हुसैन ताबिश
साल 1953 में हिंदी फिल्मों के मशहूर निर्देशक बिमल रॉय की एक फिल्म अाई थी दो बीघा ज़मीन. इस फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी ने एक सीमांत किसान शंभू का किरदार निभाया था. शंभू, गांव के ठाकुर के पास अपनी गिरवी पड़ी ज़मीन को वापस पाने के लिए पैसे कमाने कलकत्ता आता था. यहां वो हाथ रिक्शा चलाता है लेकिन उसकी समस्याएं घटने के बजाए बढ़ जाती है. फिल्म में एक साथ गरीबी, भुखमरी, पलायन, जमींदारी प्रथा और छोटे किसानों की समस्या का चित्रण किया गया था. इस फिल्म की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी प्रशंसा हुई थी और फिल्म के कलाकारों की किस्मत बदल गई थी, लेकिन शंभू की समस्याएं और उसका सवाल आज भी वही खड़ा है. आखिर सरकारों ने इतने साल क्या किया ?
कोलकाता के न्यू मार्केट में दोपहर १२ बजे के आसपास लाइन से पांच हाथ रिक्शा खड़ा है और उसी पर रिक्शा चालक उकरू होकर बैठे हैं. सामने बैठे एक उम्रदराज दाढ़ी वाले चाचा से मैं मुखातिब हुआ. चाचा की उम्र ७० साल और नाम अल्ताफ है. वो बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के औरई प्रखंड के एक गांव से हैं. पिछले ४० सालों से वो कलकत्ता में हाथ रिक्शा चला रहे हैं. कलकत्ता में रहने का उनका कोई ठिकाना नहीं है. यहां तक कि रिक्शा भी किराए का है. रोज़ ४० रुपया देकर १२ घंटे के लिए रिक्शा मालिक से रिक्शा लेते हैं और फिर रात में उसे वापस कर देते हैं. अल्ताफ सहित सभी रिक्शा चालक रिक्शा मालिक के अहाते में रिक्शा पर ही अपनी रात बिताते हैं. नगर निगम के पानी में नहाना और होटल में खाना यही इनकी ज़िन्दगी का मामूल है.
अबतक कई और रिक्शा चालक पास में आकर खड़े हो चुके हैं. सभी बिहार और झारखंड के हैं. वो एक साथ कहते हैं, लॉक डाउन में हम सभी बर्बाद हो गए. कई - कई दिनों तक हमने पानी पर गुजारा किया है. सरकारी सहायता हम लोगों तक ठीक से पहुंचा ही नहीं. यहां हम भूखे मर रहे थे और गांव में हमारे बच्चे. झारखंड के गिरिडीह के शंकर कहते हैं, हेमंत सोरेन को छोड़ कर कोई भी मुख्यमंत्री लॉक डाउन में गरीबों को नहीं देखा. सब बेईमान और चोर हैं. हेमंत सोरेन झारखंड में किसी को भूखा नहीं रहने दिया. पटना के ललित पासवान कहते हैं, " अभी भी बाज़ार ठीक नहीं हुआ है. लोग बाज़ार कम आ रहे हैं. बाज़ार आते भी हैं तो लोग रिक्शा नहीं करते हैं. पैसा बचाने को वो पैदल ही चल लेते हैं. मोल मोलाई भी लोग ज़्यादा करते हैं. सब घाटा ता हम गरीब लोग ही उठाते हैं."
स्कूल बंद होने से भी रिक्शा चालकों को काफी नुकसान उठना पड़ रहा है. अधिकांश ग्राहक उनके स्कूली बच्चे हैं जो सुबह - सुबह उनके रिक्शा से स्कूल जाते और आते थे. लेकिन अभी उनके ये ग्राहक मार्केट से गायब हैं. अधिकतर रिक्शा चालक दो शिफ्ट में काम करते हैं. सुबह ५ बजे से वो किसी दुकान में नौकरी करते है. शाम से रात ११ - १२ बजे तक रिक्शा चलाते हैं. अल्ताफ से जब हमने रिक्शा सहित उनकी एक तस्वीर लेने के लिए आग्रह किया तो वो इसे सिरे से खारिज कर देते हैं. अल्ताफ कहते हैं, " नहीं नहीं फोटो हम नहीं देंगे. आजकल एक ठो फोटो पूरा दुनिया में फैल जाता है. खुदा न खास्ते ये फोटो हमारे गांव घर वालों तक कभी पहुंच गया तो जुलमे हो जायेगा. अभी हमको तीन तीन लड़की ब्याहना है."
अल्ताफ के इन बातों से लगा कि वो गांव घर में बताते होंगे की कलकत्ता में वो कोई और काम करते हैं.
हमने इब्राहिम, सलीम, मुकेश, हरि कई रिक्शा वालों से बात - चीत की. सभी बिहार या झारखंड के थे. सभी की हालत एक जैसी ही है. घर पर कोई खेती या काम न होने के कारण कलकत्ता में रिक्शा चलाते हैं. वो इसे ही अपनी नियति मानते हैं और भगवान का शुक्र अदा करते हैं. ये जिनसे किराए पर रिक्शा लेते हैं वो भी बिहार के ही लोग हैं. समस्तीपुर के जावेद आलम के पास २०० रिक्शा है तो नरेश के पास अभी ५० रिक्शा है.
सरकार ने २०१६ में हाथ रिक्शा को एक कानून बनकर प्रतिबंधित कर दिया है. अब ये धर्मतला, जान बाज़ार, मलिक बाज़ार और न्यू मार्केट तक ही सीमित हो गया है. अभी लगभग ६००० हाथ रिक्शा कलकत्ता के इन इलाकों में मौजूद है. अब इनका स्थान इलेक्ट्रिक रिक्शा और साइकिल रिक्शा ने ले लिया है. सड़कों पर इसकी संख्या भले ही कम हो गई है लेकिन आज भी बंगाल में रहने वाले लोग ट्राम, पीली टैक्सी और माछ - भात की तरह हाथ रिक्शा को भी बंगाली कल्चर का हिस्सा मानते और इसपर गर्व करते हैं.
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