पंजाब को समझने की जरुरत है सरकार को

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पंजाब को समझने की जरुरत है सरकार को

शेखर गुप्ता 

भाजपा को राजनीति की कितनी समझ है? अगर आप इस तरह का सवाल पूछने की कोशिश भी करेंगे तो लोग आपसे यही कहेंगे कि जाइए पहले अपने दिमाग का इलाज करवाइए. इसमें कोई शक नहीं कि राजनीति की उसकी समझ और किसी और की समझ में उतना ही अंतर है जितना लोकसभा की 303 और 52 सीटों में अंतर है.

तब आप शायद सवाल को और बारीकी से उठाएंगे और पूछेंगे कि भाजपा को पंजाब की राजनीति की कितनी समझ है? मुझे लगता है कि इसका जवाब यही होगा- भाजपा को पंजाब की राजनीति की बहुत कमजोर समझ है. मोदी-शाह निश्चित ही न तो पंजाब को समझते हैं, न पंजाबियों को समझते हैं, न उनकी सियासत को समझते हैं और साफ कहें, तो वे सिखों को भी नहीं समझते हैं. वरना वे पंजाब के किसानों के विरोध प्रदर्शनों से निपटने के मामले में खुद को इस तरह गड्ढे में नहीं गिरा लेते. यही नहीं, वे कृषि अर्थव्यवस्था के इन नये सुधारवादी बेहतर कानूनों के मामले में खुद को गड्ढे से बाहर निकालने की जगह उसे और गहरा खोदते जा रहे हैं.



इस मसले से जुड़े ज्यादा जटिल पहलुओं की गहराई में जाने से पहले हम जरा कुछ बुनियादी बातों की जांच कर लें. उत्तर भारत में पंजाब इस मायने में सबसे अलग दिखता है कि वह मोदी के मोह से खुद को अछूता रखा है. यहां तक कि 2014 और 2019 के आम चुनावों में जब नरेंद्र मोदी खुद मुक़ाबले में खड़े थे तब भी पंजाबी लोग उनके प्रति आकर्षित नहीं हुए. कुछ जगहों पर तो उन्होंने भाजपा की जगह ‘आप’ के पक्ष में मुहर लगाई, बावजूद इसके कि मुख्यतः सिखों का राजनीतिक दल, ‘शिरोमणि अकाली दल’ भाजपा का मजबूत सहयोगी था. सबूत के लिए देखिए कि दोनों चुनावों में भाजपा अपने दो सितारा उम्मीदवारों- अरुण जेटली और हरदीप सिंह पुरी- को अमृतसर से चुनाव नहीं जितवा पाई जबकि उन्हें अकाली दल का समर्थन हासिल था. उत्तर भारत में पंजाब ही एकमात्र ऐसा राज्य था, जहां दोनों चुनावों में कथित मोदी लहर बेअसर साबित हुआ था और इस लहर को रोकने के लिए पंजाबियों को हाइवे पर न तो कोई खाई खोदने पड़ी, न बड़े-बड़े पत्थर डालने पड़े, और न ही बैरिकेड खड़े करने पड़े.

चुनाव-दर-चुनाव- 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में भी- मोदी भगवा साफा बांधे रैलियों को संबोधित करते रहे लेकिन उनका पंजाब में कोई असर नहीं पड़ा, भले ही पड़ोस के हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में उनका जादू चलता रहा.

पांच वर्ष में पंजाब में तीन बार अपनी उफनती लहर की नाकामी बाद भी मोदी और शाह को अगर पुनर्विचार करने की जरूरत नहीं महसूस हुई, तो किसानों के आंदोलन के मामले में अफरातफरी शायद उन्हें यह महसूस कराए. अगर फिर भी यह महसूस नहीं होता तो यही जाहिर होगा कि उनमें राजनीतिक कौशल, और विनम्रता का भी अभाव है.



भाजपा अपने आलोचकों को जड़ों से उखड़ा हुआ, अंग्रेजीभाषी, लुटियन्स वाला बताकर खारिज करती है और अपनी भदेस लफ्फाजियों पर इतराती है. इसलिए उसे इस क्षेत्र की इस पुरानी कहावत से कुछ सीख लेनी चाहिए कि किसी जाट किसान से आप उसके खेत में लगा एक भी गन्ना छीन नहीं सकते लेकिन उसे खुश करके आप उससे गुड़ की ईंट जरूर भेंट में हासिल कर सकते हैं- वह भी एक बड़ी मुस्कान, एक झप्पी, और शायद लस्सी के एक गिलास के साथ भी. बस आपको अपना सिर झुका कर (हथियार डालने की मुद्रा में नहीं) नरमी और दोस्ताना भाव से शुरुआत करने की जरूरत है. लेकिन कृषि कानूनों के मामले में भाजपा ने ठीक इसका उलटा किया है.

