संजय सिन्हा
प्रणव रावल ने कल मुझसे पूछा कि ये श्रीश जी कौन थे?प्रणव मेरे साथ काम करते हैं.पिछले बीस साल से दिल्ली में हैं और उससे पहले भी दिल्ली में ही रहे हैं.कुछ समय उन्होंने अख़बार में काम किया है और उसके बाद से लगातार इलेक्ट्रानिक मीडिया में हैं.कायदे से उन्हें श्रीश जी के बारे में पता होना चाहिए था.पर उन्हें उनके बारे में नहीं पता था.उन्हें उनके बारे में सबसे पहले इतना ही पता चला कि वो अब इस दुनिया में नहीं रहे.
प्रणव बहुत साल गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में स्थित ‘जनसत्ता अपार्टमेंट’ में रहे हैं.अभी एक साल पहले तक वो वहीं रहते थे.वो वहां के कुछ व्हाट्सएप ग्रुप में जुड़े हैं, फेसबुक पर कुछ जनसत्ताइयों से जुड़े हैं, इसलिए उन्हें इतना तो पता चल ही गया था कि कोई श्रीश जी थे, दो दिन पहले वो नहीं रहे.उन्हें ये भी अंदाज़ा हो गया था कि वो जनसत्ता में थे, इसलिए उन्होंने मुझसे पूछ लिया.
आज के ज़माने में किसी टीवी पत्रकार के पिताजी, दादाजी मर जाएं तो हर मंत्री शोक संदेश भेजने लगता है, वैसे में कभी श्रीश चंद मिश्र जी के लिए ऐसा पूछा जाना कि वो कौन थे मुझे हैरान करने वाला सवाल होना चाहिए था.पर मैं हैरान नहीं था.
प्रणव के पूछने के बाद मैं बहुत देर तक सोचता रहा.श्रीश जी कौन थे? दिल्ली में काम करने वाले छोटे-छोटे पत्रकार तक कुछ-कुछ ऐसा करते रहते हैं कि लोग उन्हें जान जाएं, उनकी कोई पहचान बन जाए, फिर कुछ साल पहले जनसत्ता के स्थानीय संपादक रह चुके श्रीश जी को कोई पत्रकार नहीं भी जानता होगा?
संजय सिन्हा बहुत सोचते हैं.कल भी बहुत देर तक सोचते रहे.मैंने प्रणव से इतना भर ही कहा कि वो जनसत्ता में मेरे बॉस थे.बहुत अच्छे इंसान थे.रात में मैंने अपनी पत्नी से प्रणव के सवाल के बारे में चर्चा की.मेरी पत्नी ने कहा कि ये श्रीश जी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि कोई पत्रकार उन्हें नहीं भी जानता है मेरी पत्नी श्रीश जी को अच्छे से जानती थी.वो इंडियन एक्सप्रेस में रह चुकी है और जनसत्ता के एक-एक व्यक्ति को वो जानती है.उसने मुझसे कहा कि संजय, श्रीश जी सचमुच बेहतरीन इंसान थे.
मैंने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं.वैसे मैं बहुत छोटा हूं श्रीश जी की पत्रकारिता का मूल्यांकन करने के लिए, पर बतौर व्यक्ति इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीश जी जैसा होना असंभव है.बहुत लोग उनके बारे में बहुत कुछ कह चुके हैं, लिख चुके हैं और किसी के इस संसार से चले जाने के बाद उसके मूल्यांकन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है इसलिए मैं मृत्यु बाद लिखने की औपचारिकता नहीं निभाने जा रहा.पर इतना ज़रूर कहूंगा कि दिल्ली में काम करने वाले श्रीश जी के स्तर के पत्रकार की इससे बड़ी उपलब्धि नहीं हो सकती कि उन्हें बहुत से लोग नहीं भी जानते थे.
ये उनका व्यक्तित्व था.कभी लाइम लाइट में नहीं रहना.कभी आगे बढ़ कर अपने को प्रोजेक्ट नहीं करना.कभी खुद को नहीं थोपना.छोटे से छोटे व्यक्ति को उसके बड़ा होने का अहसास कराना.मैंने बहुत पहले आपको एक घटना बताई थी और पहली बार श्रीश जी का ज़िक्र किया था तब ये लिखा था कि वो श्रीश जी ही थे जो आसानी से अपनी गलतियों को भी स्वीकार कर लेते थे.और वो भी कब, जब वो न्यूज़ एडिटर थे और गलती बताने वाला सब एडिटर.अखबार की दुनिया में बहुत फासला होता है न्यूज़ एडिटर और सब एडिटर के बीच.
