सांप्रदायिकता की जड़ धर्म है ?

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सांप्रदायिकता की जड़ धर्म है ?

शंभूनाथ शुक्ल 

रूस एक राष्ट्र है. जबकि सोवियत संघ कई राष्ट्रीयताओं का समूह था. चीन, जापान आदि देश एक राष्ट्र हैं. ठीक इसी तरह ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली आदि देश भी एक राष्ट्र हैं. लेकिन अमेरिका नहीं है. भले वहाँ का लोकतंत्र सबसे पुराना हो. भारत का भी यही हाल है. यहाँ राष्ट्र की कल्पना ही अंग्रेज लेकर आए. हालाँकि तब भी वह आधा-अधूरा ही था, क्योंकि ब्रिटिश राज में भी भारत के 40 प्रतिशत हिस्से में रजवाड़े थे. जिन्हें उस रियासत की प्रजा समझा जाता था. और रजवाड़ों की प्रजा को वे नागरिक अधिकार नहीं प्राप्त थे. चूँकि दूसरे विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ते हुए बहुत बहादुरी दिखाई इसलिए अंग्रेजों ने प्रांतीय असेम्बलियों में भारतीय लोगों को प्रतिनिधित्व दिया और नागरिक अधिकार भी दिए. यह महात्मा गांधी का दबाव था. तो एक तरह से भारतीय राष्ट्रीयता महात्मा गांधी की देन है. किंतु अंग्रेजों ने गांधी जी की इस परिकल्पना को पूरा नहीं होने दिया और 1930 में मुस्लिम लीग के नेता तथा मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल ने अलग मुस्लिम राष्ट्र की बात रख दी. उन्होंने कांग्रेस को हिंदू पार्टी बता दिया. इसके बाद भारत में हिंदू और मुस्लिम दो राष्ट्रीयताएँ समानांतर पनपने लगीं. लेकिन महात्मा गांधी इतने बड़े नायक थे, कि हिंदू राष्ट्रीयता की बात करने वाले उनके तर्कों के समक्ष टिक नहीं सके. इसी माहौल में मुस्लिम राष्ट्रीयता की बात करने वाले पाकिस्तान लेकर अलग हो गए. इस तरह भारत दो टुकड़ों में बँट गया. यह सच है, कि कांग्रेस में काफ़ी हद तक हिंदू राष्ट्रवाद हावी था, और वह भी मुस्लिम के साथ नहीं रहना चाहते थे. किंतु कांग्रेस पर महात्मा गांधी का दबाव और नेहरू का समाजवाद की तरफ़ झुकाव कांग्रेस के ऐसे तत्त्वों पर क़ाबू पाए था. 

भारत में राष्ट्र कोई शब्द ही नहीं है. हाँ, राष्ट्रकूट साम्राज्य का ज़रूर पता चलता है, जो आठवीं, नौवीं और दसवीं शताब्दी में काफ़ी शक्तिशाली थे और आज के महाराष्ट्र, धारवाड़ तथा गुजरात में फैले थे. उन्होंने उत्तर में कन्नौज आने की कोशिश ज़रूर की पर मध्य भारत से ही लौट गए. एक तरह से भारत मिथकीय काल से मुग़ल काल तक विभिन्न साम्राज्यों में ही बँटा रहा. औरंगज़ेब के बारे में कहा जाता है, कि पूरे भारत में उसका राज था, यह एक मिथक ही है. क्योंकि उसके जीते जी कभी दक्षिण स्वतंत्र हो जाता तो कभी पूर्व और उत्तर पूर्व. कभी राजपूत स्वतंत्र हो जाते तो कभी मराठे. इसलिए एक मायने में अंग्रेज ही पूरे भारत को एक राष्ट्र बना सके. इसलिए भारत में राष्ट्रीयता के नाम पर गड्ड-मड्ड पहचान रही. यहाँ हर समुदाय की पहचान उसके साम्राज्य से बनी. जैसे राजपूत साम्राज्य में वहाँ के सभी रहवासियों की पहचान राजपूत के रूप में थी. जातीय भेदभाव से इस पहचान का कोई वास्ता नहीं था. मराठे वे थे थे, जो मराठा साम्राज्य के अंतर्गत थे. जबकि एक जाति के रूप में मराठा शासन बहुत लंबा नहीं है. उनके यहाँ पेशवा ही असली शासक थे जो जाति के रूप में ब्राह्मण थे. यही हाल बुंदेलखंड, अवध और बंगाल में भी था. जहां मुग़ल थे, वहाँ के निवासियों की पहचान भी मुग़ल थी, बस क़ौम ब्राह्मण, तुर्क, पठान, राजपूत आदि-आदि. यह सब आप पुराने दस्तावेज़ों में पाएँगे. 

