आलोक कुमार
भागलपुर.पुलिस अपराधियों को पकड़ने के बाद उनके आंख फोड़ देती थी.इसके बाद उनके चेहरे पर तेजाब डाल दिया जाता.इसकी शुरुआत 1979 में नवगछिया थाने से हुई थी.इसके बाद सबौर, बरारी, रजौन, नाथनगर, कहलगांव आदि थाना क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें आईं. बाद में दूसरे थानों में भी ऐसा किया जाने लगा.पुलिस अपराधियों को पकड़ने के बाद उनके आंख फोड़ देती.इसके बाद उनके चेहरे पर तेजाब डाल दिया जाता.और ये सिलसिला करीब साल भर तक चला. इस दौरान वीडी राम ही भागलपुर के एसपी हुआ करते थे.हालांकि दोषी पुलिसकर्मियों का नाम सामने आया, कोर्ट में उनकी हाज़री हुई लेकिन आगे क्या कार्यवाई हुई ये कभी सामने नहीं आया. तत्कालीन भागलपुर एस.पी बी. डी. राम अब रिटायर होकर राजनीति में उतर चुके हैं. 33 में से 13 पीड़ितों की मृत्यु इलाज के अभाव में उसी समय हो गई थी. जीवित पीड़ितों को सरकार महीने के 750 रुपये भत्ता देती है.
बिहार के भागलपुर जिले में अपराध अपने चरम पर था. अपहरण, लूट, हत्या बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों के लिए अपराधियों को रात के अंधेरे का इंतज़ार नहीं होता था, सब कुछ सरेआम हो रहा था.पुलिस प्रशासन की हालत बिना दांत-नाखून वाले शेर की थी, वो अपराधियों को पकड़ लेने में कामयाब भी हो जाते, तो सबूत जुटाने में नाकाम हो जाते. पूरे इलाके में किसी में हिम्मत नहीं होती कि वो बाहुबलियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा दे.
अपराध पर काबू पाने के लिए पुलिस ने ऐसा कदम उठाया जिसका दूसरा उदाहरण ढूंढने पर नहीं मिलता. गुप्त रूप से ऑपरेशन का नाम रखा गया 'गंगाजल'.एक रात भागलपुर के नवगछिया थाने में मौजूद सभी नामज़द अपराधियों के आंखों को सुआ(मोटा सूई) से फोड़ कर उसमें तेज़ाब भर दिया गया. भागलपूर के अन्य थानों में भी ऐसी ही घटनाए हुईं.बताया जाता है कि 1979 से 1980 के बीच पुलिस ने छंटे बदमाश बता पकड़-पकड़ कर 33 लोगों की आंखे फोड़ दी थी। अंखफोड़वा कांड के जिंदा बचे पीडि़तों में उमेश यादव,भोला चौधरी, पटेल साह, मंटू हरि, पवन कुमार सिंह, सहदेव दास, शंकर तांती, शैलेश तांती, वसीम मियां, चमक लाल यादव, सल्लो बेलदार, कमल तांती, लखन मंडल, सुरेश साह, शालीग्राम साह, रमण बिंद और उमेश यादव शामिल हैं.
इस पुलिसिया रवैये से अचानक से भागलपुर के अपराध का ग्राफ़ गिर गया, शहर में शांति व्यवस्था कायम हो गई. लड़कियां ख़ुद को सुरक्षित महसूस करने लगीं थीं. ध्यान रहे, ये घटना तबतक मीडिया की नज़र में नहीं आई थी और जब मीडिया में ख़बर बनी तो इसे 'अंखफोड़वा कांड' नाम दिया गया.
मामला पटना से लेकर दिल्ली तक उछला लेकिन पुलिस के हाथ नहीं रुके. उस दौरान दिन भर अलग अलग थानों की पुलिस अपराधियों को पकड़ती, रात को उनकी आंखें फोड़ दी जाती फिर तेजाब डालकर अंधा कर दिया जाता.इस तरह की जानकारी सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति को कुछ अंधे कैदियों ने दी थी.बाद में कोर्ट के आदेश पर कई पुलिस वाले सस्पेंड हुए, बड़े अफसरों का तबादला हुआ. इसके बाद वीडी राम की पहचान अंखफोड़वा एसपी के तौर पर होने लगी. बेतिया और मुजफ्फरपुर जैसे शहर में तब अपराधियों का बोलबाला हुआ करता था लेकिन वीडी राम के आने से सब तड़ीपार हो गये थे.
