मधुबाला, नूतन, वहीदा और मीना के बिना वह दौर अधूरा !

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मधुबाला, नूतन, वहीदा और मीना के बिना वह दौर अधूरा !

मनोहर नायक

इस काल की नायिकाओं के बारे में बात करें तो सुरैया, नरगिस, मधुबाला, नूतन, वहीदा, वैजयंतीमाला, मीना कुमारी, गीता बाली, उषा किरण, साधना के बारे में कुछ कहे बिना बात नहीं बनती. सुरैया नरगिस से 15 दिन छोटी थीं. नरगिस, नूतन से वे अभिनय में उ'ाीस थीं और सौंदर्य में मधुबाला, मुनव्वर सुल्ताना, नलिनी जयवंत उनसे बीस थीं लेकिन सजने का उनका तरीक़ा, बातचीत करने की नफ़ासत सबसे अलग थी और इस सबके ऊपर उनका सुरीला कंठ. वे रुपहले पर्दे की पहली ग्लैमर गर्ल थीं. शायद जितनी शोहरत और दौलत उन्हें मिली उतनी किसी को नहीं. लोग उनके आशिक तो थे ही प्रेमनाथ और रहमान भी उन्हें हासिल करना चाहते थे. वे पृथ्वीराज कपूर की नायिका भी रहीं और उनके दो बेटों राज और शम्मी की भी. सहगल के साथ काम करने की उनकी इच्छी 'तदबीर' में पूरी हुई. बाद में दोनों 'उमर खय्याम' और 'परवाना' में भी आए - गायक अभिनेता और गायिका अभिनेत्री साथ-साथ. 'ताजमहल', 'दर्द', 'नाटक', 'फूल', 'काजल', 'चार दिन', 'हीर रांझा', 'दीवाना', 'ख्याल', 'विद्या', 'अफ़सर', 'बड़ी बहन', 'हार की जीत', 'वारिस', 'रुस्तम सोहराब' में उन्होंने काम किया. सुरैया ने नायिकाओं को शान शौकत के सलीके सिखाये. गर्मियों में वे लोनावाला चली जाती थीं. जिस रोड पर उनका बंगला था वह अब सुरैया रोड है.

 राजकपूर-नरगिस, दिलीप कुमार-मधुबाला के प्रेम के कारण उनकी फिल्मों में जान पड़ जाती थी. सुरैया का देवआनंद के साथ यही आलम था. उनके सहपाठी राजू भारतन को एक बार उन्होंने अपनी प्रेमगाथा सुनायी थी. देवआनंद ने आकाशवाणी के विशेष जयमाला कार्यक्रम में अपने साथ काम करने वाली नायिकाओं का जि़क्र किया, पर जिस नाम को सब सुनना चाहते थे वह छिपा गये. थोड़ी ख़ामोशी के बाद बोले कि एक नाम तो मैं भूल ही गया, सुरैया का और फिर गुनगुनाने लगे, 'लेके पहला पहला प्यार, भरके आंखों में दुलार, जादूनगरी से आया है कोई जादूगर'. इसके बाद उन्होंने 'अफ़सर' का गाना बजाया, 'नैन दीवाने इक नहीं मानें, करे मनमानी, माने ना.' सुरैया ने भारतन से कहा था कि हम दोनों (सुरैया-देव) के अलावा शायद ही किसी को याद रहा होगा कि इसी गाने को फिल्माने के साथ हम दोनों बिछड़ गये थे. ये असली कहानियां भी सितारों का कद कई गुना बढ़ा देती हैं.

