शेखर गुप्ता
‘मेरे दोस्त अरुण जेटली’ के लिए शोक संदेशों की जो बाढ़ आएगी वही बता देगी कि जो जीवन दुखद रूप से इतना छोटा रहा वह कितनी बड़ी सार्वजनिक हस्ती का था. मैं भी पढूंगा उन शोक संदेशों को, और कृपया आप भी पढिएगा. अगर वे संदेश यह नहीं बताते कि उनकी दोस्ती राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताओं से ऊपर थी, तो मैं आपको इतना ही बताना चाहूंगा कि उनके अध्ययनकक्ष में उनकी मेज पर दो लोगों के ही चित्र रखे होते थे— माधवराव सिंधिया और ललित सूरी के.अब इसके आगे मैं आज के लिए राजनीति से किनारा कर रहा हूं और उनके जीवन के सबसे प्रेरणादायी पहलू के बारे में ही लिखूंगा.
महज 15 वर्षों-51 वर्ष की जवानी से 66वें साल- के भीतर जेटली ने ऐसी गंभीर बीमारी का सामना किया जिसका सामना शायद ही किसी सार्वजनिक हस्ती ने किया होगा. लेकिन क्या किसी ने उन्हें इसकी शिकायत करते सुना? क्या उनके चेहरे पर कभी आत्मदया की कोई झलक मिली? क्या कभी उन्हें हताश होकर यह कहते हुए सुना गया कि आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ?
आपने सबसे लाचार कर देने वाली, घातक बीमारी से लड़ाई को हल्के में लेते हुए केवल फिल्मों में देखा होगा, जैसे ‘आनन्द’ में राजेश खन्ना को. असली ज़िंदगी में सेहत के मामले में भगवान कम ही लोगों से इतनी क्रूरता से पेश आता है. 2005 में लोदी गार्डन में टहलते हुए जब वे बेहोश होकर गिर पड़े थे तभी से यह बड़ी बीमारी शुरू हुई और उसके बाद उनकी चार बाइपास सर्जरी हुई, वजन कम करने और डाइबिटीज़ को काबू में करने के लिए उन्होंने 2014 में जब सर्जरी करवाई तो छाती में इन्फेक्शन ने उन्हें लाचार कर दिया, पिछले साल उन्होंने किडनी ट्रांसप्लांट कारवाई, और इस साल अपने घुटने और जांघ के बीच कनेक्टिव टिशू कैंसर के लंबे इलाज के लिए वे न्यूयॉर्क के मेमोरियल स्लोन केटरिंग अस्पताल में भर्ती रहे.
हमें लगता है कि यह बेहद घातक, उग्र ‘क्लियर सेल कार्सिनोमा’ नामक कैंसर था. अमेरिकी सर्जनों ने सोचा कि उन्होंने इस राक्षस को मार डाला है. यह सब उस शरीर के साथ हो रहा था, जो अभी नई किडनी को कबूल करना सीख रहा था और बीमारी से लड़ने में बेहद कमजोर हो चुका था.अंग प्रत्यारोपण के बाद शरीर की रोग रोधक क्षमता को दबाने के लिए बेहद कड़ी स्टेरोएड दवाएं दी जाती हैं ताकि शरीर नए अंग को खारिज न करे. कड़ी स्टेरोएड दवाओं, नई किडनी पर चल रहे शरीर को कैंसर की लंबी एवं कठिन सर्जरी और इसके साथ जुड़ी चुनौतियों को झेलना पड़ा. इस सबकी कल्पना भी आपको कंपा देगी.
लेकिन करीब दो महीने पहले लौटे जेटली हमेशा की तरह मुस्कराते, गपशप करते दिखे, बेशक अब वो बात नहीं थी. ऐसा नहीं है कि वे अपनी बीमारी के बारे में बात नहीं करना चाहते थे. वे अपनी पीड़ा को छिपाने की कोशिश नहीं करते थे. आप उनसे जितना पूछने की हिम्मत करते, उससे ज्यादा वे बताते और ज्यादा विस्तार से बताते. यह कि उनके डॉक्टर कितने काबिल थे, आधुनिक सर्जरी और दवाएं कितनी महान हैं, सेना के डॉक्टर और नर्स 24 घंटे कितने समर्पण के साथ उनकी देखभाल करते थे, सिर्फ इसलिए कि वे पूर्व रक्षा मंत्री थे. वे बताते कि किडनी प्रत्यारोपण एक झोंके में किस तरह हो गया, न कोई दर्द हुआ और न कोई परेशानी हुई.