पुलिस की बर्बरता के काले अध्याय के रूप में चर्चित भागलपुर अंखफोड़वा कांड के पीडि़तों के लिए 40 साल बाद भी पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हुई है. घटना को याद कर आज भी लोग सिहर जाते हैं. न्याय के लिए पीडि़तों ने सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय में ऑनलाइन अर्जी दाखिल की है.1980 से उनकी लड़ाई नि:शुल्क लड़ रहे वरीय अधिवक्ता रामकुमार मिश्रा ने उनकी तरफ से अर्जी दी है.अर्जी में उन्होंने पीडि़तों के पुनर्वास की दिशा में सरकार की उदासीनता की जानकारी दी है.इसके लिए पूर्व में उन्होंने जिलाधिकारी को पत्र दे पीडि़तों को मिलने वाली पेंशन की राशि नवंबर 2019 से बंद कर दिये जाने का भी हवाला दिया था. सर्वोच्च न्यायालय में दी अर्जी में पीडि़तों के पुनर्वास और पेंशन के लिए पूर्व की तरह न्याय दिलाने का अनुरोध किया है.
वर्तमान में 750 रुपये पेंशन राशि पीडि़तों को दी जा रही है.यह राशि तब न्यायालय के आदेश पर जमा कराई गई एक-एक पीडि़तों के लिए 30-30 हजार रुपये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में जमा कराए गए थे. उस राशि के ब्याज के रूप में प्रति माह प्रत्येक पीडि़त को 750 रुपये बतौर पेंशन दिया जा रहा था. जो नवंबर 2019 में बंद हो गया.अंखफोड़वा कांड में 15 पुलिस पदाधिकारियों को आरोपित बनाया गया था। अधिवक्ता रामकुमार मिश्रा की माने तो14 आरोपितों ने गिरफ्तारी आदेश जारी होने पर अदालत में आत्मसमर्पण किया था, जिन्हें अदालत से बाद में सजा मिली थी.
1980-81 के अंखफोड़वा कांड में कुछ महीनों में 33 संदिग्ध अपराधियों की आंखों में तेजाब डाल दिया गया था. इस कांड की वजह से सरकार की काफी आलोचना भी हुई थी. बाद में इसी मुद्दे पर फिल्मकार प्रकाश झा ने गंगाजल मूवी बनाई थी.इस मामले के तूल पकड़ने के बाद एक जांच समिति भी बनाई गई. समिति ने तीन दर्जन लोगों की आंखों में तेजाब डालने की पुष्टि की.
जुलाई 1980 में पीडि़त के अधिवक्ता एक जमानत अर्जी में बहस के लिए अवर मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की न्यायालय में बैठे थे. तभी उनके सामने न्यायालय में लखन मंडल और अनिल यादव को रिमांड के लिए लाया गया था. उनकी आंखों से ताजा रक्त टपक रहा था.आंखों में छिद्र था. उन्होंने पुलिस पर मुकदमा चलने की अनुमति मांगी पर तब अनुमति नहीं मिली थी. पीडि़त के अधिवक्ता ने 25 सितंबर 1980 को सर्वोच्च न्यायालय में वरीय अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी को इस संबंध में पत्र भेजा था.उन्होंने पत्र को सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति के समक्ष रखा था. उन्होंने उस पत्र को याचिका मान लिया था.
सर्वोच्च न्यायालय ने तथ्य की सत्यता जांचने के लिए रजिस्ट्रार जनरल से जांच कराया और तथ्य को सही पाकर बिहार सरकार को तब नोटिस किया था. उसके बाद मामला खत्री बनाम बिहार सरकार और और अनिल यादव बनाम राज्य का मुकदमा है. उक्त मुकदमे में तमाम घटनाक्रम का उल्लेख है. सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर ही सारे पीडि़तों का उपचार हुआ, उन्हें मुआवजा दिया गया. उनके पुनर्वास का आदेश भी दिया गया. आज तक पीडि़तों के पुनर्वास के लिए कुछ नहीं किया गया. 40 साल पहले 750 रुपये प्रति माह के मुआवजे राशि में कोई बढ़ोतरी तक नहीं की गई.
जब मामला मीडिया में छाया तब एक तरफ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव आयोग संस्थाओं ने इसकी पुरज़ोर भर्तस्ना की, दूसरी ओर भागलपुर की स्थानीय जनता पुलिस के साथ खड़ी हो गई. जब दिल्ली से जांच करने वाली टीम भागलपुर पहुंची, तो पूरे शहर में विरोध प्रदर्षण हुआ, सड़कें जाम कर दी गई.
'अंखफोड़वा कांड' की कहानी यहीं नहीं ख़त्म होती. भागलपूर में इसकी वजह से एक ट्रेंड बन गया है, जो बदसतूर अब भी छुट-पुट तरीके से सुनने में आ जाता है. ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें आपसी रंजिश और लड़ाई की वजह से आंख फोड़ कर उसमें तेज़ाब डाल दिया गया.
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