दो हस्तियां, साम्य भी, जुदा भी !

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दो हस्तियां, साम्य भी, जुदा भी !

के विक्रम राव

पिछले हफ्ते बंबइया फिल्मी फलक के दो सितारों का जन्मोत्सव था. फासला बस तीन दिन का रहा. इन दोनों अभिनेताओं की दमक, रौनक और हनक देश में चर्चित रही. अभी भी है. एक का नाम है रणवीरराज कपूर उर्फ राज (14 दिसम्बर 1924) और दूसरे मोहम्मद युसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार (11 दिसम्बर 1922). कम उम्र वाला पहले गुजर गया, 63 वर्ष का था. दूसरा है, 98 साल का. शायद शतक लगा दे. उसकी गंगा जमुना यादगार है, दूसरे ने ''जिस देश में गंगा बहती है'' बनाया था. इन दोनों फिल्मी सितारों की जोड़ी, दशकों बीत जाये, भुलाये नहीं भूलेंगी. जुगलबंदी जैसी है. उनकी हर फिल्म को एक साथ देखने वाली भी एक जोड़ी रही. अटल और आडवाणी की. इन राजनेताओं पर तो गत माह प्रकाशक रुपा ने लेखक सीतापति की किताब 'जुगलबंदी'' छापी थी. संकेत जरुर इसमें मिलता है कि 93 वर्षीय लालचन्द किशनचन्द आडवाणी को अन्तत: एहसास हो ही गया था कि सब्र का फल कडुवा होता है.

दिलीप कुमार और राज कपूर में प्रतिस्पर्धा थी, पर वे प्रतिपक्षी नहीं रहे. बल्कि दोनों में साम्य अद्भुत है. दोनों सीमांत प्रांत के पेशावर नगर के किस्सा ख्वाना मोहल्ले के थे. जो अब पाकिस्तान में है. हालांकि पिछले महीने पाकिस्तान पुरातत्व निदेशालय उनके पुरखों के भवनों को राष्ट्रीय महत्व का मानकर विरासत के रुप में संजोनेवाला है. दोनों के पिता और पितामह परस्पर मित्र थे. एक ही समय में वे मुम्बई आये. रजत पट पर प्रवेश भी लगभग एक ही दौर में हुआ. मगर अभिव्यक्ति का दायरा अलग था. दिलीप कुमार त्रासदी के नायक रहे. राज कपूर शुद्ध रोमांस और हर्ष के पात्र रहे.

            राज की एक विलक्षणता थी. वे स्टूडियों के लघुतम किरदार (क्लैपर बॉय) से शुरु कर निदेशक, हीरो, लेखक आदि तक की भूमिका में रहे. अर्थात स्टूडियो का कोई भी काम उनके लिये छोटा अथवा हेय नहीं था. उनकी नायिकायें कई रहीं. निम्मी से लेकर नरगिस तक. राज कपूर की फिल्म ''आवारा'' ने समतामूलक संदेश देकर सोवियत रुस और पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देशों में अपार लोकप्रियता पायी थी. हालांकि इसके गीत ''आवारा हूं'', की धुन में मिस्र राष्ट्र की मशहूर फिल्मी गायिका अम्म कुलसुम 1920 में एक अरबी फिल्म में गा चुकीं थीं. चीन के जनवादी गणराज्य के संस्थापक माओ जेडोंग ने तो कहा भी था कि आम आदमी की हृतंत्री को स्पर्श करने वाले इस गीत ने उनके कम्युनिस्ट दिल को निनादित कर दिया था.

              हालांकि राज कपूर ने और भी कई उम्दा फिल्में बनाई और अभिनय भी किया, मगर मुझे उनकी फिल्म ''शारदा'' यादगार लगी. इसमें द्वंद्व भाव की अभिव्यक्ति ने राज कपूर को बहुत ऊंचाई तक पहुंचाया. एक दृश्य है जिसमें उनकी प्रियतमा (मीना कुमारी) को परिस्थितियां विवश कर देती हैं. उन्हें हीरो के पिता की पत्नी बनना पड़ता है. उस क्षण राज कपूर को अपनी प्रेयसी मीना कुमारी को ''मां'' कह कर संबोधित करना पड़ा. तब डायलाग, चेहरे पर त्रासदपूर्ण भाव और वाणी में आर्द्रता लाने में राज कपूर ने गजब ढा दिया. उसे विस्मृत करना मुमकिन नहीं है.