श्रीश जी को फिल्मों का बहुत शौक था.आज मैं याद करने बैठा हूं तो अब लग रहा है कि मेरे भीतर फिल्म और फिल्मी कलाकारों के लिए शौक जगाने वाले श्रीश जी ही थे.कभी विस्तार से पूरी कहानी बताऊंगा.आज तो इतना ही कि श्रीश जी ने ‘आशिकी’ फिल्म का रिव्यू लिखा तो उसमें लिख दिया कि पोस्टर पर मौजूद दृश्य जिसमें एक जैकेट के नीचे हीरो-हीरोइन दोनों हैं, फिल्म में है ही नहीं.अगले दिन मैं फिल्म देख कर आया तो मैंने श्रीश जी से कहा कि आपने गलत लिख दिया कि वो दृश्य फिल्म में नहीं.वो फिल्म का आख़िरी दृश्य है.
श्रीश जी ने मेरी ओर देखा.फिर उन्होंने तुरंत कहा, ओह! बहुत बड़ी गलती हो गई.मैं फिल्म खत्म होने के दो मिनट पहले हॉल से निकल गया था.पर अब ध्यान रखूंगा कि फिल्म पूरी देखूं तभी कोई बात लिखूं.
श्रीश जी ने मुझसे पहली बार पूछा था कि क्या आपको फिल्मों में दिलचस्पी है?मैंने कहा था कि फिल्म कौन नहीं देखता? लोग फिल्म देखते हैं, तभी तो कलाकार भगवान बने बैठे हैं.श्रीश जी मुस्कुराए थे.उसके बाद उन्होंने मुझे कई असाइनमेंट पर भेजा.सबसे पहले फिल्म अभिनेता संजय खान की शूटिंग पर राजस्थान उन्होंने ही मुझे भेजा था.लंबी कहानी है.अभी तो इतना ही कहूंगा कि श्रीश जी गुमनामी को पसंद करते थे.अपना काम करते थे और जिनसे उनकी दोस्ती थी, उनके साथ करीब-करीब रोज़ एक बार चाय पीते थे, पान खाते थे.पूरे ऑफिस में वो सभी के थे.ऑफिस में काम करते हुए भी आदमी किसी के बहुत करीब हो जाता है.कुछ लोग खास दोस्त हो जाते हैं.पर श्रीश जी सभी से बहुत स्नेह रखते थे.
मुझे याद आ रहा है कि उस दिन फोन पर मेरे पिताजी के मरने की ख़बर आई थी.मैं रो रहा था.
दोपहर की फ्लाइट से मुझे अहमदाबाद जाना था.घर के फोन पर घंटी बजी थी.मेरी पत्नी ने फोन उठाया था.
“संजय, श्रीश जी बात करना चाहते हैं.”
मैंने कुछ नहीं कहा था.फोन पर बस रो रहा था.उधर से आवाज़ आई, “संजय, यही जीवन है.”
मेरा मन कर रहा था और रोऊं.मन में बार-बार ख्याल आ रहा था कि मैं किसी तरह मर सकूं.अगर मर जाऊंगा तो पिताजी से मिल लूंगा.
पर कानों में गूंज रहा था “यही जीवन है.”
आज सोचता हूं तो लगता है कि उस फोन पर श्रीश जी के कहे उन तीन शब्दों में जीवन का भाव समाहित था.
मैंने कुछ नहीं कहा था.दोपहर की फ्लाइट से अहमदाबाद गया, फिर वहां से बड़ौदा.पिताजी बड़ौदा में थे.
कई दिनों बाद बड़ौदा से दिल्ली आया.उस दिन शाम की शिफ्ट में ऑफिस पहुंचा था.मन उदास था.श्रीश जी सामने बैठे थे.मैं शुक्ला शंभूनाथ जी के साथ राज्यों का पन्ना देख रहा था.
नौ बजे होंगे, ऑफिस थोड़ा खाली हो चुका था.अचानक श्रीश जी मेरे सामने आकर बैठ गए.उन्होंने कुछ नहीं कहा.थोड़ी देर मेरी ओर देखते रहे, फिर उन्होंने कहा, “यही जीवन है.जो आता है, उसे जाना होता है.अपना ख्याल रखना.”