 नरगिस को सदाअत हसन मंटो पहले से जानते थे. उन्होंने लिखा है, 'तबियत में निहायत ही मासूम खिलंदड़ापन था. बार-बार अपनी नाक पोंछती थी जैसे नज़ली ज़ुकाम की शिकार है - 'बरसात' में इसको अदा के तौर पर पेश किया गया है - मगर उसके उदास-उदास चेहरे से साफ़ बयां था कि वह अपने अंदर किरदार निगारी का ज़ौहर रखती है. होंठो को किसी क़दर्र भींच कर बात करने और मुस्कुराने में गो बज़ाहिर एक बनावट थी, मगर साफ़ पता चलता था कि यह बनावट सिंगार का रूप इख्तियार करके रहेगी. आखिर किरदार निगारी की बुनियादें बनावट पर ही तो उस्तुवार होती हैं. नरगिस को इस बात का कामिल अहसास था कि वह एक दिन बहुत बड़ी स्टार बनने वाली है.' महबूब ख़ान ने उसे 'तक़दीर' में पहली बार पेश किया. महबूब ख़ान के साथ उसने चार फिल्में की. राजकपूर के साथ 15, दिलीप कुमार के साथ सात. दिलीप-राज में नरगिस को लेकर प्रतिस्पर्धा थी. 'अंदाज' में तीनों थे और यह प्रेम त्रिकोण की एक पुरअसर फिल्म थी. बाद में नरगिस-राज कैंप की हो गयीं. उनकी जोड़ी ने नरगिस को अभिनेत्री के रूप में विकसित होने का ख़ूब मौका दिया. उनकी पर्दे पर केमेस्ट्री गज़ब की थी. आरके फिल्म्स का प्रतीक चिन्ह 'बरसात' की दोनों की एक प्रणय भंगिमा पर है. लेकिन इसने नरगिस को मुक्त आकाश में पर फैलाने से बाधित किया. टीजेएस ने नरगिस की जीवनी लिखी है. उनका कहना है कि 'अंदाज' के बाद दिलीप के साथ नरगिस की जोड़ी न बने इसके लिए राजकपूर ने सभी हथकंडे अपनाये. 'मुगल-ए-आज़म' में अनारकली वे ही बनने वाली थीं पर राज ने यह रुकवा दिया. महबूब ख़ान की 'आन' भी उनके हाथों से गयी. अंतत: नुकसान का भान उन्हें भी हुआ. 'जागते रहो' के अपने एकमात्र आखिरी सीन में वे 'जागो मोहन प्यारे' गाते हुए राजकपूर को पानी पिलाकर उनके कैंप से विदा हुईं. महबूब ख़ान की 'मदर इंडिया' ने उन्हें उस ऊंचाई पर खड़ा कर दिया जहां तक कोई नहीं पहुंचा. इस बेमिसाल फिल्म में उनका अभिनय भी बेमिसाल था.

 मधुबाला का वास्तविक नाम मुमताज जहां बेग़म था. मीना कुमारी की तरह वे भी बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में आयीं. इंदौर के कवि हरिकृष्ण प्रेमी ने उन्हें मधुबाला नाम दिया. मधुबाला जैसी सुंदर और कोई तारिका नहीं हुई. उन्हें हिंदी सिनेमा की वीनल, क्लासिक ब्यूटी न जाने क्या-क्या कहा जाता रहा. उनकी उपस्थिति से ही पर्दा दीप्त हो जाता था. उनकी मुस्कुराहट बेजोड़ थी, आंख उठाकर देखना भी वैसा ही दिलकश था. सब उनके जादू में गिरफ़्त थे. वे एक सहज अभिनेत्री थीं. उनका जीवन छोटा और दर्दभरा रहा. दिलीप कुमार से उनकी कऱीबी थी. जो 'तराना', 'अमर', 'संगदिल' में ख़ूब नजऱ आती है. 'तराना' का अनिल विश्वास के संगीत संयोजन में प्रेम धवन का लिखा और तलत-लता का गाया गीत 'नैन मिले नैन हुए बावरे' में उनका प्रेम देखते ही बनता है. इतना सहज जैसे वाकई दो प्रेमी गा रहे हों. 'नया दौर' में बीरआर चोपड़ा से मामला फंसा और दिलीप ने भी उनके खिलाफ कोर्ट में गवाही दी. यहां से दोनों के रास्ते अलग हुए. लेकिन 'मुगल-ए-आज़म' दोनों की बेहतरीन फिल्म है. वैसे भी इस फिल्म को कालजयी का दर्जा प्राप्त है. 'मोहे पनघट में नंदलाल छेड़ गयो रे' और 'प्यार किया तो डरना क्या' गानों के अलावा कई दृश्यों में उन्होंने कमाल किया है. मधुबाला ने अनेक फिल्में कीं. उनमें सभी तरह की फिल्में हैं, 'महल', 'चलती का नाम गाड़ी', 'काला पानी', 'शराबी', 'बरसात की रात' आदि. वे भूतो न भविष्यति कोटि की तारिका मानी गयी हैं. अंतत: उन्होंने किशोर कुमार से शादी की जिन्हें उनके पिता 'बनिया दामाद' कहते थे.

