संजय कुमार सिंह
नई दिल्ली .शादी एक दूसरे को जान-समझ कर ही होनी चाहिए. कुंडली मिलाकर की जाने वाली शादियों का हश्र हम जानते हैं. ठीक है कि, प्रेम विवाह भी असफल होते हैं पर ऐसे मामलों में जो खेलते हैं वही हारते हैं. रेफ्री या समाज के ठेकेदारों के कारण न तो हार-जीत नहीं होती है ना खेल खराब होता है. बेशक खिलाड़ी जैसे होंगे खेल भी वैसा ही होगा. उसमें रेफ्री की भूमिका रेफ्री जैसी ही होनी चाहिए. कुंडली मिलाने वाली शादियों में ऐसा नहीं होता है. प्रेम विवाह अक्सर समान मानसिक स्थिति वालों में होता है. साथ पढ़ने, साथ काम करने या पड़ोस में रहने वालों से. इसलिए मुझे यह ज्यादा सही लगता है. प्रेम के दौरान आप एक-दूसरे को जान जाते हैं इसलिए शादी के बाद भागने का पुरुषार्थ दिखाने की जरूरत नहीं होती है. महिला तो शादी से भाग ही नहीं सकती है, बशर्ते उसका कोई प्रेमी नहीं हो. माता-पिता, भाई से ऐसी अपेक्षा अभी के समाज में नहीं की जा सकती है कि कोई लड़की बेवकूफी में ही किसी से प्रेम करके शादी कर ले और उसका भाई या पिता उसे बचाने की सोचे भी. बचाना शादी से पहले तक ही होता है. बाद में नहीं के बराबर. एकाध अपवाद हो सकते हैं.
ऐसे में लव जिहाद मुझे एक विचित्र कल्पना लगता है. प्रेम के मामले में अपना ज्ञान लगभग शून्य है और अनुभव भी इसके आस-पास ही. फिर भी सरकारें (डबल इंजन वाली) इसपर कानून बना रही हैं तो इसकी जरूरत होगी, उनका आधार होगा. मामले और मिसाल भी होंगे. मैं उस विस्तार में नहीं जा रहा. पर अभी तक मैंने जो समझा है वह यही है कि कानून (या अपराध) यही है कि कोई मुस्लिम लड़का अपने मुस्लिम होने का बात छिपाकर किसी हिन्दू लड़की से प्रेम की पींगे बढ़ाए. अव्वल तो भारतीय संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर बात करना ही गलत है और आदतन इस तरह साफ-साफ हिन्दू मुसलमान लिखने में भारी असुविधा होती है इसलिए इस विषय पर नहीं लिखा और वैसे भी मैं समस्या सामने आने पर उससे निपटने में विश्वास करता हूं. आ सकने वाली समस्याओं को लेकर चिन्ता नहीं करता.
ऐसे में हिन्दुस्तान टाइम्स की इस खबर को (कमेंट बॉक्स में) पढ़ते हुए ध्यान आया और इसमें कहा भी गया है, ऐसा कानून संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा. आप इसकी जरूरत के पक्ष में चाहे जितने तर्क दें और सरकार चाहती है तो वही मजबूत भी होंगे पर शादी में जब धर्म मायने ही नहीं रखता है तो प्रेम में क्यों रखना चाहिए. बताया गया कि नहीं, यह धोखा देने का मामला हो सकता है तो यह उन लोगों के बीच तय होने दिया जाए. कानून है ही. पर दो लोगों के बीचत यह मुद्दा नहीं है तो सरकार को क्यों परवाह करना चाहिए? अगर कोई मुसलमान किसी हिन्दू लड़की से प्रेम कर लेता है और हिन्दू विधि से या कोर्ट में शादी कर लेता है तो जाहिर है वह मुस्लिम होने के मामले में कट्टर नहीं है. लड़की को नहीं पता चला सो अलग. इसके बाद लड़की को पता चले तो कानून हैं. ऐसे में नए कानून की कोई जरूरत लगती नहीं है. नए कानून से यही होगा कि दूसरे कानून का अनुपालन मुश्किल होगा.