आज़ादी के बाद भारत एक राष्ट्र बना और भारतीयता एक राष्ट्रीय पहचान बनी. सैद्धांतिक रूप से यह सत्य है. मगर व्यावहारिक रूप से हर किसी की पहचान बंगाली, मदरासी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, पहाड़ी या हिंदुस्तानी ही है. दरअसल हिंदी भाषी प्रांतों के निवासियों को हिंदुस्तानी बोलते हैं. भले वे किसी जाति, बिरादरी अथवा मज़हब के हों. इस तरह से देखा जाए तो हमारी भाषिक पहचान ही हमारी राष्ट्रीयता है. जैसा कि डॉक्टर राम विलास शर्मा प्रतिपादित करते हैं. डॉक्टर शर्मा मानते हैं, कि यह जातीय पहचान ही एक राष्ट्र का स्वरूप लेती है. वे हिंदी बोलने वालों को हिंदी जाति का मानते हैं. आप भारत के बाहर भी भारतीयों को देखिए, तो यही पहचान पाएँगे. तमिलों का अपना संगमन होगा तो तेलुगु भाषियों का अपना. बंगाली और पंजाबी तो वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है. हाँ अगर हिंदी-उर्दू की लिपियों के भेद को अलग कर दें तो शायद यह विश्व में चीनी के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा होगी. यह है भारत में राष्ट्रीयताओं का माया-जाल. यही वजह है कि भारत में राष्ट्रीयता का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं उभरता. शायद इसीलिए भारत में पूर्व पूंजीवाद काल की देशभक्ति तो हमें दिखाई पड़ती है, किंतु राष्ट्रवाद नहीं. सुनने में यह विचित्र ज़रूर लगता है, पर यह सत्य है. देश एक सीमा रेखा है. भूमि का स्पष्ट विभाजन है. किंतु राष्ट्र एक पहचान है. यह पहचान अलग-अलग भाषिक जातियों की एकता से भी बन सकती है.  

अरुण कुमार त्रिपाठी, प्रदीप कुमार सिंह और राम किशोर के संपादन में सद्य प्रकाशित पुस्तक “राष्ट्रवाद, देशभक्ति और देशद्रोह” में इन सवालों का जवाब तलाशने की सार्थक कोशिश की गई है. इस पुस्तक में 44 लेखों का संकलन है. ख़ास बात यह है, कि पुस्तक में महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, भगत सिंह, प्रेमचंद, डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर, दीन दयाल उपाध्याय, विनायक दामोदर सावरकर और राम मनोहर लोहिया द्वारा इस संदर्भ में समय-समय पर की गई टिप्पणियों और उनके लेखों को भी संकलित किया गया है. इस पुस्तक में अरुण त्रिपाठी ने अपने लेख “दुधारू तलवार है गोरक्षा आंदोलन” के ज़रिए साफ़ लिखा है, कि अंग्रेजों ने ज़ान-बूझ कर गाय को लेकर हिंदू-मुस्लिम रिश्तों में खटास पैदा की. बड़ी चालाकी से उन्होंने यह साबित किया कि मुसलमान गाय काटते हैं. जबकि खुद लाखों मुसलमान गाय काटने के विरोध में उतरे. स्वामी दयानंद का आर्य समाज, और सिख़ गाय की रक्षा के लिए आंदोलित हुए. कूका विद्रोह गोवध के विरोध में हुआ था. तथा पारसी भी गोरक्षा के समर्थन में आए. जबकि सच बात तो यह है, कि शहर के बीच में बूचड़खाना खोलने की पहल अंग्रेजों ने की. उनकी छावनी में गाएँ कटती थीं. क्योंकि उनके यहाँ गाय की न तो कोई उपयोगिता थी न कृषि का रक़बा उनके यहाँ विस्तृत था. इसलिए वे गाय खाते थे. मगर उन्होंने इसके लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया. नतीजतन दंगे फैले और अंग्रेजों को लाभ हुआ. 

यही हाल है सांप्रदायिकता का. कम्युनिस्ट लोग मानते हैं, कि सांप्रदायिकता की जड़ धर्म है. जबकि वे यह नहीं बता पाते कि 70 साल के कम्युनिस्ट शासन के बावजूद सोवियत संघ में धर्म जड़ें कैसे जमाए रहा? क्यों सोवियत संघ के विघटित होते ही रूस में पुरातनपंथी ईसाई धर्म और मज़बूत होकर उभरा तथा अजरबैज़ान कट्टर मुस्लिम देश हो गया? एक तरह से यह भ्रम ही है. संपादक मंडल के राम किशोर ने इसकी व्याख्या बहुत तार्किक ढंग से की है. वे तुष्टिकरण को भी कहीं न कहीं इसके लिए जवाबदेह ठहराते हैं. वामपंथी विचारक अरुण माहेश्वरी मानते हैं, कि दरअसल राष्ट्रवाद पूँजीवादियों का एक छद्म है. इसीलिए हम अलग-अलग काल और अलग-अलग वर्ग में एकदम अलग-अलग राष्ट्रवाद देखते हैं. गिरीश्वर मिश्र इसे अस्मिता की चुनौती के रूप में देखते हैं. एक तरह से इस पुस्तक में राष्ट्रवाद और उससे जुड़े सवालों को लेकर वामपंथी कम्युनिस्टों, समाजवादियों और दक्षिणपंथियों के साथ मध्यम मार्गियों के लेखकों के विचार हैं. सुप्रिया पाठक ने जेंडर का प्रश्न खड़ा कर हमारी राष्ट्र्वादिता को कठघरे में खड़ा किया है. प्रोफ़ेसर आनंद कुमार ने अपने लेख राष्ट्रीयता का आधार और देशभक्ति ने कुछ विचारणीय सवाल उठाए हैं. कृपा शंकर चौबे ने बांग्ला राष्ट्रवाद के उद्भव और विकास पर बहुत अच्छा लेख लिखा है. राष्ट्रवाद को शुरू से समझने में यह लेख बहुत सहायक है. समाजवादी विचारक शेष नारायण सिंह ने अपनी प्रस्तावना में बहुत अच्छे ढंग से इस सबको समझाया है. 

अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स (प्रा) लिमिटेड अंसारी रोड नई दिल्ली से प्रकाशित 364 पेज की यह पुस्तक आपके दिमाग़ में बहुत सारे सवाल खड़े करेगी और उनका शमन भी करेगी. मात्र 395 रुपए की इस पुस्तक से राष्ट्रवाद और देश भक्ति को लेकर जमा कुहासा छँटेगा, ऐसी मेरी उम्मीद है.

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