 दिलीप कुमार अगर ट्रेजडी किंग थे तो मीना कुमारी निस्संदेह ट्रेजडी क्वीन थीं. उनकी अनेक फिल्में दर्द से लिपटी हुई हैं. दिलचस्प बात यह है कि दिलीप कुमार के साथ की 'कोहेनूर', 'आज़ाद' जैसी फिल्मों में वे काफी खुशनुमा और दिलकश है. वे अपनी आंखों और आवाज़ अभिनय करती थीं. उनकी संवाद अदायगी अनूठी थी. 'साहिब बीबी और ग़ुलाम' की छोटी बहू का किरदार उनके असली जीवन की सच्चाई बन गया था. वे बहुत पीने लगी थीं. वे निरंतर सुख की तलाश में रहीं. 'बैजू बावरा' उनकी पहली सफल फिल्म थी जिसके लिए पहला फिल्म फ़ेयर अवार्ड उन्हें मिला. कमाल अमरोही से उन्होंने प्यार किया. वे एक-दूसरे के लिए मधु और चंदन थे. निकाह हुआ पर शादी चली नहीं. पत्रकार विनोद मेहता ने शायद मीना कुमारी नाम से ही शायद बहुत पहले किताब लिखी थी जो कुछ वर्ष पहले पुनप्र्रकाशित हुई. इसमें मीना कुमारी के नाम की जगह 'माई हिरोइन' लिखा हुआ है. मीना बेहतरीन अदाकारा थीं, और निहायत दर्दमंद इंसान थी. 'दायरा', 'परिणीता', 'चांदनी चौक', 'एक ही रास्ता', 'मिस मेरी', 'दिल अपना और प्रीत परायी', 'भाभी की चूडिय़ां', 'कैसे कहूं', 'मैं चुप रहूंगी', 'चार दिल चार राहें', 'बहू बेग़म', 'मेरे अपने' 'पाक़ीजा' आदि फिल्मों में काम किया. 'पाक़ीजा' के रिलीज़ के आसपास ही 40 बरस में उनकी मृत्यु हो गयी. गुलज़ार उनके करीबी रहे हैं और उनकी 'मेरे अपने' फिल्म में उन्होंने वृद्धा का रोल किया था. एक बार उन्होंने गुलज़ार से कहा था कि उन्होंने अपनी जवानी 'पाक़ीजा' को दे दी (यह कई सालों में बनी थी) और बुढ़ापा 'मेरे अपने' को. 'पाक़ीजा' से ज्यादा प्रिय उन्हें 'साहिब बीबी और ग़ुलाम' थी और वे कहती थीं कि सिफज़र्् मैं ही बहू हूं. वे कहती थीं कि वे प्यार से प्यार करती हैं. उनके जीवन के बारे में सोचते हुए उनकी ही फिल्म 'दिल अपना और प्रीत परायी' में गाये गीत की ये पंक्तियां याद आती हैं, 'ये रोशनी के साथ क्यूं धुआं उठा चिराग से/एक ख्वाब देखती हूं जैसे जग गयी हूं ख्वाब से.'

