हरि मृदुल
दस साल बीत चुके हैं, महान अभिनेता दिलीप कुमार से एक दिलचस्प बातचीत संभव हुयी थी. वह कैसेट और टेप रिकांर्डर का जमाना था. वह कैसेट सुरक्षित रखा गया था. उसी में से ये दिलचस्प सवाल-जवाब लिये गये हैं.
० आप इत्तफाक से ही एक्टर बने. आपने कभी एक्टर बनने की नहीं सोची थी, लेकिन दर्शक के तौर पर तो आप फिल्मों में जरूर दिलचस्पी रखते रहे होंगे?
-हां, मैं फिल्में जरूर देखता था. लेकिन ये अंग्रेजी फिल्में होती थीं. हिंदी फिल्मों में जब मुझे काम करने का मौका मिला, तब मैंने कुछ ही हिंदी फिल्में देखी थीं. तब मैं अंग्रेजी फिल्मों का दीवाना था. जब मैंने हिंदी फिल्मों का एक्टर बनने का निर्णय ले लिया तो मैं परेशान था कि जिस काम को जानता नहीं हूं, उस काम को कैसे करूंगा. लेकिन तब बांबे टाकीज की देविका रानी ने मुझ से कहा कि जिस तरह तुम फल बेचना सीख रहे हो, उसी तरह एक्टिग भी सीख जाओगे. मैंने देविका की यह बात गांठ-बांध कर रख ली थी.
० उस जमाने में आप किन एक्टरों के काम से प्रभावित थे?
-हॉलीवुड सिनेमा में मैं पॉल मीनी और स्पेंसर ट्रेसी को पसंद करता था. फ्रेंच सिनेमा में मेरे फेवरेट डेनियल डैरे, जेम्स स्टुअर्ट थे. बर्गमैन की फिल्में देखी थीं. हिंदी फिल्मों में मैं अशोक कुमार का फैन था.
० आपके सामने समांतर सिनेमा पैदा हुआ. एक से एक बेहतरीन फिल्में बनीं, लेकिन यह सिनमा सर्वाइव नहीं कर पाया. आप जानते थे कि यह सिनेमा दम तोड़ देगा, इसलिए आपने ऐसी फिल्में नहीं कीं?
-मुझे ‘गरम हवा’ जैसी कई पैरलल फिल्में पसंद हैं और मैं इनमें काम करना भी चाहता था. लेकिन मुझे कोई अच्छा ऑफर नहीं मिला. एक बार सत्यजीत राय से भी बात चली थी. लेकिन कुछ हुआ नहीं. परंतु एक बात बता हूं कि इस तरह के सिनेमा की जो मुझे कहानियां सुनायी गयी, वे बेहद कमजोर थीं. मुझे बड़े दर्शक वर्ग को प्रभावित करनेवाली स्क्रिप्ट ही पसंद आती थी. पेरलल सिनेमा का दर्शक वर्ग सीमित था. इसी वजह से यह आंदोलन दम तोड़ गया.
० अपने समय में आप फिल्में छोडऩे के लिये कुख्यात रहे हैं. सुनते हैं कि आपने ‘प्यासा’ और ‘बैजू बावरा’ जैसी फिल्में ठुकरा दी थीं. इतना ही नहीं, हांलीवुड के मेकर डेविड लीन की फिल्म ‘लॉरेंस ऑफ अरबिया’ में भी आपने काम करने से इनकार कर दिया था?
-‘प्यासा’ और ‘देवदास’ में बड़ी बारीक समानताएं थीं और मैं देवदास कर रहा था. इसी तरह बैजू बावरा में भी कई दिक्कतें थीं. लॉरेस ऑफ अरबिया’ में परेशानी की बात यह थी कि इसमें केंद्रीय किरदार कमजोर था.
० सायरा जी के साथ आपने दुनिया, छोटी बहू, वैराग, गोपी और सगीना जैसी फिल्मों में काम किया. उनके व्यक्तित्व में आपको सबसे आकर्षक क्या लगता था?
-उनकी हंसी बहुत आकर्षित करती थी और आज भी करती है.
० आपको पेशावर कितना याद आता है?
-बहुत ज्यादा याद आता है. उम्र बढऩे के साथ यह सिलसिला बढ़ चुका है. मुझे अपनी नानी याद आती है. बचपन याद आता है. अपना फुटबांल खेलना याद आता है.
० आपको कई एक्टरों ने आदर्श माना. अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के अभिनय पर आपकी छाया साफ दिखायी देती है, आप क्या कहते हैं?
-छाया दिखना कोई बुरी बात नहीं है. छाया के बावजूद ओरिजनल बना जा सकता है. अमिताभ ने यह कर दिखाया. वे जेंटलमैन हैं। उनमें एक डिस्पलिन है. वे बहुत मेहनती भी हैं और प्रतिभाशाली भी हैं. शाहरुख तो मेरी तरह ही पठान है. मैं उसकी एनर्जी का कायल हूं. वह बहुत प्यार करनेवाला बंदा है. उसमें भी टेलेंट काफी है.
० आज के एक्टर पढ़ते नहीं हैं, जब कि आपका कहना है कि अच्छा एक्टर बिना पढ़ाई के बन ही नहीं सकता है?
-हां, आज के एक्टर कहते हैं कि लिटरेचर में क्या रखा है. मेरा कहना है कि लिटरेचर आपकी संवेदनाओं को जिंदा रखने का काम करता है. मशीनों से हमने इसकदर दोस्ती की है कि हम भी मशीन हो चुके हैं. मैं अपनी बात करूं, तो मैंने मीर, गालिब, टैगोर, इकबाल, जोश, प्रेमचंद, शरतचंद और मंटो जैसे राइटर्स को खूब बढ़ा. लेकिन आज के बहुत कम एक्टर लिटरेचर पढ़ते हैं. यह दौर काफी फास्ट है. लेकिन विचार करना चाहिये कि यह तेज दौड़ क्या इंसान को कहीं ले जो में सफल होगी.
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