देशबंधु और ललित सुरजन !

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देशबंधु और ललित सुरजन !

बात 2002-03 की है. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से जनसत्ता का स्थानीय संस्करण प्रकाशित होता था. वरिष्ठ पत्रकार और स्टेट्समैन अवार्ड विजेता राजनारायण मिश्र  उसमें एक कॉलम लिखते थे. एक बार कुछ लोग उनके कॉलम से आहत हो गये और उन पर हमला करते हुए जनसत्ता दफ्तर में हंगामा कर दिया. तमाम वरिष्ठ साथी रायपुर प्रेस क्लब में एकत्रित हुए. देशबंधु के प्रधान संपादक ललित सुरजन ने इसके खिलाफ अभियान छेडऩे की बात कही. बस फिर क्या था, हमले और हंगामे के खिलाफ यह विरोध पूरे राज्य में फैल गया. उस वक्त राजनारायण मिश्र जनसत्ता में थे लेकिन स्टेट्समैन अवार्ड उन्हें सन 1979 में देशबंधु में रहते मिला था. यह बात पत्रकारों और पत्रकारिता को लेकर ललित सुरजन की संवेदना की सूचक है. 

वह ऐसे संपादक हैं जिनकी साहित्यिक रचना पहले छपी और पत्रकारिता बाद में शुरू की. आज भी वह छत्तीसगढ़ के सबसे ज्यादा अध्यावसायी संपादकों में आते हैं. इस उम्र में भी वह अखबार के लिए नियमित रूप से साप्ताहिक कॉलम लिखते हैं.

देशबंधु की स्थापना भले ही उनके पिता मायाराम सुरजन ने पहले नई दुनिया बाद में देशबंधु के रुप में की लेकिन अखबार का स्वर्णिम युग तब आया जब उनके बेटे ललित सुरजन अखबार में दाखिल हुए. वरिष्ठ संपादकों और पत्रकारों के सानिध्य में काम कर वे ऐसे मंजे कि आज देशबंधु और ललित सुरजन का नाम एक दूसरे का पर्याय है.

देशबंधु (नई दुनिया, तत्कालीन रायपुर संस्करण) में ललित ने मालिक का बेटा होने के बाद भी अखबार के बंडलों लेबल बनाने-चिपकाने से लेकर अखबार भी बांटना सीखा. कंपोजिंग, फोल्डिंग, अकाउंटिग की राह पकड़ते हुए वह संपादकीय में प्रवेश कर गये. ललित कहते हैं, 'मुझमें उतावलापन है. हर काम सीखना और करना चाहता हूं.'  उस जमाने में जब छत्तीसगढ़ के अखबारों मे लघु विज्ञापन की संस्कृति नहीं थी तब ललित ने देशबंधु में इसकी शुरुआत की. यह उनके संपादकीय कौशल का ही नमूना है. इतना ही नहीं दूसरे अखबार जहां शोक संदेश में पूरा शुल्क लेते वहीं देशबंधु मानवीय सोच का परिचय देता हुआ आधा ही शुल्क वसूल करता. लापता के विज्ञापन निशुल्क छापे जाते थे हालांकि बाद में जगह की कमी के चलते उसका शुल्क लिया जाने लगा लेकिन औरों से कम. 

प्रयोगधर्मिता उनकी और देशबंधु की पहचान रही है. सन 1990 के दशक के आरंभ में किसी वर्ष के पहले दिन एक जनवरी को अखबार के पहले पन्ने के कॉलम खाने खींचकर कोरे प्रकाशित कर दिये गये कि पाठक खुद तय करें कि वे कैसा अखबार पढऩा चाहते हैं. अपने आसपास की खबरें भेजें. करीब 15 दिन बाद वह पहला पन्ना पाठकों की खबरों के साथ दोबारा छपा. आश्चर्य की बात यह थी कि अधिकांश खबरें सकारात्मक और विकासपरक थीं. 

