एक था मेफेयर सिनेमा

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एक था मेफेयर सिनेमा

वीर विनोद छाबड़ा

एक था मेफेयर सिनेमा.इसने लखनऊ को उसके शैशव काल से बहुत करीब से देखा है, उसका हिस्सा रहा है.शहर का पहला सेंट्रली-ऐयरकंडीशन थियेटर.पिछले कई साल से बंद है.मुझे वो दौर याद है जब माना जाता था कि यहां सिर्फ शहर का अभिजात्य और कुलीन वर्ग ही फिल्म देखता है.साधारण आदमी इसकी सीढ़ी पर पैर रखने तक से डरता है.उन दिनों अंग्रेज़ी फिल्में ही रिलीज़ होती थीं.इसके अलावा ओडियन में भी अंग्रेज़ी फिल्में नियमित रिलीज़ होती थी.

मैं विजुलाईज़ करता हूं.1960 का कोई महीना.मैं नौ-दस साल का हूं.पिताजी की उंगली पकड़ कर मैं ‘बेनहर’ की चैरियट रेस (रथ दौड़) देखने आया हूं.नफ़ासत से भरा ठंडा-ठंडा कूल कूल महौल और एक अजीब सी महक, जिसे पहली बार अनुभव किया.याद है उस ठन्डे माहौल के कारण मैं सो जाता हूँ.पिताजी मुझे बार-बार जगाते हैं.देखो रेस शुरू होने वाली है.अंग्रेज़ी समझ नहीं आती है.वो मुझे बीच बीच में समझाते रहे.फिल्म खत्म होने के बाद क्वालिटी रेस्टोरेंट में पिताजी ने मुझे काफी के साथ पेस्ट्री-पैडीज़ खिलाई.मुझे हैरत हुई.मैंने सुना था यहां सिर्फ़ लाटसाहब आते हैं.पिताजी मेरी बात पर हंस देते हैं.फिर हम इसके ऊपर जाते हैं.यहां ब्रिटिश कॉउंसिल लायब्रेरी है.यह भी एयरकंडीशन है.पिता जी इसके सदस्य हैं.दो किताबें लेते है.छह साल बाद मैने पिताजी के कार्ड पर सिनेमा और क्रिकेट की अनेक किताबें पढ़ी.यहां के पिन ड्राप साईलेंस में घंटों इंग्लैंड से प्रकाशित अखबारों में काउंटी क्रिकेट मैचों के स्कोर देखे.

वक़्त गुज़रता है.मैं दसवें में पहुंच गया हूं.समझ पहले से ज्यादा विकसित हो चुकी है.अब मैं स्कूल बंक कर दोस्तों के संग सिनेमा देखने लगा हूं.मेफेयर में ‘दोस्ती’ आयी.हंगामा हो गया.मेरी याद में पहली हिंदी फिल्म.यह 1964 की बात है.इसके बाद मैंने 'सांझ और सवेरा' देखी.बाद में मेरे मित्र अजय निगम ने बताया कि मेफेयर में पहली हिंदी फिल्म 1963 में 'घर बसा के देखो' रिलीज़ हुई थी, जिसमें मनोज कुमार-राजश्री थे और किशोर साहू ने डायरेक्ट किया था.

मेफेयर लंबे समय तक अंग्रेजी फिल्मों की रिलीज़ की पहली पसंद रही.याद है मुझे पिता जी ने ‘गोल्डफिंगर’ की कहानी सुनायी.पैसे दिये.बोले जा, देख आ.मैंने बांड की फिल्म पहली बार देखी थी.अंग्रेजी न जानने वालों को भी इसे समझने में कतई दिक्कत नहीं होती थी.

मैं बड़ा हुआ.दाड़ी आ रही है.बड़ा खुश हूं कि मेफेयर में एडल्ट अंग्रेज़ी फ़िल्में देखने का लाइसेंस मिल गया.ईवनिंग शो देखने का मज़ा ही कुछ दूसरा था.यूनिवर्सटी, आईटी, लामार्ट, लोरेटो, कालविन के अंग्रेजी में गिटपिट करते लड़के-लड़कियों के बीच हम हिंदी मीडियम के लड़के चुपचाप उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखते रहे.कई बार हम सोचते थे, काश मैं भी पैदा हुआ होता अंग्रेजी बोलने वाले अमीरों के घर.सच, मज़ा आ जाता.

