगा में भी हिल्सा मिलती है. लेकिन बांग्लादेश स्थित पद्मा नदी की हिल्सा का स्वाद सबसे बेजोड़ होता है. हिल्सा की एक खासियत यह भी है कि यह रहे भले समुद्र के खारे पानी में, लेकिन अंडे नदी के मीठे पानी में ही देती है. अंडे देने के बाद अपने बच्चों के साथ यह फिर समुद्र की गहराइयों में लौट जाती है. हिल्सा की कीमत उसके साइज से तय होती है. जितनी बड़ी मछली, उतनी ही ज्यादा कीमत.

बंगाली लोग इस मछली को पचास से भी ज्यादा तरीकों से पका सकते हैं और हर व्यंजन का स्वाद एक से बढ़ कर एक होता है. कोलकाता के विभिन्न होटलों और रेस्तरां में बांग्ला नववर्ष और दुर्गापूजा के मौके पर आयोजित हिल्सा महोत्सवों में उमड़ने वाली भीड़ से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा मिलता है. जनादेश में रीता तिवारी की रपट से फोटो साभार 

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