वाम और नेहरूरवादी विचारधारा के ललित ने कभी अखबार की खबरों पर अपना सोच लादने का प्रयास नहीं किया. खबरों के मामलों में उनकी तटस्थता की तारीफ उनसे वैचारिक मतभेद रखने वाले भी करते हैं. वह खबरों की भाषा और व्याकरण की शुद्धता को लेकर विशेष आग्रही रहे हैं. देशबंधु में पहले सुबह की मीटिंग की बजाय महज चर्चा ही होती थी, लेकिन इस चर्चा में बात करते हुए ही किसी को कोई असाइनमेंट दे देना और फिर उसकी पूछताछ करना यह ललित की आदतों में शुमार रहा. कभी किसी खबर की एक लाइन पर उनकी नजर टिक गयी तो किसी रिपोर्ट को कह कर उस एक लाइन पर विस्तारित खबर बनाने का निर्देश दे दिया. इन सब के बीच ह्यूमन स्टोरी या आम जनता व पर्यावरण और हरियाली से जुड़ी खबरों स्टोरी पर विशेष ध्यान देने का सदैव निर्देश रहा. संभवतया: यही कारण है कि देशबंधु में प्रांतीय डेस्क की खबरें भी प्रथम पेज पर विशेष स्थान पाती रहीं. ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता ललित का शुरु से ध्येय वाक्य रहा. इसी का नतीजा है कि जिस वर्ष स्टेट्समैन अखबार ने ग्रामीण रिपोर्टिंग पर अवार्ड देना शुरु किया पहला ही अवार्ड देशबंधु के नाम हुआ. यह सिलसिला जारी रखते हुए देशबंधु के खाते में अब तक कुल 14 स्टेट्समैन ग्रामीण रिपोर्टिंग अवार्ड हैंं. बतौर संपादक ललित सुरजन की उपलब्धियों की सूची काफी लंबी है. जैसे, छत्तीसगढ़ में पहला खेल संवाददाता, पहला प्रेस फोटोग्राफर, पहला पर्यटक संवाददाता नियुक्त करना आदि. देशबंधु ने 1968 में ही छत्तीसगढ़ी भाषा में कॉलम शुरु कर दिया था, जबकि उस दौरान अलग छत्तीसगढ़ राज्य की मांग सही तरीके से उठी भी न थी. उन्होंने रिश्ते ऐसे बनाये कि 1969 से देशबंधु में व्यंग्य और सामयिक विषयों पर कॉलम लिखने वाले प्रभाकर चौबे, आज भी अनवरत अपना कॉलम लिखते चले आ रहे हैं. मप्र के पिपरिया से लेकर जबलपुर-नागपुर में स्कूली शिक्षा ग्रहण करने वाले ललित को यायावर संपादक कहना बेहतर होगा. क्योंकि वह अब तक करीब 25 से 30 देशों की यात्राएं  कर चुके हैं और लैटिन अमेरिका घूमने की ख्वाहिश अभी बाकी है.

वह कवि हैं जिसके दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. कुल मिलाकर सात किताबें आ चुकी हैं. एक पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है. उनके यात्रा संस्मरणों को लोग चाव से पढ़ते हैं. स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय  और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर उनकी टिप्पणी या विशेष टिप्पणी को पढऩा ही पाठकों को जानकारी से समृद्ध कर देता है. वह संपादक अपने सहकर्मियों की नजर में एक बेहतर संपादक से ज्यादा बेहतर लेखक है. प्रोफेसर बनने की चाह रखने वाला यह शख्स 70 साल की उम्र में आज भी अपने समकालीन तो छोडिय़े, युवा पत्रकारों और संपादकों से ज्यादा विचारवान साबित होता आ रहा है.(शुक्रवार के चेहरा कालम में प्रकाशित संजीत त्रिपाठी की एक यायावर संपादक हेडिंग से की गई टिपण्णी जिसपर ललित सुरजन ने अपनी प्रतिक्रिया भी दी थी .इसे आज फिर से जनादेश में हम दे रहे हैं .संपादक )फोटो साभार 

शुक्रवार के संपादक भाई अंबरीश को धन्यवाद कि इस स्तम्भ के लिए मेरा नाम उपयुक्त समझा और संजीत को इतने संतुलन के साथ विषय का निर्वाह करने के लिए धन्यवाद.ललित सुरजन

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