अब न खबर लेता है न देता है

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अब न खबर लेता है न देता है

अमित प्रकाश सिंह

यह सूत्र वाक्य था 'सबकी खबर ले,सबको खबर दे'.एक जमाने में एक अखबार का.बडा सहज .लेकिन बहुत गूढ.इस वाक्य को रचा था तब नौजवान ,आत्मविश्वासी और उत्साही अच्छे लेखक आनंद कुमार टिकमानी  ने.

 ज्यादातर लोग उन्हें अब कुमार आनंद के रूप में जानते हैं. वे दिल्ली से प्रकाशित  होने वाले एक अखबार में काम करते थे. उस अखबार में काम करने वालों से अखबार की पहचान जताने वाले सूत्र वाक्य का सृजन करने को संपादक ने कहा. सभी सहयोगियों ने भाग लिया.काफी दिनों तक चयन समिति विचार करती रही फिर इस सूत्र वाक्य पर आम सहमति बनी .

इस सूत्र वाक्य के चयन और घोषणा  के बाद आन॔द जी की खूब तारीफ हुई .उन्हें संपादकीय विभाग के न्यूज डेस्क से संवाददाता कक्ष मे जाने का सिग्नल भी मिला.काफी सोच विचार के बाद उन्होंने  वहां जाने का फैसला लिया.आज भी उनमें समाचार पढते ही आकर्षक शीर्षक देने की प्रतिभा है.

तब उस अखबार की शुरुआत के दिन थे.पहले समाचार संपादक थे गोपाल मिश्र . खबर तो उनके पीछे रह जाती थी और वे आगे निकल जाते थे.प्रतिभासंपन्न थे.समाचार तो हर क्षण थमाका करते थे लेकिन पहले पेज की पांच बडी खबरें और उनमें मुख्य खबर का चयन करने में वे फिसल जाते . तब देवप्रिय अवस्थी उप समाचार संपादक होते थे. खबरों की पकड उनमें अच्छी थी.संपादक के साथ बैठक में वे अपनी पैनी नजर का सबूत देते और नजरों ही नजरों में शाबासी पाते.आखिर कुछ समय बाद गोपाल मिश्र ने विदा ली. अखबार ने कमान में धीरे धीरे बढता रहा. तब समाचार कक्ष में मैं, सत्यप्रकाश त्रिपाठी और आनंद कुमार होते थे.

संपादकीय विभाग में समाचार के पृष्ठोंके बाद खूब ध्यान दिया जाता था   संपादकीय पृष्ठ पर. बडी मेहनत होती थी .संपादक के साथ सहयोगी थे बनवारी,जवाहर लाल कौल, और सतीश झा . संपादकीय पृष्ठ के सामने के खास खबर / खोज खबर का पन्ना होता था.इसे संभालते थे जगदीश उपासने. वे कोशिश करते कि विभिन्न प्रदेश और मुख्य नगरों की खोज खबर और खास खबर को पेज में स्थान मिले.वे देश भर के लेखक पत्रकारों को ऐसी खबरेंछानबीन करके लिखने के लिए प्रेरित करते थे.आई हुई रचनाओं में से पारखी की तरह वे खबरें तलाशते और छापते .ऐसी खबरें जिन पर आगे भी चर्चा हो.

देश के अलग अलग प्रदेशों से चुने गए  इन पत्रकारों ने एक सहज ,सरल और पाठक का अपना अखबार निकाला. इन लोगों की लगन थी कि एक ही साल में यह अखबार पाठकों की अपनी पसंद बन गया. यह पसंदगी  इसी घराने के बडे अखबार और उससे जुड़े प्रबंधन को नहीं भाई. तभी से शुरुआत हो गई  संपादकीय विभाग में अस्थिरता लाने की. लेकिन संपादक में हिम्मत थी अपनी बात सीधे  मालिक और प्रबंधन से  साफ तौर पर कहने की .इस कारण अखबार चला. चलता रहा. बाद में तो  चंडीगढ , मुंबई  और कोलकाता पहुंच कर इस अखबार ने अपना आधार और  बढाया.

सुना है बाकी राज्यों के शहरों में अब इस अखबार की छाया प्रतियां ही है.दिल्ली जहां यह पैदा हुआ वहां भी अब यह सूक्ष्म हो चला है.अब यह न तो सबकी खबर लेता है और न सबको खबर देता है. एक आंदोलन जिसे अखबार के मालिकों ,प्रबंथकों और बाजार ने खत्म कर दिया.

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Comments

इस टिप्पणी में कुछ तथ्यात्मक चूकें है। गोपाल मिश्र उप समाचार संपादक थे। मैं (देवप्रिय अवस्थी) उप संपादक ही था। ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं एक साल बाद गोपाल जी विदा हुए और मैं मुख्य उपसंपादक पद पर प्रमोट हुआ। उप समाचार संपादक पद मुझे दो साल बाद मिला। संपादकीय पेज पर प्रभाष जी के सहायकों में शुरू में बनवारी , सतीश झा और हरिशंकर व्यास थे। सतीश झा के दिनमान में जाने के बाद उनकी जगह जितेंद्र बजाज ने ली। बजाज के स्चंथानीय संपादक बनकर चंडीगढ़ जाने पर जवाहर लाल कौल आए थे। समाचार कक्ष में सत्यप्रकाश त्रिपाठी के साथ अमित प्रकाश सिंह और परमानंद पांडेय प्रमुख भूमिका में थे। कुमार आनंद, जगदीश उपासने, शंभूनाथ शुक्ल और सुधांशु भूषण मिश्र दूसरी कतार के बांकुरे थे। खेल पेज सुरेश कौशिक, बृजेन्द्र पांडेय और मनोज चतुर्वेदी संभालते थे और व्यापार पेज उमेश जोशी के जिम्मे था। रविवारी जनसत्ता कि प्रभार मंगलेश डबराल के पास था। रिपोर्टिंग टीम के रायबहादुर राय की अगुवाई में काम करती थी जिसके अन्य सदस्य राकेश कोहरवाल, आलोक तोमर, महादेव चौहान और दयाकृष्ण जोशी थे।

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