            उनके द्वारा निर्देशित तथा पुत्र रिशि कपूर द्वारा अभिनीत ''बॉबी'' का राजनीतिक इतिहास है. आपात्काल के दौर में दिल्ली में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जनसभा को भंग करने हेतु दूरदर्शन पर ''बॉबी'' फिल्म दिखाई गयी थी. वाह रे भारतीय जन! वे सब फिर भी रामलीला मैदान पर राजनेताओं द्वारा इन्दिरा शासन की भर्त्सना सुनने जमा हो गये. इतिहास में क्रूर शासक के विरोध में इतना विशाल जनाक्रोश कभी नहीं दिखा. नतीजन प्रधानमंत्री रायबरेली से चुनाव हार गयीं थीं.

        ''बॉबी'' की तुलना आजादी के तुरंत बाद दिलीप कुमार की फिल्म ''शहीद'' से नहीं की जा सकती है क्योंकि वह युवा प्रेम पर आधारित थी. जबकि दिलीप कुमार की देश प्रेम पर. उसे देखने भी अपार भीड़ सिनेमा हालों में उमड़ पड़ी थी. इस फिल्म में दिलीप कुमार की फिल्मी शवयात्रा के दृश्य पर न जाने कितने असीम आंसू थ्येटर में बहे होंगे.

दिलीप कुमार के संदर्भ में एक निजी प्रसंग भी है. उन दिनों मैं मुम्बई में टाइम्स प्रकाशन ''फिल्मफेयर''में प्रशिक्षु था. संपादक थे बी.के. करंजिया, जिनके अग्रज आरके साप्ताहिक ''ब्लिट्ज'' के संपादक थे. मेरे गुरु थे मोहम्मद शमीम. वे अमीनाबाद (लखनऊ) के वासी थे. फिल्मफेयर के चीफ रिपोर्टर थे. बाद में दिल्ली ''टाइम्स आफ इण्डिया'' में विशेष संवाददाता रहे. उस महीने बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि से कई परिवार—नियोजन के डाक्टरों का समूह मुम्बई एक सेमिनार में आया था. मुझे लखनऊ के एक परिचित डाक्टर ने संदेशा भेजा कि वे सब दिलीप कुमार को देखना चाहते हैं. मैंने यह इल्तिजा मोहम्मद शमीम से कर दी. सबको एआर कारदार स्टूडियो आने को कहा. वहां ''दिल दिया, दर्द लिया'' फिल्म की शूटिंग चल रही थी. पता चला दिलीप कुमार का शॉट नहीं था. अत: वे उस दिन स्टूडियो नहीं आये. फिर शमीम के कहने पर सब दिलीप कुमार के पालीहिल वाले बंगले पहुंचे. वे आराम फरमा रहे थे. तुरंत उठकर नीचे बगीचे में आये. डाक्टरों को संदेश दिया, '' परिवार नियोजन मेरे स्टाइल में हो. मैंने शादी ही नहीं की.'' सब हंस दिये, हालांकि बाद में 44 वर्ष की आयु में इस हीरो ने 22 वर्षीया सायरा बानो से निकाह रचाया. लखनऊ के एक मनचले ने तब  नसीम बानो को खत लिखा कि ''हम जवानों की लाइन लगी थी. मगर आप ने एक अधेड़ को दामाद बना लिया!'' हालांकि फिल्म ''जंगली'' में नवोदित सायरा बानो के दीदार पर एक दिलफेंक लखनवी ने लिखा, ''बेगम नसीम बानो, आज तुम्हारी कमी पूरी हो गई.'' 

दिलीप कुमार के साथ एक वाकया भी गुजरा. उन्हें पाकिस्तान सरकार द्वारा निशाने इम्तियाज की उपाधि से नवाजा गया था. जनरल मुशर्रफ द्वारा कारगिल पर अचानक आक्रमण करने पर देश भर में मांग उठी कि वे इसे पाकिस्तान को लौटा दें. दिलीप कुमार ने उत्तर दिया था कि: ''मैं प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राय लूंगा.'' तब अटलजी ने कहा, उनसे कोई वास्ता नहीं है. जब पाकिस्तान सरकार से स्वीकारते समय उनसे नहीं पूछा था, तो अब लौटाते वक्त राय लेने का क्या तुक है?इतने दशक बीत गये फिर भी चाहनेवाले  राज कपूर और दिलीप कुमार को भूलेंगे नहीं. चमन में ऐसे फूल बमुश्किल खिलते हैं।


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