चंचल
दुनिया के इतिहास का एक बहुत बड़ा नाम जो आज के दिन अलविदा कह गया ( 20 जनवरी 1988 ). 6 फरवरी 1890 में एक बच्चे की शक्ल में पैदा हुआ , और पीढ़ी दर पीढ़ी लोग उसे , बाचा कहते और मानते जा रहे हैं , वह है 'बाचा खान' . बच्चा तो बादशाह होता है , उसे यह बादशाहत खुद कुदरत देती है , उसकी सिफत देखिये वह आज भी उसी बादशाहत में खड़ा है .उसका एक नाम यह भी है 'बादशाह खान' . रुकिए , यह तो जान लीजिए इस खान के बच्चे को, - बच्चा और उसकी बादशाहत महफूज रखने और उसे इंसानी सभ्यता की एक नजीर बनाने में जिस तपस्वी ने उसे भरपूर संवारा और अपने हाथ से गढ़ा वह खुद में एक एक इतिहास है उसका नाम है उसका नाम तो जान लीजिए . वह हैं गांधी . मोहनदास करमचंद गांधी . जमाने का रुख देखिये, उसने इस बाचा खान में उस मोहन गांधी का अक्स इसकदर समाहित पाया कि इसे गांधी का असल वारिस बना दिया और यह सरहदी गांधी बन गया . और यह सबसे बड़ा सच है गो कि सच केवल सच होता है , न रत्ती भर बड़ा , न मासा भर छोटा . पूरी उम्र यह बाचा खान गांधी को जीता रहा .
( इस पीढ़ी से - खोजिए और पढ़िए , इस बाचा खान पर. हम कितना लिखेंगे , बहुत कुछ लिखा जा चुका है , आपका फर्ज है आप अपने कुटम्ब रजिस्टर को तलाश कर रोशनी में खड़ा करें , दुनिया इन्ही के बहाने आपको मोकाम देगी . )
घटना , वाकयात , हादसा जो भी कहें इनकी तासीर है ,ये अपने पीछे बहुत कुछ और छोड़ जाते है , आनेवाली नस्लों का फर्ज बनता है कि वे उसे चुन चुन कर इकट्ठा करें और उसे तवारीख में सजाएं . एक वाक्या सुन लीजिए .
1930 भारतीय उपमहाद्वीप की बेचैनी का इजहार है और इस बेचैनी ने दुनिया को सोचने पर मजबूर कर दिया . सिविल नाफरमानी . अहिंसक प्रतिकार . गांधी ने एक नया हथियार अवाम को दे दिया . सविनय अवज्ञा . पेशावर में बाचा खान की खुदाई खिदमतगार ने इसे उठा.लिया . 23 मार्च 1930 को पेशावर के किस्सा खवानी बाजार के चौराहे पर हजारों हजार की तादात में खुदाई खिदमतगार जिन्हें लाल कुर्ती भी कहा जाता है ने न मारेंगे , न मानेंगे के साथ सड़क पर उतर आए . इसका नेतृत्व बाचा खान कर रहे थे . इन जंगे आजादी के निहत्थे सिपाहियों से लड़ने के लिए पहाड़ की गोरखा रेजिमेंट लगा दी गयी . इसके कमांडर थे चंद्र सिंह भंडारी . अंग्रेज कलेक्टर ने निहत्थे , सत्याग्रहियों पर गोली चलाने का आर्डर दिया -फायर . इतने में दूसरी आवाज कड़की-
सीज फायर . यह आवाज थी कमांडर चंद्र सिंह भंडारी की . सिपाहियों ने अपने कमांडर की बात मानी और बंदूक नीचे झुका दी . यह तवारीख का हिस्सा है . इस चंद्र सिंह भबदारी को समूचे गढ़वाल की बहादुरी का तमगा गांधी जी खुद दिया और चन्द्र सिंह चन्द्र सिंह गढ़वाली के रूप में आज भी चर्चा में आते हैं .
( आज 20 जनवरी है . यह पाठ समताघर के छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाया जाएगा क्यों कि अब ये वाक्यात सरकारी पाठ्य पुस्तकों से बाहर कर दिए गए हैं . )
नीचे एक चित्र है . खुद में एक इतिहास का पन्ना खुल जाता है . बाचा खान भारत सरकार के बुलावे पर भारत आये हैं , अगवानी में दो बड़ी शख्सियतें झुकी खड़ी हैं , जे पी और ' वह' श्रीमती इंदिरा गांधी जिसने सारी दुनिया की ताकत को चुनौती देने से बाज नही आती रहीं आज अपने पुरखे की स्वागत में हैं .
20 जनवरी .
विषयांतर - हम जेल में थे , अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे बाद में मुलायम सरकार के मंत्री बने मोहम्मद आजम हमारे साथ जेल काट रहे थे . हम में बेबाक दोस्ती रही . एक दिन आजम ने कहा अलीगढ़ विश्वविद्यालय का कोई मुकाबला नही . हमने मान लिया . आजम कुछ बोला नही . थोड़ी देर में हमारे पास आया और बोला - आज तुमने हमारी बात इतनी जल्दी और यूं ही मान ली ? हमने कहा दो वजह है . एक वहां नफीस अदब की दुनिया गढ़ी गयी , जिसमे एक अदीब ऐसा है जिसपर हम सब को नाज है और वह है बाचा खान का वहां तालिबे इल्म होना .
- और दूसरा ? - जब हम दोनों बात कर रहे थे , बगल में ही अलीगढ़ का एक संघी बैठा सुन रहा था . हम दोनों जोर से हंस पड़े .
Copyright @ 2019 All Right Reserved | Powred by eMag Technologies Pvt. Ltd.
Comments