मोदी-शाह की भाजपा की बुनियादी राजनीति चार पहियों पर चलती है- मोदी की अपनी लोकप्रियता, हिंदुत्व के नाम पर ध्रुवीकरण, भ्रष्टाचार मुक्त छवि, और राष्ट्रवाद. लेकिन पंजाब में यह क्यों नाकाम हो गई?कृषि कानूनों को लेकर दूसरे कृषि प्रधान राज्यों में शायद ही कोई हलचल है. बड़ी खेतिहर आबादी वाला और किसान राजनीति तथा आंदोलनों के लिए विख्यात महाराष्ट्र शांत है. तो पंजाब क्यों नाराज है? क्योंकि यह राज्य, और सिख कुछ अलग हैं.


भाजपा के रथ के चार पहियों में एक है ध्रुवीकरण का पहिया. लेकिन पंजाब में पारंपरिक हिंदू-मुस्लिम वाला तत्व गायब है. भाजपा/आरएसएस के सोच को समझाना मुश्किल है, मगर मुसलमानों को लेकर उत्तर प्रदेश, गुजरात, ब्रह्मपुत्र घाटी, या उत्तरी बंगाल में जो संदेह और डर है वह सिखों में नहीं है. पंजाब में जो थोड़े-से मुसलमान मलेरकोटला की छोटी-सी बस्ती में रहते हैं उन्हें सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह के समय से सिखों का सदभाव और सुरक्षा मिलती रही है क्योंकि यहां के नवाब ने औरंगजेब से गुरु के बेटों की रक्षा की थी. सिख लोग केवल बदले की भावना को ही नहीं, एहसान को भी लंबे समय तक याद रखते हैं.


पारंपरिक रूप से पहले आरएसएस और फिर भाजपा सिखों को अलग वेशभूषा वाले हिंदू ही मानती रही है. गुरुओं ने हिंदुओं की रक्षा के लिए लड़ाइयां लड़ीं और शहीद हुए, पंजाबी मुहावरा कहता है कि हिंदू और सिख उंगली और नाखून की तरह एक शरीर के ही अंग हैं, पंजाब भारत की तलवार है… ये तमाम बातें सच हैं. फिर भी सिख हिंदू नहीं हैं, वे हिंदुत्व के मुरीद नहीं हैं. अगर होते तो तीन बार अपने उत्कर्ष पर पहुंचे मोदी को उन्होंने खारिज नहीं किया होता. यह हमने तब देखा जब भिंडरांवाले अपने उत्कर्ष पर था. उस समय आरएसएस यह विश्वास नहीं कर पाया होगा कि पंजाब में सिख हिंदुओं पर हमला करेंगे. उस समय इसके सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने बयान दिया था कि हिंदुओं और सिखों में कोई भेद नहीं है, सिख तो केशधारी हिंदू ही हैं.

हम कुछ पत्रकार स्वर्णमंदिर में भिंडरांवाले के दरबार में हमेशा की तरह बैठे थे. बाढ़ में सतलुज की चौड़ाई जितनी चौड़ी मुस्कराहट अपने चेहरे पर बिखेरते हुए उसने कहा था कि वह ‘निक्करधारी’ अगर सिखों को केशधारी हिंदू कहता है, तो मुसलमानों को क्या कहेगा, ‘सुन्नतधारी’ हिंदू?

पंजाब कितना जटिल और कितना भिन्न है, यह समझने के लिए इस लेख को आगे पढ़िए. भिंडरांवाले और उसका कुनबा सिखों के लिए अल्पसंख्यक वाले दर्जे और अलग पर्सनल कानून की मांग कर रहा था. अमीर से अमीर सिख उसके दरबार में हाथ जोड़े आते थे और गुजारिश करते थे, ‘ऐसा मत कीजिए संत जी. हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) के तहत हमें टैक्स में जो छूट मिलती है उसे हमें मत गंवाने दीजिए.’


