इनसे मिलो ये हैं मंगलेश डबराल !

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

इनसे मिलो ये हैं मंगलेश डबराल !

चंचल 

नौ दिसम्बर को दो साहित्यकार हमसे विदा लेते है . पहले त्रिलोचन जी 2007 मे , फिर तेरह साल बाद 2020 को भाई मंलेश डबराल .  दोनो ही अपने विचार से , अपने उद्गार से और अपनी  ' सहज '  भाषा  में अपनी जमीन से जुड़े खड़े मिलते हैं . जिसे '  अपनी मिट्टी का मोह  '  कहते हैं . एक गांव  से है  और दूसरा पहाड़ से . सादगी और बेबाकी दोनो ही सोंधी महक देता है . त्रिलोचन कहते हैं -  'उस जनपद का कवि  हूँ '  और अपनी शख्सियत का बखान अपने जनपद में लपेट कर सामने  खड़े हो जाते हैं . तन कर .  भाई मंगलेश डबराल अपनी बेबसी के साथ अपना मोह उठाते हैं - 

     ' मैंने शहर को देखा , 

       और मुस्कुराया 

       वहां कोई कैसे रह सकता है , 

       यह जानने मैं गया , 

       और वापस न आया . ' 

  दोनो रचनाकार कलम करुणा के साथ उठाते हैं , चौंकाते नही , सहज और सरल मन से बगल  बैठ कर , बना घुमाते है और आपको अपने सात्ज अपनी जमीन पर चले पैरों के निशान दिखाते है . यह साहित्यकार जाने , हम अनावश्यक  अतिक्रमण  नही करेंगे . कर भी नही सकता . लेकिन दोनो से अलग अलग का रिश्ता रहा है , उस बहाने से हम याद कर रहे हैं . 

    त्रिलोचन जी पर लिख  चुका हूं , कई जगह , कई नामी  कागदों से छापा और सराहा . क्यों कि हमने उनके व्यक्तिगत जीवन के अन्य कहे हिस्से को उठाया  है . यहां भाई   मंगलेश डबराल से अपने मुलाकाती हिस्से को आपके सामने रखना चाहता हूं . 

  सत्तर बहत्तर की बात होगी या उससे भी पहले की  . जॉर्ज ( फ़र्नान्डिस ) '  प्रतिपक्ष ' साप्ताहिक निकाल रहे थे , हौज खास इसका दफ्तर था . वहाँ जार्ज ने मंगलेश जी से  मिलवाया . इस दफ़्तरौर इसके संपादक जार्ज फ़र्नान्डिस ने अनगिनत लोंगो से मिलने और समझने का मौका दिया . भाई रमेश थानवी , स्नेहलता रेड्डी , कमलेश जी , वगैरह . और ये रिश्ते बने रहे . 

   000

 मंगलेश जी  पहाड़ से थे . 

      अरसे बाद हम दिनमान पहुंचे थे , बतौर ट्रेनी .  नेत्र सिंह रावत से हमारी खूब पटती थी . साहित्य , पत्रकारिता ,  कला , विचार , भाषा , ये सारी जिवनोपयोगी  सहूलियतें और सलीका एक जगह देखने को मिला . ' दिनमान ' हनक ऐसी की बड़े बड़े पत्रकार उसे पढ़ने के लिए लालायित रहते थे . एक से बढ़ एक . रघुवीर सहाय .  बोलने में कंजूस ,  लिखत में   चोख नुकीले हमले . सर्वेश्वर जी ,  श्यामलाल शर्मा , प्रयाग शुक्ल ,  भाई त्रिलोक दीप , जवाहर लाल कौल , विनोद भारद्वाज ,  शुक्ला रुद्र ,  नेत्र सिंह रावत , सुषमा परासर , कहने का मतलब यह कहीं से भी दफ्तर नही लगता था . जब मर्जी तब आ रहे हैं . ठहाकों का दौर . इतना खिला और खुला माहौल हमने फिर  नही देखा . सबसे मजेदार ' इंट्री '  होती थी , नेत्र सिंह रावत की . दोनो हाथ पैंट की जेब मे डाले ऐसे टहलते हुए आते थे जैसे सुबह की सैर पर हैं . हमारी नेत्र सिंह से खूब पटती थी . दिनमान में वे फ़िल्म पर लिखते थे , उप संपादक थे . हमने जितनी विदेशी फिल्में उनकी सोहबत में रहते हुए देखी , फिर कभी नही . नेत्र सिंह रावत ने आते ही हमे बुलाया - 

  - चंचल ! इनसे मिलो ये हैं मंगलेश डबराल . 

  - मिल चुका हूं . जार्ज के प्रतिपक्ष में . 

मंगलेश जी  भूल चुके थे . हमें गौर से देखा और मुस्कुराहट के साथ हमारा हाथ थाम लिए . हायह की वह तपिश , अपनापन अब तक जस का तस बना हुआ है कि कि दिल्ली में रहते हुए बार बार ' रिन्यूवल '  होता रहा . 

-----------------------------------------------------

  असकत 

 एक दिन दिल्ली का हो गया . 82 की बात है . टाइम्स हाउस में मुलाजमत करने लगा . दिनमान तो था ही , अलग अलग नाम से सारिका में लिख रहा था . तब तक दिनमान से बाहर  के  लोंगो से भी परिचय हो गया था . एक दिन पता चला कि शानी जी  ( हिंदी के मशहूर और मकबूल लेखक गुल शेर खां शानी जी ) भी मयूर विहार आ रहे हैं , रहने के लिए . चलो एक 'आमदनी ' और हुई . अल सुबह की चाय कहाँ जो जाय कुछ तय नही रहता था . क्यों कि उस समय तक  'सारे दुखिया  जमुना पार ' 

 ( यह शानी जी की ही टिप्पणी थी जो सारिका में छःपी थी . एक सुबह शानी जी ने जोर का ठहाका लगाया - यार चंचल ! तुमने तो कमाल कर दिया कल तुम्हे  सारिका में पढ़ रहा था , तुमने एक शब्द हमारे जगदलपुर का उठा लिया है . मजा आ गया . 

  - कौन सा शब्द ? 

   - असकत . यह हमारे बस्तर का शब्द है , भोजपुरी और अवध में कैसे पहुंच गया  ? तुम्हे बोलना है इस विषय पर . हम ' समझ ' गए .  आप  नही समझे होंगे . 

मयूर बिंहार में  शानी जी की शाम बगैर  महफ़िल के  नही गुजरती थी . ये विषय वगैरह सब बहाने होते . और शाम गाढ़ी होने लगी . भाई प्रयाग  शुक्ल , गिरधर राठी , विष्णु खरे ,  भाभी चित्रा मुद्गल , अवधनारायण मुद्गल  और मंगलेश डबराल . उस रात मंगलेश डबराल ने जिस सुर और ताल में शास्त्रीय टुकड़े के साथ गाना गाया वह यादगार शाम रही . 

- एक बात बताओ भाई मंगलेश !  हमारे बस्तर का एक शब्द है अस्कत . यह आपके यहाँ भी है ? 

 - है , न बोलचाल में खूब है 

- प्रयाग जी ने तस्दीक किया यह बंगाल तक मे है . 

- विष्णु खरे जी ने अपनी आवाज में कहा भाषा  

 उड़ती है , हवा के साथ ,  पराग की तरह , जहां जहां विश्राम कर ले .  जब  तक दिल्ली रहा और  जमुनापार रहा तीसरे या चौथे दिन महफ़िल जमती . अब का पता नही , महेश दर्पण ने बताया अब न मुसल्ला है , न  ही नमाज . सब उजाड़ हो गया है .

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :