हब्बा कदल के पुल से गुजरते हुए

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हब्बा कदल के पुल से गुजरते हुए

अंबरीश कुमार 

हम फिर उसी पुल से लौट रहे थे जिससे गए थे .जो फोटो में देख रहे हैं यह उन सात पुलों में एक है जो श्रीनगर में झेलम पर बने हैं .पर हब्बा कदल का पुल अलग है जिससे पार कर मैं राजा के घर पहुंचा था . हब्बा कदल  लकड़ी का पुल है जो श्रीनगर के पुराने शहर में स्थित है.इसे 1551 में शाह मिरी राजवंश के सुल्तान हबीब शाह ने बनवाया था .अब झेलम पर यह चार पिलर पर खड़ा है और हर पिलर को मजबूती देने के लिए उसे अलग से कुछ लकड़ी की बल्ली ठोक कर सपोर्ट दिया गया है.हालांकि अब यह जर्जर दिखता है पर पुराना शहर तो इन्ही पुलों से गुजरता है.इसे देख लखनऊ के पुराने मंकी ब्रिज की याद आ जाती है जो घूमता हुआ अपने घर के पास खत्म होता था .बाद में तोड़ दिया गया . हम हब्बा कदल का पुल पार कर लाल चौक की तरफ बढ़ रहे थे .सड़क पर बर्फ की वजह से कई जगह कीचड़ भी हो गई थी.खासकर जहां जहां सड़क से बर्फ हटाकर किनारे पर जमा कर दी गई थी . 

दिसंबर में पहाड़ पर वैसे भी शाम जल्दी हो जाती है फिर अगर मौसम ख़राब हो तो दोपहर में ही शाम लगने लगती है.पर यहां तो सुबह से बर्फ रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.फिर भी हम निकले और लाल चौक पहुंचे.बर्फ और ठंढ के बावजूद बाजार में रौनक थी.उनके लिए तो यह कोई नई बात थी भी नहीं .हम काफी हाउस के भीतर पहुंचे तो गर्मी का अहसास हुआ.दरवाजे के परदे को देख रहे थे तो कपडे का नहीं रुई वाले गद्दे का था भारी सा.अंदर बड़े से फायर प्लेस में जलती हुई लकड़ियों की गर्मी तो थी ही काफी की सोंधी खुशबू के साथ सिगरेट का धुवां भी था.एक टेबल पर हम बैठे और ओवर कोट उतर दिया जो राजा ने अपने हब्बा कदल के घर पर दिया था.यह वह दौर था जब कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू नहीं हुआ था.राजनीतिक बहस खुल कर होती थी और लाल चौक का यह काफी हाउस इसके लिए मशहूर भी था.काफी के साथ चाय कहवा और ब्रेड पकौड़ा सब उपलब्ध था.पत्रकारों साहित्यकारों और राजनीतिक दलों के लोगों के बैठने का एक यही अड्डा भी था.तब पत्रकारिता से अपना कोई संबंध भी नहीं था इसलिए देखने का नजरिया भी एक आम सैलानी का ही था.

इससे पहले बताया था कि बर्फ वाली उस रात में जब हब्बा कदल की गलियों में भटकते हुए राजा के घर पहुंचा तो कुछ भीग भी चुका था.राजा ने देखा तो पहले पहचान ही नहीं पाया पर कुछ ही सेकंड में उसे सब याद आ गया.लकड़ी की सीढी से चढ़ कर हम ऊपर पहुंचे जहां आग से कमरा गर्म था और नीचे कालीन बिछी थी.उसने फ़ौरन एक तौलिया दिया ताकि गीले बाल पोछ डालूं ताकि ठंढ न लग जाए.एक मोटी शाल दी और कहवा का गर्म ग्लास पकड़ा दिया.दस पंद्रह मिनट में सामान्य हो गया तो उसके सारे सवालों का जवाब दिया .दरअसल आया था पठानकोट तक अपने मित्र के साथ उनके काम से .पर काम में देरी हुई तो दो दिन के लिए डलहौजी चले गए .लौटे तो पता चला अभी दो तीन दिन और रुकना पड़ेगा.मित्र को लखनऊ लौटना जरुरी था इसलिए मुझे रुकना पड़ा.तभी विचार आया कि क्यों न एक दिन के लिए कश्मीर चला जाये.और फिर जम्मू से बस पकड़ का आ ही गया.राजा ने कहा का चलो तुम्हारा सामान हाउस बोट से ले आते है.मैंने कहा ,कल तो लौटना ही है रहने दो पैसे भी दे ही दिए है.पर वह कहां मानने वाला.जिस आटो से गए उसी से सामान लेकर लौट आए.ऊपर मुझे एक अलग कमरा दिया गया.दो रजाई और दो कांगड़ी वाला.बताया गया की रजाई के भीतर कांगड़ी रख कर बिस्तर को गर्म करना पड़ेगा.अपने समझ में यह सब नहीं आया.खैर खाना के लिए बुलावा आया.दूसरी मंजिल पर ड्राइंग रूम में दस्तरखान लगा था.नीचे बैठ कर खाना था.चावल ,आलू दम और रोगन जोश आदि सब था.खाना खाते खाते अचानक लगा घर हिल रहा है .मै घबडा कर उठा तो राजा के नाना जी ने इशारा कर बैठने को कहा.पता चला भूकंप आया था सब लोग कश्मीरी में कुछ बुदबुदा रहे थे.बाद में पता चला वे प्रार्थना कर रहे थे.भूकंप शांत हो चुका था पर अपने मन में एक डर समां चुका था.भूकंप श्रीनगर वालों के लिए कोई नई बात नहीं थी.वहां लकड़ी के घर बनाए भी इसीलिए जाते थे.

बर्फीली ठंढ में भी कश्मीर के लोग घर गर्म रखने का पूरा उपाय रखते हैं.पानी की वह टंकी बाथरूम में भी थी जिसमें बीच में लकड़ी जलती रहती और गर्म पानी मिलता रहता .खैर राजा को बताया कि सुबह बस पकड़ कर निकल जाउंगा.बिस्तर कांगड़ी से गम्र हो चुका   दिन भर की दौड़ धूप से थके हुए थे इसलिए नींद कब आ गई पता ही नहीं चला.सुबह राजा ने उठाया और कहा जल्दी से तैयार हो जाओ बस अड्डे चलना है .आटो आने वाला है.चाय पीकर हम जब बाहर निकले तो अंधेरा था पर छह तो बजने वाले थे.कुछ देर में बस अड्डे पहुंच गए.बस का पता किया.बताया गया बानिहाल के पास बहुत ज्यादा बर्फ गिरने की वजह से रास्ता बंद हो गया है और दो चार दिन तक खुलने की कोई संभावना भी नहीं है .अब चिंता होने लगी.घर पर तब फोन भी नहीं था.डाक भी दस बारह दिन से पहले नहीं पहुंचती.पर राजा ने कहा ,चिंता की क्या बात है घर पर हो .अब श्रीनगर ठीक से घूम लो .मै जब दफ्तर निकलूंगा तो निशात बाग़ की तरफ छोड़ दूंगा ,घूम कर दूरदर्शन केंद्र आ जाना .और अब यह दिनचर्या रोज की ही बन गई .फोटो साभार masrat zahra                                                

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