सिख-हिंदू विभाजन 1960 वाले दशक में अकालियों के पंजाबी सूबा आंदोलन के कारण तब और गहरा हुआ, जब आरएसएस/भारतीय जनसंघ ने इसका विरोध किया. ये दोनों पहली बार तब करीब आए जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में दोनों को एक ही जेल में बंद किया. 1977 के बाद अकालियों और जनता पार्टी में शामिल पूर्व जनसंघियों ने हाथ मिला लिये. लेकिन भाषायी, सांस्कृतिक और धार्मिक कारणों से उनमें जल्दी ही फूट भी पड़ गई. इसके बाद आतंकवाद का दौर चला, जिसमें आरएसएस/भाजपा भी निशाने पर थे.

अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व वाली जोशीली भाजपा को समझ में आ गया था कि पंजाब में स्थिरता लाने और वहां भाजपा को मजबूत करने का एक ही उपाय है हिंदुओं और सिखों में फिर से मेल कराना. उन्होंने समान विचार वाले अकाली नेताओं से, जो भिंडरांवले से झटका खा चुके थे, जेल में कैद के दौरान हुई बातचीत को आगे बढ़ाया.

इस तरह अकाली दल और भाजपा का गठबंधन अस्तित्व में आया. भाजपा ने जूनियर पार्टनर बनना कबूल कर लिया. राष्ट्रीय राजनीति और केंद्रीय मंत्रिमंडल में अकालियों, खासकर प्रकाश सिंह बादल को काफी सम्मानित दर्जा दिया गया. इस रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए मदनलाल खुराना को खास ज़िम्मेदारी सौंपी गई. लेकिन अब भाजपा ने उस रिश्ते को अपने अहंकार में तोड़ दिया है. उसने उन्हें सम्मानित सहयोगी का दर्जा देने की जगह पंजाब और सिखों का कृपालु बड़ा भाई बनने की कोशिश की.

यह आकलन में कई तरह की भूलों को उजागर करता है. पहली भूल यह मान लेना है कि पंजाब कोई एक चट्टान जैसा है; दूसरी यह कि सिख भी ऐसे ही हैं. लेकिन दरअसल उनमें भी जातियों और गोत्रों के बंटवारे हैं. आज भाजपा में आप जिन प्रमुख सिखों को देख रहे हैं वे जाट (पंजाबी में उन्हें जट्ट कहते हैं) समुदाय के नहीं हैं, जो बड़ी जोत वाले किसान हैं और जो कहीं भी पहुंचने के लिए किसी भी रुकावट की परवाह नहीं करते. और तीसरी भूल यह मान लेना है कि सिख हिंदू हैं. दरअसल वे वैसे हिंदू नहीं हैं जैसे वडोदरा, वाराणसी, या विदर्भ के हिंदू हैं.


सिख किसानों और खासकर जट्टों को आंदोलन करने में मजा आता है. यह 20वीं सदी के शुरू में सरदार अजित सिंह के नेतृत्व में चले ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन के जमाने से ही चला आ रहा है. यह नारा उनके भतीजे शहीद भगत सिंह की शानदार साहसी क्रांति का गान ही बन गया था, जिन भगत सिंह की दुहाई आज वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी, तीनों देते हैं. इमरजेंसी के दौरान जेलों में बंद कैदियों में आरएसएस कार्यकर्ताओं के बाद अकालियों की ही संख्या सबसे ज्यादा थी.

सिखों को अच्छी लड़ाई बहुत पसंद है, और मोदी सरकार ने उन्हें यही दे दिया है. यह नहीं चलेगा, पंजाबियों के साथ आपको तर्क के साथ पेश आना होगा. वे उद्यमी होते हैं, उन्हें इन सुधारों में तार्किकता नज़र आ सकती है. लेकिन अगर आप उनके गले पर सवार होकर उनसे बात करेंगे तो फिर आप उनसे बैरीकेडों पर ही मिलिए.

अंतिम बात यह है कि पंजाब हिंदी/हिंदू पट्टी का हिस्सा नहीं है. यहां आपकी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण वाली चाल नहीं चल पाएगी. हां, आप हिंदू-सिख ध्रुवीकरण कर सकते हैं. लेकिन यह कोई नहीं चाहेगा. लेकिन, अगर आप ऐसा करते हैं तो आप किसानों पर यह तोहमत भी लगाएंगे कि वे खालिस्तानियों के बहकावे में आ गए हैं. यही करना है, तो बिना मतलब तिल का ताड़ बनाते रहिए!साभार द प्रिंट 

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