अपना ख्याल रखना.बतौर मनुष्य श्रीश जी की ये सबसे बड़ी उपलब्धि थी.वो भावनाओं का इज़हार कम करते थे.पर उनमें करुणा का अद्भुत संचार बहता था.मैंने उन्हें कभी किसी की बुराई करते या किसी का नुकसान करते नहीं देखा.एक आदमी की इससे बड़ी उपलब्धि ही नहीं हो सकती कि उसकी बुराई कोई न करे.मैंने पीठ पीछे भी श्रीश जी की निंदा करते किसी को नहीं सुना.वो भी तब जब वो लगातार बॉस वाली स्थिति में रहे हों.आम तौर पर लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले को कभी न कभी निंदा का सामना करना पड़ता है, पर श्रीश जी सभी के प्रिय थे.दूर-दूर से आए स्ट्रिंगर तक श्रीश जी के पास बैठ सकते थे.इंटर्न तक उनसे बात कर सकते थे.श्रीश जी मुंह में पान दबाए, उसकी बात सुनते रहते थे, ख़बरें छांटते रहते थे.
संजय कुमार सिंह ने अपनी एक टिप्पणी में लिखा है कि वो सभी के लिए शॉक एब्जार्बर थे.ये बात पूरी तरह सच है.हड़ताल के दिनों में हमें लगता था कि वो हड़तालियों के साथ खड़े हैं.प्रबंधन को लगता था कि वो तो मैनेजमेंट के साथ हैं.श्रीश जी में संतुलन बनाए रखने की विलक्षण प्रतिभा थी.उनका सुख-दुख कुछ नहीं था.लोग सबसे अधिक उन्हें ही जानते थे.लोग सबसे कम उनके बारे में ही जानते थे.उन्होंने कभी दावा नहीं किया को वो सबसे काबिल पत्रकार हैं, उन्होंने कभी इस बात की तकलीफ नहीं मनाई कि कोई उनसे अधिक योग्य पत्रकार है.सही शब्द का प्रयोग अगर संजय सिन्हा करेंगे तो वही यही होगा कि वो सही मायने में स्थितप्रज्ञ थे.
मैं पत्रकारिता में इस कारण आया था क्योंकि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी थी.अगर मैं सबसे पहले जनसत्ता में नहीं आया होता तो बहुत पहले पत्रकारिता छोड़ कर भाग गया होता.पर जनसत्ता में मैंने सीखा था कि आदमी को अपने में खुश रहने की विद्या आनी चाहिए.खास कर डेस्क पर नौकरी करते हुए मैंने बहुत लोगों से बहुत कुछ सीखा.श्रीश जी से सीखा अपना आपा कभी नहीं खोना चाहिए.गुमनामी भी एक तरह का नाम है.किसी का बुरा नहीं सोचना, किसी की बुराई नहीं करना, जिसमें जो अच्छा है उससे उसके हिसाब से काम लेना ये सब श्रीश जी का सिखाया हुआ है.कठिन से कठिन परिस्थिति में विचलित नहीं होना और जितने दिन, जब तक काम करें, उसमें ईमानदारी नहीं खोना ये श्रीश जी से कोई भी सीख सकता था.
श्रीश जी कौन थे?
कहने को मैं प्रणव से कह सकता था कि वो जनसत्ता के स्थानीय संपादक थे.उससे पहले वहीं न्यूज़ एडिटर थे.उससे पहले चीफ सब एडिटर थे.उससे पहले सब एडिटर थे.पर मैंने सिर्फ इतना ही कहा वो वो अच्छे इंसान थे.
मेरी मां ने बचपन में मेरे पूछे एक सवाल कि मैं बड़ा होकर क्या बनूंगा, के जवाब में कहा था कि तुम अच्छे इंसान बनना बेटा.मां ने कहा था कि आदमी कुछ भी बन जाए, पर अगर वो अच्छा इंसान नहीं बना तो फिर उसका कुछ भी बनना व्यर्थ हो जाता है.
श्रीश जी एक अच्छे इंसान थे.मैंने कहा न कि उनके काम का मूल्यांकन करने के लिए मैं बहुत छोटा इंसान हूं.पर उनकी जब भी याद आएगी, यही कि वो सचमुच बहुत अच्छे इंसान थे.दुनिया को फिलहाल अच्छे लोगों की ही अधिक ज़रूरत है.ऐसे में श्रीश जी का जाना दिल दुखाने वाला है.पर यही जीवन है.
मेरे पास श्रीश जी कई तस्वीरें हैं.कल रात मैंने हर तस्वीर को गौर से देखा.हर तस्वीर में वो खुद पीछे हैं.उन्होंने कभी खुद को किसी से आगे करने की कोशिश ही नहीं की.वो पीछे रह कर अपना काम करने में यकीन रखते थे.अच्छे लोग ऐसे ही होते हैं.
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