कुछ वक़्त और गुजरा.मुंह में सिगरेट आ गयी है.मेफेयर थियेटर और क्वालिटी के बीच एक कारीडोर है.ऐसा कारीडोर दूसरी तरफ भी है.यह भी बड़ा कूल-कूल है.दीवारों पर एलिजाबेथ टेलर, रिचर्ड बर्टन, सोफिया लारंस, रैक्स हैरीसन, क्लिंट ईस्टवुड, डीन मार्टिन, क्रिस्टोफर ली आदि की शीशे के फ्रेम में बड़ी-बड़ी रंगीन तस्वीरें टंगी हैं.मैंने हिंदी सिनेमा के आईकान अपने लखनऊ शहर के किसी सिनेमाहाल में टंगे नहीं देखे.मुझे याद है कि इन कारीडोरों में हम कुछ बढ़ी हुई छितरी दाढ़ी वाले मित्रगण होंटों के किनारे सिगरेट फंसा लेते थे और फिर फिलॉस्फरिकाल अंदाज़ में होंट चबा-चबा कर अंग्रेज़ी के कुछ रटे-रटाये वाक्य बोलते थे.इससे हम लोगों के तलुफ़्फ़ुज़ में थोड़ी अंग्रेज़ियत आ जाती थी.और हां, मैंने यहाँ रामलोटन, खिलावन और हरिया जैसे लोग नहीं देखे.हालांकि उनके प्रवेश पर कोई रोक नहीं थी, मगर वो लोग डरते थे शायद.ये मुझे बहुत ख़राब लगता था.

हां बेशुमार फिल्में देखीं.अंग्रेज़ी भी और हिंदी भी.यहां रिलीज़ हुई ज्यादातर फिल्में सुपर हिट रहीं.बॉबी, दुल्हन जो पिया मन भाये, अखियों के झरोखों से, पाकीज़ा, खामोशी आदि.'क्रेज़ी ब्वाय' सीरीज़ की तमाम फिल्में मैंने यहीं देखी.इसके अलावा दि पोसाईडियन एडवेंचर, वेयर दि बॉयज़ आर, दि बैड दि गुड एंड दि अगली, वाट ए वे टू गो, टावरिंग इनफरनो, ऐयरपोर्ट, दोज़ मैग्नीफिसेंट मैन इन देयर फ्लाईंग मशीन्स, इट्स ए मैड मैड वर्ल्ड आदि.इरमा ला डूज़ और उसकी हू-बहु हिंदी नकल शम्मीकपूर डायरेक्टेड ‘मनोरंजन’ भी यहीं देखी थी.मजे की बात यह है कि नकल पहले रिलीज़ हुई और मूल प्रति बाद में.

मैंने कई बार कामयाबी को सेलीब्रेट करने के लिये मेफेयर को चुना.इसके बगल में एक सरदार जी का कूल कॉर्नर होता था.मेफेयर में सिनेमा देखने के बाद इस कॉर्नर पर पच्चीस पैसे वाली कूल बोतल पीकर तो सोने में सुहागा हो जाता था.  

मेफेयर की एक विशेषता यह थी कि यहां ऊंचे दरजे के टिकट जल्दी बिक जाते थे.बहुत कम सीटों वाली फ्रंट क्लास में आमतौर पर टिकट उपलब्ध मिलती.कई साल तक इसका रेट अस्सी पैसे रहा.मेफेयर लखनऊ का एकमात्र सिनेमाघर था जहां आइडेंटी कार्ड दिखा कर पच्चीस पैसे स्टूडेंट कंसेशन मिलता था.और हां इसकी बॉलकनी विचित्र थी.वो इसलिये कि बॉलकनी के नीचे स्पेस ही नहीं था.

इसके मैनेजर कुमार साहब परफेक्ट जेंटलमैन थे.पिक्चरबाज़ों को खूब पहचानते थे.हाऊसफुल की स्थिति में मैं उनके पास जाकर खड़ा हो जाता था. उन्होंने कई बार मदद भी की.दरअसल, वो कई टिकट रोक लेते थे.उन्हें अंदाज़ा रहता था कि ऐन मौके पर कोई वीआईपी आ सकता है.एक निश्चित सीमा के बाद वो टिकट हम जैसे गिद्धों की प्रॉपर्टी हो जाते थे.

इस सिनेमाहाल के साथ-साथ क्वालिटी और ब्रिटिश लायब्रेरी भी मुद्दत से बंद है.इस इमारत में तीन-चार दुकानें हैं.इसमें सबसे पुरानी राम अडवाणी की मशहूर किताबों की दुकान रही.जब से होश संभाला है तब से इसे देखा यहाँ.कई बार किताबें भी खरीदी हैं.पिताजी का नाम बताने से राम अडवाणी जी डिस्काउंट भी दिया.लेकिन कई साल तक मेफेयर, क्वालिटी और ब्रिटिश लायब्रेरी के राईज़ एंड फाल की चश्मदीद गवाह रहने के बाद यह बुक शॉप भी चार साल पहले बंद हो गया. इसके मालिक राम आडवाणी जी गुज़र चुके हैं.

नोट - मित्रों मैंने जो भूत में देखा वो लिख दिया.इसके इतिहास की किसी के पास जानकारी हो तो अवश्य बताये.ज्ञान में वृद्धि होगी.

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