कभी छुपा कर पढ़ते थे कुशवाहा कांत की किताबें

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कभी छुपा कर पढ़ते थे कुशवाहा कांत की किताबें

के विक्रम राव

पिछली सदी में एक साहित्यसेवी हुये थे. नाम था ''कांत''. कुशवाहा कांत. पाठक उनके असंख्य थे. सभी उम्र के. गत माह (9 दिसम्बर) उनकी 102वीं जयंती पड़ी थी. विस्मृत रही. अगले माह (29 फरवरी) उनकी जघन्य हत्या की सत्तरवीं बरसी होगी. भरी जवानी में वे चन्द प्रतिद्वंदियों की इर्ष्या के शिकार हुये थें, वाराणसी के कबीर चौरा में. सात दशक बीते पुलिस हत्यारों को पकड़ न सकी. 

 मगर कुशवाहा कांत ने शोहरत और दौलत खूब अर्जित की. चौंतीस वर्षों तक लिखा. खूब धारधार, धाराप्रवाह, अद्भुत लायकियत से भरी. रसास्वाद करते पाठक की लार टपकती थी. शब्द चयन की स्टाइल ही ऐसी थी. तब तक बीए क्लास से ही शब्दकोश का इस्तेमाल शुरु किया जाता था. कुशवाहा कांत के आने के बाद इन्टरमीडिएट छात्र भी डिक्शनरी तलाशने लगे थे. मसलन रान, जंघा, स्तन आदि शब्द तो आम थे, बोलचाल के थे. मगर उरोज, नितम्ब को व्यापक बनाया कांत ने ही. संस्कृतिनिष्ट भाषा थीं अत: छात्र स्वत: द्विभाषी हो गये. उस दौर की आचार संहिता उदार और विशाल हृदय की नहीं होती थी. युवावर्ग संयम, मर्यादा और आचरण को मानता था. 

           कुशवाहा कांत की किताब हाथ में ''कोई देख लेगा'' के खौफ से छात्र अतंकित रहता था. कांत का भाषा भंडार, भावभरी उक्तियां पिरोने की शैली, खासकर गुदगुदाने वाले रसिया प्रसंग. मानो हाथों को उंगलियों के पोर पर कोई सुखद खुजली, मीठी चुभन सर्जा रहा हो. आयु का दौर से तादाम्य होता है. अत: कुशवाहा कांत के युग की उस अनुभूति को तरल तारुण्य तक संदेशित करने में लेखक की अगाध अर्हता दिखती थी.


            कांत की समानान्तरता का जिक्र हो तो उपन्यासकार ओस्कर वाइल्ड से की जा सकती है, जो समलैंगिकता के जुर्म (उन्नीसवीं सदी के कठोर कानून के तहत) में कई बार लंदन जेल में रहे. कुशवाहा कांत का अपराध ऐसा हेय नहीं रहा. कांत की अपनी शब्दशक्ति रही. व्यंजना, अमिधा तथा लक्षणा वाली. रसमर्मज्ञ की. इन्द्रियासक्त भी. उनकी अभिव्यक्ति नाट्यसम्राट पृथ्वीराज के पुत्र कपूर शम्मी कपूर के अभिनय जैसा उभारने वाला, डुलानेवाला रहता था. पच्चीस (गधेपन के) के गबरू युवा उनकी रचना का लक्ष्य रहता था. याद आया. तब हम लोग हिचक कर डीडीके कहते थे. फिल्म का शीर्षक था. ''दिल देके देखो.'' इतने सतर्क रहते थे. 


         गमनीय बिन्दु था कि उनका उपन्यास छपते ही ''आउट आफ स्टाक'' हो जाता था. फिर छपता ही रहता था. रेलवे बुक स्टाल पर. फुटपाथ पर बिछी दुकानों में, कालेजों के पास खासकर.  