 नूतन एक सहज और उन्मुक्त अभिनेत्री रही हैं. कैसे भी किरदार को अपनी प्रतिभा से असाधारण और यादगार बना देने की सलाहियत और खूबी उसमें रही है. 'तेरे घर के सामने', 'दिल्ली का ठग', 'बारिश', 'पेइंग गेस्ट', 'अनाड़ी', 'छलिया' जैसी हल्की-फुल्की डफल्में हों या 'सुजाता', 'सीमा', 'बंदिनी' जैसी संजीदा फिल्में, नूतन हमेखा कामयाब रही हैं. ग्लैमर के बिना भी वे हमेशा अगली पंक्ति की अदाकारा रहीं. किसी फिल्म इंटरवल के पहले नायिका का विवाह हो जाये या हीरो से अलग किसी से वह शादी कर ले ऐसी फिल्मों तक से दर्शक बिदक जाते थे. शादी के बाद अभिनेत्रियां सफल नहीं होती थीं. इनमें अपवाद नूतन रहीं. शादी के बरसों बाद भी दर्शक उन्हें देखने चाव से टॉकीज पहुंचते रहे. उन्हें पांच बार फिल्म फ़ेयर अवार्ड मिले. उनकी मां शोभना समर्थ एक समर्थ अभिनेत्री थीं. नूतन अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में पहले नंबर आयी थीं. शोभना के मित्र मोतीलाल ने उन्हें पहली बार 'हमारी बेटी' में पेश किया था.

 किसी ने कहा है कि गीता बाली हमारे फिल्म लोक का छोटा किंतु शानदार तोहफा थीं. बात सही भी है. उनका निधन चेचक से युवावस्था में ही हो गया था. पर जितनी भी फिल्में उन्होंने कीं उनमें बेहद ताजग़ी थी. वे कोई बहुत बड़ी अभिनेत्री नहीं थीं न ही असाधारण रूपवती पर उनमें यह खूबी थी कि तारिकाओं की भीड़ में वे खोती नहीं थीं और अलग नजऱ आती थीं. 'बावरे नैन', 'जाल', 'फरार', 'पॉकेटमार', 'जेलर', 'बारादरी', 'रंगीन रातें', 'सुहागरात', 'बाज़ी' उनकी ये फिल्में उनके अनोखेपन की मिसाल है. देवआनंद के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी लेकिन भगवान दादा की फिल्म 'अलबेला' में वे अलबेली थीं. उनका विवाह शम्मी कपूर से हुआ था.

 वहीदा रहमान को सत्यजित रॉय 'इंटेलीजेंट ब्यूटी' कहते थे, वैसी ही जैसी सुचित्रा सेन, जो बिमल रॉय की 'देवदास' में पारो बनी थीं और बंगला फिल्मों की इस महानायिका ने वहां उत्तम कुमार के साथ ही 30 से ज्यादा फिल्में कीं और बंबई में 'देवदास' के अलावा 'बंबई का बाबू' 'ममता' और 'आंधी' में काम किया. वहीदा यहां उन्हीं की टक्कर की अभिनेत्री रही हैं. वे गुरुदत्त की खोज थीं और शुरुआत उन्होंने 'सीआईडी' में खलनायिका के किरदार से की थी. गुरुदत्त के दिलोदिमाग़ पर वे छा गयी थीं. उनकी 'कागज़ के फूल', 'प्यासा' और 'साहिब बीबी और ग़ुलाम' में वे थीं. वहीदा ने 'धरती', 'शतरंज', 'पहचान' जैसी साधारण फिल्में भी की हैं लेकिन उनके पास बहुत अच्छी फिल्में भी हैं. 'तीसरी कसम', 'ख़ामोशी', 'आदमी', 'सोलहवां साल', 'काला बाज़ार', 'राम और श्याम', 'दिल दिया ददज़् लिया', 'फाल्गुन', 'चौदहवीं का चांद' आदि. पर इन सबसे ऊपर है 'गाइड'. इसमें अपनी अभिनय और नृत्य कला का उन्होंने भरपूर प्रदर्शन किया. वहीदा की पर्दे पर उपस्थिति मन को प्रसन्न करने वाली होती थी. उनके व्यक्तित्व में शालीनता, उदात्तता के साथ घरेलूपन और सहजता हमेशा घुली-मिली रही.