कानून तो वेश्यावृत्ति के खिलाफ है ही और समलैंगिक सेक्स के खिलाफ हाल तक था ही. दोनों मामलों में वास्तविकता का ध्यान रखते हुए आगे कानून बनाना चाहिए न कि कानून इतने बना दिए जाएं कि अनुपालन संभव ही नहीं हो. अभी भी ऐसी हालत है ही. मकसद नागरिकों को परेशान करना है तो भी कानून कम नहीं हैं. लेकिन समान अधिकार की बात भी अपनी जगह है ही. समाज में मुसलमानों की छवि इतनी खराब कर दी गई है और लगातार की जा रही है (मुझे लगता है उदाहरण देने की जरूरत नहीं है) कि अगर कोई पहले ही बता दे कि वह मुसलमान है (नहीं बताना भी संभव नहीं है लेकिन वह अलग मुद्दा है) तो नंबर कट ही जाएंगे फिर लेवल प्लेइंग फील्ड का मामला नहीं रह जाएगा. कहने की जरूरत नहीं है कि जो हालात हैं उसमें बहुत सारे मुस्लिम हिन्दू नाम रख लेते हैं. वह अधिकृत हो या पुकार का वह अलग बात है. इससे निपटने के लिए कानून बनाने से बेहतर होता कि समाज में भाईचारा फैलाया जाता ताकि किसी को अपना धर्म छिपाने (या बताने) की जरूरत ही नहीं पड़ती.
कहने की जरूरत नहीं है कि बहुत सारे हिन्दुओं के मुस्लिम नाम मिल जाएंगे. पहले लोग रखते थे अब कौन रखेगा अब तो आधुनिक मुसलमान डर से (और कट्टर नहीं होने के कारण) खतना न करवाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. कट्टर हिन्दुओं को अगर चिन्ता ही है तो उस स्थिति की भी चिन्ता करनी चाहिए जब मुसलमान हिन्दू नाम रखें, खतना नहीं करवाएं और पांचो वक्त नमाज नहीं पढ़ें. हिन्दू अगर बिना मंदिर गए, शिखा रखे या जनेऊ पहने हिन्दू बना रह सकता है तो मुसलमान भी (कम से कम हिन्दुओं के लिए) मुसलमान रहेगा ही. फिर आप उससे कैसा व्यवहार करेंगे. लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की जरूरत से लगता है कि इस पर विचार करना भी जरूरी है. अभी जो स्थिति है उसके अनुसार मुसलमान इसीलिए ज्यादा कट्टर है कि वह नियमित नमाज पढ़ता है और मस्जिद जाता है. कट्टर हिन्दू भी शिखा रखते हैं और मंदिर जाते हैं. नहीं रखते हैं तो कैसे हिन्दू. पर मुसलमान अगर कट्टरता कम करने लगें, हिन्दू नाम ही रख लें तो कानून किस काम का रहेगा. उससे आगे की सोचने की जरूरत है. हालांकि, संविधान को मानना है तो यह सब मुद्दा ही नहीं है पर जब हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अखबारों में विज्ञापन छप रहे हैं तो कुछ किया नहीं जा सकता है. चुपचाप देखते रहना ही सर्वश्रेष्ठ है.
दैनिक हिन्दुस्तान में पहले पन्ने पर प्रकाशित विज्ञापन देखिए यह एक यज्ञ और अनुष्ठान का विज्ञापन है जो 19 नवंबर से चल रहा है कल यानी 25 नवंबर तक चलेगा. उसी प्रयागराज में जहां के हाईकोर्ट की खबर की चर्चा ऊपर की है. बेशक यह धरामिक आस्था का मामला हो सकता है पर इसके व्यवस्थापक हैं, अतुल द्विवेदी और इनका परिचय जो लिखा है वह है, राष्ट्रीय अध्यक्ष - विश्व हिन्दू पीठ, सलाहकार सदस्य, भारतीय खाद्य निगम, भारत सरकार. बाद वाले पद से आप इनका महत्व और इनकी ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं. भारत को हिन्दू राष्ट्र क्यों होना चाहिए और इसके क्या फायदे हैं यह बताने की जरूरत नहीं है. यह भी नहीं कि संविधान की मूल भावना के खिलाफ क्यों जाना चाहिए. उल्टे जो यह कह रहा है वह खाद्य निगम का सलाहकार है. सफल रहा तो खाद्य मंत्री होगा. जो सच बताएगा वह अर्बन नक्सल कहलाएगा.
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