          कुशवाहा कांत की हर नूतन रचना की प्रतीक्षा रहती थी. बेताबी से, आतुरता से, बेकरारी से, उत्कण्ठा और अधीरता से. ये सारे उच्चरित भाव उनके चाहने वालों द्वारा प्रयुक्त होते रहे.           एक विशिष्टता दिखती थी उनकी किताब के खरीददारों में. सभी लुके, छिपे, ढककर ले जाते थे. सांझा करके पढ़ते थे. क्योंकि अनुशीलन की परिभाषा तब ही ऐसी थी. ''तेरा मुण्डा बिगड़ा जाये'' वाला अभियोग लगने का भय था.  कांत के प्रकाशन संस्थान का नाम था ''चिनगारी''. मगर पाठक उसे ज्वाला मानते थे. उनकी कृतियों के शीर्षक भी अर्थपूर्ण होते थे. लाल रेखा, जलन, आहुति, परदेसी, पपीहरा, नागिन, मदभरे नैयना, अकेला, लवंग, निर्मोही वगैरह.

अहिन्दी क्षेत्र में हिन्दी पढ़ने की ललक बढ़ी थी जिसका कारण भी काफी हद तक कुशवाहा कांत ही रहें. उनकी चन्द अनुवादित रचनाओं के खालीपन से प्यासे रहकर, लोग मूल रचना पढ़ना चाह रहे थे. नागरी लिपि सीख ली. उद्दीपन और रोमांच की झूठन रुचिकर नहीं हो सकती. अनुवाद मतलब टेलिफोन पर बोसा! ईसाई किताबों में निषेध की ऐसी भावना सर्जी होगी जब आदम और हव्वा ने बाइबिल में वर्णित (ज्ञान का) फल चख लिया था. दोनों की अबोधता तब नष्ट हो गई. मगर रैक्व ऋषि की भांति हम सभी युवा अनभिज्ञ ही रहते थे. छकड़ा गाड़ी के तले.


          उस कालावधि के छात्र भी अल्पज्ञानी होते थे. सैक्स इतना मुखरित नहीं था. वर्जनायें बहुत थी. मुझे स्मरण है कि लखनऊ विश्वविद्यालय के बीए प्रथम वर्ष का क्लासरुम. संस्कृत साहित्य विषय था. पण्डित (डाक्टर) आरसी शुक्ल महाकवि कालीदास की अभिज्ञान शाकुंतल पढ़ाते थे. कवि की कल्पना तो वल्लाह वाह थी. श्रृंगार में तो यूं भी कालीदास बेजोड़ हैं. एकदा क्लास में एक संदर्भ आया. कण्व के आश्रम में विश्वामित्रपुत्री शकुंतला अपनी सखा प्रियंवदा से शिकायत करती है कि उसकी कंचुकि संकुचित हो (स्रिंक) हो गयी है. तो सखा बताती है कि : ''तुम बड़ी हो रही हो. उरोज फूल रहे है.'' 

इन पंक्तियों पर डा. शुक्ल कहते थे कि ''घर पर पढ़ लेना''. छात्रायें अगली पंक्ति पर विराजे भावार्थ समझ लेती थीं. तो ऐसा युग था हमारा. लज्जा ही पुरुषों का गुण होता था. युवती के नखशिख का क्लास में वर्णन अश्लील समझा जाता था. इतना कठोर, कटु संयम होता था. सब छात्र ''भइया'' (राखी के लायक) और छात्रायें ''बहने'' (स्नेहिल) होतीं थीं.

  उस दौर में कुशवाहा कांत एक आगेदेखू (लोहिया के शब्दों में) क्रान्तिकारी, अग्रगामी, प्रगतिवादी, उपन्यासकार माने जाते थे. हमारे समय जेनयू नहीं बना था. मगर सुनने में आया है कि जेनयू में प्रगतिवादिता का पहला सोपान होता है कि छात्र सिखाते है छात्राओं को कि ''ब्रा'' पहनना नारी दासता का प्रतीक है. यह बेड़ी है. तोड़ो इसे, हटाओं. आज भारत कितना विकास कर चुका है?फिर भी कुशवाहा कांत को हिन्दी साहित्य में उनका छीना गया स्थान मिलना चाहिये. हिन्दी विश्वभाषा है. दकियानूसीपन की जंजीरों में जकड़ी नहीं रह सकती. अब और अवरुद्ध नहीं की जा सकती है.

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