अशोक पांडे
नब्बे के दशक में देश के छोटे-मंझोले शहरों में सुबह के शो में इंग्लिश पिक्चरें दिखाए जाने का चलन चला. इन फिल्मों के पोस्टर भयानक फोश और घटिया हुआ करते. ‘गर्ल ऑन अ मोटर साइकिल’ जैसी इरोटिक क्लासिक जैसी फिल्मों को ‘जहरीली हसीना’ के नाम से प्रचारित किया जाता. सब जानते थे फिल्म के बीच में ब्लू फिल्मों के सीन जोड़कर दिखाए जाते हैं. बड़ा-बड़ा ‘ए’ लिखे पोस्टरों पर तिरछी निगाह फेरते हुए अनंत कामकुंठा का मारा बूढ़ा और युवा कस्बाई नागरवृन्द लार भी टपकाता और संस्कृति के भ्रष्ट हो जाने का रोना भी रोता. हल्द्वानी नामक एक ऐसे ही नगर में मेरे पिता ने घर बनाया.
मन बहुत होता लेकिन मैं संस्कारी युवक था. किसी परिचित द्वारा देख लिए जाने का खौफ उस जमाने में किसी हसीना द्वारा मीटू कर दिए जाने से कम नहीं था. इसके अलावा एक बात यह भी थी कि दसेक साल तक मेरी पढ़ाई-लिखाई नैनीताल में हुई थी जो उत्तर भारत के उन सबसे सभ्य नगरों में एक था जिनमें अंग्रेज ने अपनी छापें छोड़ गए थे.
तीस-चालीस साल पुराने उस जमाने के नैनीताल में रहने का एक मजा यह भी था कि कैपिटौल सिनेमा में तीन से छः का शो अंगरेजी फिल्मों का हुआ करता.
अभी-अभी बारहवीं पास किये तीन दोस्तों का हमारा समूह था जिसे फिल्मों के कीड़े ने बहुत बुरी तरह काट रखा था. उस समय तक हमारे लिए मोहब्बत की सबसे बड़ी नजीर या तो मीनाकुमारी की मौत रही या 'एक दूजे के लिए' के वासु-सपना. अमिताभ बच्चन सबसे बड़ा नायक था और जीतेन्दर सबसे बड़ा हॉकलेट. ज्यादातर नायिकाएं सुन्दर और घरेलू हुआ करतीं जिन्हें देख कर किसी भी तरह की फैंटेसी नहीं उपजती थी. फैंटेसी उपजाने का काम बिलकुल शुरुआती बचपन से जीनातमान ने सम्हाला हुआ था और वही हमारी आत्मा में वास करने वाली सबसे एडल्ट चीज थी.
ईवनिंग अंगरेजी शो की परम्परा नैनीताल में बहुत पुरानी थी जिसके चलते हमें सन तिरासी-चौरासी तक ‘बेन हर’, ‘बाइसिकल थीफ’, ‘गॉडफादर’ और ‘क्रेमर वर्सस क्रेमर’ जैसी दर्जनों बड़ी फ़िल्में देखने को मिल चुकी थीं. इस लिहाज से हम बहुत भाग्यशाली थे और हमारा अधिकतर समय इन फिल्मों की डीटेल्स पर बहस करते में बीतता. इससे दिमाग को खुराक मिला करती.
सच यह भी था कि हारमोनों की बाढ़ की सूरत धारे जवानी आ रही थी और हमने हजामत करना भी शुरू कर दिया था. जवानी जिस्म में आई थी और उसे जिस्मानी उतेजना मुहैया कराने का काम घटिया पोर्नोग्राफी और पैसे मिलाकर खरीदे गए, बिस्तर के नीचे छुपाये जाने वाले ‘डेबोनेयर’ के अंकों के हवाले था.
नैनीताल शरीफ लोगों का शहर था इसलिए वहां हर हफ्ते बदलने वाली इंग्लिश फ़िल्में भी शरीफ होती थीं. उनके पोस्टरों पर ‘ए’ नहीं लिखा होता था. इन फिल्मों में सेंसर किया हुआ एकाध ही सीन होता जिसे अपनी कल्पना में पूरा किया जाना होता. विदेशी फिल्मों के खुलेपन के बारे में हमने तमाम पत्रिकाओं और अन्य सूत्रों से देख-पढ़-सुन रखा था लेकिन उससे सीधा साक्षात्कार होना बाकी था. संक्षेप में कहा जाय तो बहुत भीषण चाहत के बावजूद हमें नंगी फ़िल्में तब तक देखने को नहीं मिली थीं.
ऐसे में सन चौरासी के साल तारीख लिखी गयी. एक रात मल्लीताल रिक्शा स्टैंड के पास ‘ए’ लिखा ‘ब्लू लैगून’ का विशाल पोस्टर लग गया. नगर की स्मृति में सार्वजनिक रूप से देखी गयी वह संभवतः सबसे बोल्ड छवि थी. समुद्र की विशाल और बेहद नीली पृष्ठभूमि में बदन पर तकरीबन कुछ नहीं पहने दिखाए गए किशोर प्रेमी-प्रेमिका ब्रूक शील्ड्स और क्रिस्टोफर एटकिन्स अश्लील न दिखने के बावजूद वर्जित और आकर्षक लगे.“इस फिल्म को हर हाल में देखा जाना है!” हमारी तिकड़ी ने तय तो किया लेकिन सवाल उठा – “कैसे?”
