अंबरीश कुमार
बादलों और धुंध के साथ ही हम दार्जिलिंग पहुंचे थे .ज्यादातर लोग ऐसे ही पहुंचते भी हैं .यह ट्रेन शहर के बीच से गुजरती हुई बढती है .बादल साथ साथ चलते हैं .पर आखिर दार्जिलिंग हम आए क्यों ?कैवेन्टर्स की खुली छत पर काफी पीते हुए यही सवाल उठा भी तो था .बादल उमड़ रहे थे .बरसात कभी भी हो सकती थी पर हमें कोई चिंता भी तो नहीं थी .भीगना चाहते थे .
यह सवाल हमेशा ध्यान आता है जब हम लोगों ने दार्जिलिंग जाने का कार्यक्रम बनाया .इसकी वजह शुद्ध फ़िल्मी रही .अपने को फिल्म अभिनेता देवानंद ने काफी प्रभावित किया बचपन में .और यही वजह है कि नब्बे के दशक में जब उनसे इंटरव्यू लेने का मौका मिला तो तय समय से दुगना समय लग गया .दिल्ली के होटल ताज पैलेस में .बड़े होने पर दार्जिलिंग भी तो उन्ही की वजह से जाना हुआ था .दो फिल्मे जब प्यार किसी से होता है और महल .इनकी शूटिंग दार्जिलिंग में हुई और इसके गाने बहुत लोकप्रिय थे . दार्जिलिंग बचपन में भी जाना हुआ तो बड़े होने पर भी .बचपन की याद धुंधली सी है क्योंकि मम्मी पापा के साथ गया था और किसी डाक बंगले में रुकना हुआ था .खाना आदि का इंतजाम खुद ही किया गया था जिसके लिए पापा हमेशा एक बड़ा बक्सा अलग से लेकर चलते थे .रेलवे में इंजीनियर होने की वजह से उन्हें सामान लेकर चलने में को समस्या भी नहीं आती .कई बार खलासी साथ होता या जहां जाते मिल जाता .पर दार्जिलिंग में ऐसा नहीं हुआ .मम्मी को बाहर सब्जी लेने जाना होता तो मुझे लेकर जाती .अंजान जगह पर रास्ता भूल न जाएं इसलिए एक दो जगह चाक से निशान लगा देते .माल रोड से थोड़ी दूर पर ही सामान मिल भी जाता .खैर दोबारा मित्रों के साथ जब जाना हुआ तो देवानंद की फिल्मों का जादू सर पर चढ़ा हुआ था .हिमालय को देखना और बड़ी इच्छा थी .साथी मित्र राजेश खन्ना की आराधना फिल्म का मशहूर गाना मेरे सपनो की रानी ..........वाली जगह से गुजरना चाहते थे .जिसमें शर्मिला टैगोर छोटी ट्रेन में खिड़की पर बैठी उपन्यास पढ़ रही होती हैं तो राजेश खन्ना और सुजीत कुमार जीप से बगल से गुजरते उन्हें देख कर गाना गाते हैं .यह दृश्य भी काफी लोकप्रिय हुआ था .दरअसल फिल्मों ने ही पहाड़ी सैरगाहों को ज्यादा लोकप्रिय बनाया भी .जिसमें सबसे पहला नाम देवानंद का रहा .बाद में राजेश खन्ना समेत अन्य अभिनेता भी शामिल हुए .बहरहाल जब दुबारा दार्जिलिंग जाना हुआ तो ठीक से देखा गया .इस पहाड़ी सैरगाह की चाय का मजा ही अलग है .चाहे माल रोड हो या नेहरु रोड या फिर बतासिया लूप मार्किट चाय तो सभी जगह मिल जाती .और मौसम भी ऐसा कि दो तीन घंटे बाद चाय की इच्छा होने लगे .यही पर सासेज और सलामी को भी पहली बार देखा तो हल्की गर्म छंग का स्वाद भी लिया .सामिष व्यंजन तो बहुत थे पर अपना संस्कार ऐसा था नहीं कि इनके खाने के बारे में सोचा भी जाए .पता नहीं क्या क्या डाल रखा होगा .इसलिए दाल भात और आलू गोभी की तरकारी जो यूथ हास्टल में रात में मिलती उसी से संतुष्ट हो जाते .मीठा के नामपर अमूमन कस्टर्ड होता .नाश्ते में भी ब्रेड बटर ,जैम ,दलिया और उबला अंडा जैसा विकल्प होता .साथ में दार्जिलिंग की लीफ वाली चाय एक बड़ी केतली भर कर मिलती .दूध अलग रहता .
अपनी बैठकी का अड्डा कैवेंटर्स ही रहा .शाम को चाय या काफी के साथ सैंडविच चल जाती तो साथ के मित्र सासेज ,सलामी से लेकर बेकंस तक का स्वाद लेते .दरअसल यह बैठे ठाले लोगों के लिए अच्छा अड्डा है भी .प्रेमी किस्म के जीव भी यहां घंटो गुजर देते हैं .कोने में दो सीट छेक कर .और जब घने बादल हों तो फिर माहौल भी अनुकूल होता है .वे छाता भी साथ रखते हैं .इन्हें छाता न कहकर छतरी कहना चाहिए .लाल हरी नीली पीली .एक शाम हलकी बरसात में मैंने छतरी लगाए उन्हें बैठे देखा .बैरा भी कौन सा जल्दी आता है .चाय तक के लिए आधा घंटा लगा सकता है तबतक आप नेहरु रोड से गुजरते लोगों को देखें या सामने से आते बादलों को जो कभी भी बरस सकते हैं .फोटो साभार
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