अंबरीश कुमार
रास्ते में एक समस्या हो गई .हमारा पीने का पानी खत्म हो गया था .और रात का एक बज चुका था .मांडोवी नदी के बगल से गुजरते हुए रौशनी तो खूब दिखी पर कोई दूकान नहीं खुली थी .रात एक बजे जब कैंडोलिम के समुद्र तट के इस कस्बे में पहुंचे, तो नजारा ही अलग था. हम तो डर रहे थे कि पानी मिल पाएगा या नहीं, क्योंकि दिल्ली से जो पानी लेकर चले थे, वह खत्म हो गया था. जिस न्यूटन सुपर मार्केट के पीछे हमारा ठिकाना था, उसके सामने और आसपास के ज्यादातर रेस्तरां और बार खुले हुए थे. हमें पणजी का पुराना अनुभव था, जहां रात ग्यारह बजे सारे रेस्तरां व बार बंद हो जाते हैं और ऑटो भी मिलना मुश्किल होता है. जबकि वह गोवा की राजधानी है. लेकिन इस समुद्र तटीय कस्बे में सुबह चार बजे तक रेस्तरां खुले रहते हैं. हां, यह जरूर है कि इन रेस्तरां में भारतीय तो कम मिलेंगे, परंतु विदेशियों की तादाद अच्छी खासी रहती है. पश्चिमी संगीत बजता रहता है. सड़क के ठीक किनारे बैठकर वे अपनी मनपसंद शराब पीते रहते हैं. कोई रोक-टोक नहीं. यह कैंडोलिम का समुद्र तट है. इस तट पर है दूर तक जाती हुई सफेद रेत. सुबह के साढ़े पांच बजे थे, लेकिन पूरी तरह अंधेरा छंटा नहीं था. रात करीब एक बजे गोवा के इस छोटे से कस्बे में पहुंचे थे. रात दिल्ली से चले और गोवा के डाबोलिम हवाई अड्डे से बाहर आते-आते बारह बज ही चुके थे. करीब पचास किलोमीटर था अपना कैंडोलिम का ठिकाना.
कैंडोलिम गोवा का बहुत खूबसूरत समुद्रतटीय गांव है, जो सोलहवीं शताब्दी में पूरी तरह ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गया था. यहां के खान-पान और संस्कृति पर पुर्तगालियों का ज्यादा प्रभाव है. ईसाई समाज का खुलापन यहां दिखता है. व्यवहार में भी और रहन-सहन में भी. यहां हर चीज महंगी है, लेकिन ह्विस्की या फेनी काफी सस्ती. जो हरी मटर हमारे यहां तीस रुपए किलो मिल जाती है, यहां उसकी कीमत अस्सी रुपए प्रति किलो है. खीरा साठ रुपए किलो, तो सेब दो सौ रुपए. एयरपोर्ट से यह जगह करीब पचास किलोमीटर दूर है. देर रात के समय टैक्सी का भाड़ा तीस फीसदी तक बढ़ जाता है.
अगला पड़ाव था सालिगांव . यह उत्तरी गोवा का छोटा-सा गांव है. कलंगूट से ढाई किलोमीटर और कैंडोलिम से नौ किलोमीटर दूर. हम कैंडोलिम से करीब ग्यारह बजे चले. धूप थी, पर बहुत तेज नहीं. टैक्सी वाले आठ सौ रुपए मांग रहे थे. यह किराया ज्यादा लगा, इसलिए बस में बैठ गए. दस रुपए एक आदमी का भाड़ा था. दो बैग थे, इसलिए कोई दिक्कत भी नहीं हुई. हम चकित थे कि जो सफर मात्र चालीस-पचास रुपयों में हो सकता है, उसके लिए आठ सौ रुपये मांगे जा रहे थे. अनजान जगह होने का लोग हर जगह ही फायदा उठाते हैं. कई बार लगता है कि यह हम भारतीयों के डीएनए में है कि अजनबियों का फायदा उठाया जाए. ‘अतिथि देवो भव’ के बारे में सब जानते हैं, लेकिन वक्त आने पर इस सोच को ठेंगा दिखा देते हैं.
हालांकि हर जगह यही सोच हो, ऐसा भी नहीं है. खैर, बस का यह अति अल्प सफर बहुत रुचिकर रहा. गोवा की बसों में दक्षिण के अन्य राज्यों की तरह महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं. परंतु हम सभी को जगह मिल गई. नारियल के पेड़ों से घिरा रास्ता था, दोनों तरफ छोटे और खूबसूरत घर थे. कुछ देर में ही हम सालिगांव चौराहे पर उतर गए. सामने नारियल के बाग में बना एक पुराना चर्च दिख रहा था. बालकनी पर कुछ देर बैठे तो सामने नारियल के बाग में बना एक पुराना चर्च दिख रहा था. अचानक ध्यान आया किचन में काफी का पानी चढ़ा हुआ था .भीतर गया और अपने लिए काफी तैयार कर लाया.किचन की खिड़की भी आम के बगीचे में खुलती है .एक बालकनी इधर भी है .आम के साथ नारियल के पेड़ भी काफी और फलों से लदे हुए थे .जनवरी के महीने में आम के टिकोरे देखना भी अच्छा लग रहा था. पर चर्च के चारो तरफ के नारियल के दरख्त अदभुत द्रश्य पैदा कर रहे थे . जानकारी मिली कि यह सालिगांव का मशहूर चर्च है. 1873 में बना मी डे ड्यूस पेरिस चर्च. यह एक भव्य चर्च है, जिसे देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं. हालांकि इधर सालिगांव पानी बचाने की युक्तियों को लेकर चर्चा में आया है. सालिगांव के लोगों ने भूजल का दोहन का प्रतिकार किया और भूजल संरक्षण की एक मिसाल पेश की है.
अब हमारे सामने कुदरत के कई दिलचस्प नजारे थे. ऐसे नजारे, जिन्हें देखने के हम उत्तर भारतीय जन कतई अभ्यस्त नहीं हैं. हवा का एक अलग सुखद स्पर्श और एक अलग ही हरितिमा. सुखद आश्चर्य हुआ, जब सामने आम का बाग देखा. सघन पेड़, जिनमें कई पक्षी चहक रहे थे. आम के बौर आ चुके थे. कई जगह आम के टिकोरे भी दिखे. जाड़ों के मौसम में आम के बौर और ये टिकोरे! समझ में आ गया कि यह आबोहवा का असर है. इसके बाद हम मापुसा होकर वेगाटार समुद्र तट की ओर निकल पड़े. दरअसल बगल में गोवा का सबसे बड़ा पर्यटन स्थल कलंगूट है, जिसका हमें हर हाल में भ्रमण करना था.
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