अफवाहों पर पलने वाले और माचिस की डिब्बी जितने छोटे नैनीताल नगर में जहाँ बगल के घर में पक रही सब्जी में डाला जा रहा पनीर का टुकड़ा तक सार्वजनिक डोमेन का हिस्सा था, हम तीन पढ़ाकू और संस्कारवान लड़कों का एडल्ट फिल्म देखते पाया जाना कितना बड़ा स्कैंडल बनता. हम कल्पना से ही घबरा गए और इस कदर भयभीत हुए कि शाम के वॉक के दौरान हमने कैपिटौल की तरफ निकलना तक बंद कर दिया.
हमने ‘ब्लू लैगून’ को भविष्य की योजना में डाल लिया. हमने तय किया कि तब तक हम उसे देखने के लायक पर्याप्त वयस्क नहीं हुए थे. यह कायरतापूर्ण लेकिन समझदार फैसला था. ‘ब्लू लैगून’ की जगह अगले हफ्ते कोई और पिक्चर लग जानी थी.
फिर यूं हुआ कि पड़ोस के कुछ लड़कों द्वारा इस फिल्म का चटखारे ले कर पारायण किया गया. दबाई गयी हमारी इच्छा थोड़ा इस बात से भड़की और थोड़ा इस बात से कि पिक्चर नहीं बदली और दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर गयी. यह भी एक तारीखी घटना थी.
शनैः-शनैः कुंठा बढ़ती चली गयी जिसके परिणाम हमारी आँखों के नीचे काले घेरों की सूरत में नजर आने लगे. जिस नैनीताल में ‘गॉडफादर’ जैसा शाहकार एक हफ्ते में उतर गया था वहां ‘ब्लू लैगून’ तीसरा हफ्ता ख़त्म करने जा रही थी.
नगर में चाय-समोसे और सिगरेट के हमारे तीन अड्डे थे. तीनों के मालिक तक पिक्चर देख आये थे. इसका मतलब यह होता था कि आधा नैनीताल उस मजे को लूट चुका था जिसके तसव्वुर भर से हमारी मांसपेशियाँ बेचैन होने लगती थीं. सार्वजनिक और गैर-सार्वजनिक स्थलों पर पिक्चर का किसी भी तरह प्रत्यक्ष-परोक्ष ज़िक्र चलता तो लोगों के होंठ किसी गुप्त उल्लास में टेढ़े होने लगते.
महेंद्र हम तीनों में सबसे साहसी था. जब चौथा हफ्ता भी बीत गया और हम भयंकर डिप्रेशन में आ चुके थे तो उसने एक योजना बनाई.
उसने किसी जुगाड़ से कैपिटौल के गेटकीपर के असिस्टेंट को डबल रेट देकर पटा लिया था कि हमें फिल्म शुरू होने के पन्द्रह मिनट बाद पेशाबघर वाले रास्ते से हॉल के भीतर और अँधेरे-अँधेरे में ही पिक्चर ख़त्म होने से पहले बाहर कर देगा. अंगरेजी पिक्चरों में इंटरवल नहीं होता था. पकडे जाने का चांस निल था.
हमने यह कारनामा कर दिखाया. पिक्चर आलीशान थी. कैपिटौल के अँधेरे सेकेण्ड क्लास में अनिन्द्य ब्रूक शील्ड्स की सारी देहयष्टि को हमने रट डाला और उससे मोहब्बत कर ली.
एक चूक हो गयी. फिल्म ख़त्म होने और कास्टिंग शुरू होने से ठीक पहले हमें निकल जाना था. गेटकीपर के असिस्टेंट ने इसका इशारा करते हुए पेशाबघर के दरवाजे से एक बार टॉर्च चमकाई जैसा पहले से तय था लेकिन हम कुछ ज्यादा ही बड़े फिल्म-अनुसंधानकर्ता थे और हमने कास्टिंग के लालच में उसे अनदेखा कर दिया.
कुर्सियों से लोगों के उठने से होने वाली हड़बड़ीभरी खड़खड़-भड़भड़ के बीच लाइटें जल गईं. शवयात्रा की सी मनहूसी पैदा करते, जमीन से निगाह चिपकाए संस्कारवान दर्शक मुंह छुपाये एग्जिट की तरफ रेंग रहे थे. मेरी आँखें अपने आगे चल रहे आदमी की जैकेटदार पीठ पर स्थिर थीं. एग्जिट आया तो बाहर आसमान की रोशनी ने आँखों को एक पल को चौंधियाया. फिर मैंने जैकेट पहचानी. मेरे आगे महेंद्र के पापा थे. मैंने पलट कर देखा. दोस्तों का कोई निशान न था. पीछे देखने के चक्कर में मेरा जूता अंकल की पिंडली से टकरा गया. उन्होंने पलट कर देखा और मुझे पहचाना. उनके चेहरे पर शर्म उतरती दिखी. मेरा अपना चेहरा शायद भय से फक्क हो गया होगा. मैं कुछ करता या कहता उसके पहले वे हकलाते हुए बोले – “यहां क्या कर रहा है बे तू?”
साभार ,फोटो भी
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