 वैजयंतीमाला फिल्मों में 'बहार' के साथ आयीं. 1955 में वे 'देवदास' में दिलीप कुमार के साथ थीं. उन्हें इसके लिए सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर अवार्ड मिला था जो उन्होंने नहीं लिया क्योंकि वे मानती थीं कि उनकी भूमिका नायिका से कमतर नहीं थी. बिमल रॉय ने भी बाद में कहा कि इस फिल्म में दो नायिकायें थीं. दिलीप कुमार, जिनके साथ 'पैगाम', 'संघर्ष', 'लीडर', 'नया दौर' और 'गंगा जमुना' फिल्में उन्होंने कीं, उन्हें अनगढ़ हीरा मानते थे. उनका कहना था कि उसने अपने को मेहनत से तराश लिया है. वैसे 'संघर्ष' के दिनों में दोनों में अनबन थी और प्रेम दृश्यों के बाद दोनों अलग-अलग कोनों में दोनों चले जाते थे. 'नागिन', 'नई दिल्ली', 'आशा', 'एक झलक', 'नजऱाना', 'अमरदीप', 'संगम', 'आम्रपाली', 'ज्वेलथीफ' आदि फिल्मों में उनकी भूमिका ज़बर्दस्त थी. वे कुशल नृत्यांगना हैं और उनकी चाल में ही गज़ब लय रहती थी. अभी हाल ही में उन्होंने दिल्ली में भरतनाट्यम की प्रस्तुति की. इस समय वे अस्सी पार हैं.

 इस युग की तारिकाओं की फेहरिस्त लंबी है. उषा किरण हैं जिनके अभिनय के दिलीप कुमार कायल थे. शर्मिला टैगोर एक नयी बयार लेकर आयी थीं. पद्मिनी नृत्यांगना और कुशल अभिनेत्री थीं. 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए उन्हें फिल्म फ़ेयर अवार्ड मिला था. संध्या, नादिरा, जमुना, सरोजादेवी, बेग़म पारा, बीना राय, नलिनी जयवंत, श्यामा, शकीला, माला सिन्हा, आशा पारेश थीं जिन्होंने कई सौ फिल्मों में काम किया जिन पर बेहतरीन गाने फिल्माये गये. लड़कियों की फैशन को नया सलीका देने वाली साधना थीं जो निस्संदेह संजीदा अभिनेत्री थीं. सायरा बानो, निरुपा रॉय, अनिता गुहा, नादिरा, निम्मी, कुमकुम, लीला नायडू, नंदा, कल्पना, सिम्मी, तनूजा, इंद्राणी मुकर्जी जैसी अभिनेत्रियों का इस युग को स्वर्णकाल बनाने में कम योगदान नहीं था. फिर पांच सौ से ज्यादा नृत्य कर चुकीं हेलन, शशिकला, कुक्कू और टुनटुन यानी उमादेवी पूरे दौर में नुमायां होती रहीं. इसके अलावा भी याद करें तो  रागिनी, सईदा, लक्ष्मीछाया, राधा सलूजा, रेहाना सुल्तान, बेला बोस, मनोरमा, अमिता, साईदा ख़ान, विजया चौधरी, सोनिया साहनी भी याद आती है. और शीला रमानी की भी, जो नवकेतन की 'फंटूश' में देवआनंद की नायिका थीं पर उनकी अमिट याद 'टैक्सी ड्राइवर' फिल्म की है. इसमें वे क्लब डांसर है. उनके रूप और लावण्य का जादू अद्भुत था. एक तरह से उन्होंने कैबरे डांस का इस फिल्म से आगाज़ किया. उनका गाया एक गाना था, 'दिल जले तो जले, ग़म पले तो पले, किसी की न सुन, गाये जा' और एक और दिलकश गीत था, 'दिल से मिलाके दिल, प्यार कीजिए/कोई सुहाना इकऱार कीजिये.'

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