रमा शंकर सिंह
मैंने अक्सर देखा है कि फलों की खेती करने वाले किसान अब अपनी बाग़वानी में फलों के पहले बौर या फूल आने पर सीढ़ी पर चढ़कर एक मुलायम झाड़ू से परागकणों को आपस में एक दूसरे पर मिलाते हैं . जो काम पहले तितलियॉं, मधुमक्खियॉं, कीट पतंगे मुफ़्त में नैसर्गिक ढंग से करते रहते थे वे कीटनाशकों ने मार डाले, बचे ही नहीं.
सेब को पेड़ों से तोड़ने के बाद भी पैकिंग के पहले तेज ज़हरीले कीटनाशकों की टंकी में डुबाया जाता है जिससे लंबी अवधि तक बचे रह जायें.मुझे याद है कि बचपन में यानी साठ साल पहले सेबों को धोकर छिलके समेत खाने की सलाह दी जाती थी अब तो सवाल ही नहीं उठता कि कीटनाशक के साथ साथ चमकता दिखाने के लिये वैक्स की पॉलिश की परत भी चढ़ाई जाती है. छीलना जरूरी है.
भारत में कुछ फल अब खाने लायक नहीं बचे जैसे तरबूज़ जिसे शहरी मूर्ख साहबों के लिये सुर्ख़ लाल और शक्कर समान मीठा करने के लिये रसायन की सुई अनिवार्यत: लगाई जा रही है वरना बिकेगा ही नहीं. यही प्रयोग अब ख़रबूज़ों, सारडा आदि पर होने लगा है. खाते ही महसूस होता है कि यह नैसर्गिक मिठास नहीं है.दिल्ली की ओखला फल मंडी के एक बडे मियॉं मुझे देखते ही अब इशारा कर देते हैं कि क्या नहीं ख़रीदना है.
दालों चावलों पर पॉलिश किसान नहीं चढ़ाता, जो पैकिंग कर बेचते हैं वे करते हैं. अरहर तुअर की दाल का कमाल का स्वाद और पोषण जो हमने गाँवों में चखा है उसका दशांश भी उस “ पीली” दाल में नहीं है जो ढाबों रेस्टोरेंट में अडाणी टाटा या व्यापारी बाबाओं से बाज़ार में आ रही है पर हॉं छिलका न उतरी हुई व बगैर पॉलिश की दाल का रंग जरूर कुछ हम हिंदुस्तानियों की तरह गहरा होता है. चमकती दिखती जरूर नहीं पर पहले ही कौर ( निवाले) में सुगंध स्वाद से दिव्य तृप्ति दे देती है. वास्तविक ऑर्गेनिक खेती की ओर लौटना जरूरी है उसके लिये कुछ ज्यादा पैसा देने के लिये तैयार होना चाहिये.
इस मामले के कुछ जमीनी जानकारों को विषद रूप से नई पीढी के लिये लगातार लिखना चाहिये. भोजन से ही तो जीवन है वरना आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से पूरी दुनिया को रोबोट बनाने का काम तो वे कर कर ही रहे हैं.लेखक आईटीएम विश्वविद्यालय के संस्थापक हैं .उनकी फेसबुक वाल से ,फोटो साभार
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