वे कहते, अगर आपको मेरी बातों पर यकीन नहीं है तो सुषमा (स्वराज) से पूछ लीजिएगा. एम्स के डॉक्टर कितने माहिर हैं! फिर वे बताते कि इन डॉक्टरों ने सबसे मशहूर अमेरिकी डॉक्टरों के मुक़ाबले कितनी ज्यादा संख्या में किडनी ट्रांसप्लांट किए हैं. मानो वे क्रिकेट खिलाड़ियों के स्कोरों की तुलना कर रहे हों.लेकिन कैंसर का इलाज सफल नहीं हुआ. उस मारक कैंसर का कोई दुष्ट ‘सेल’ (कोशिका) स्लोन-केटरिंग में हुई सर्जरी से अछूता रह गया और उनके फेफड़े में घुस गया. दो महीने के अंदर ही एम्स के डॉक्टरों ने अपने निदेशक और भारत के अग्रणी चेस्ट स्पेशलिस्ट रणदीप गुलेरिया के नेतृत्व में पता लगा लिया कि उनके फेफड़े में खतरनाक द्रव बड़ी मात्रा में इकट्ठा हो गया था. स्लोन-केटरिंग के सर्जन इस द्रव को बाहर निकालकर फेफड़े को साफ नहीं कर पाए थे. और जेटली वापस आ गए थे. लेकिन वे बेहद आक्रामक नई किस्म की कीमोथेरेपी पर थे.
उनसे आखिरी बार मैं नई दिल्ली की कैलाश कॉलोनी में उनके अपने घर पर मिला था (उनके परिवार ने उन पर 2, कृष्णमेनन मार्ग वाले सरकारी निवास को वास्तुदोष के कारण छोड़ने का दबाव डाला था), और उनके चेहरे पर दर्द या निराशा की कोई लकीर नहीं थी. वे कह रहे थे— ‘मैं अब ओरल कीमो पर हूं, नसों के जरिए कीमो खत्म हो गया है, खाने-पीने की सभी रोक हट गई है इसलिए मैंने आपके और अपने लिए समोसा मंगवाया है. एम्स के डॉक्टर कमाल के हैं, दुनिया में सबसे अच्छे! उन्होंने वह द्रव 10 मिनट में निकाल दिया जबकि स्लोन-केटरिंग वाले नहीं निकाल पाए, या दो हफ्ते तक शायद इसकी हिम्मत नहीं कर पाए. अब छह हफ्ते और, तब पता चल जाएगा कि मेरे कीमो का कितना असर हुआ है….’ वे बताते रहे.
वे रोज-रोज की राजनीति से काफी कट गए थे लेकिन उन्होंने काफी स्नेह के साथ बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर शाम फोन करके उनका हालचाल पूछते हैं, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों. उन्होंने कहा कि वे हर दिन केवल चार लोगों से मिलते हैं, जिनके साथ वे समय बिताना चाहें. ‘आपसे ठीक पहले (अर्थशास्त्री) अरविंद पानागढिया आए थे.’
लेकिन जब वे सियासत, क्रिकेट, और हस्तियों से घिरे होते थे तब क्या बातें करते थे? हिन्दी फिल्मों, और खासकर पुराने हिन्दी फिल्मी गानों की. हमारी शामों की रंगत बदल डालने और उन्हें प्राइम टाइम के लटके-झटकों से मुक्त करने के लिए हम उनके हमेशा आभारी रहेंगे. वे कहा करते, प्राइम टाइम की खबरों की जगह सोनी मिक्स चैनल देखिए. उनके लिए रात 9 बजे से आधी रात तक पुराने फिल्मी गानों का टीवी कार्यक्रम ‘रैना बीती जाए’ चलता था. उनके पास पचास से लेकर सत्तर के दशक तक के गानों का बड़ा भंडार है, और उनके मुताबिक इनसे अच्छी चीज आप नहीं देख सकते. वे ठीक कहते थे.उनसे आखिरी मुलाक़ात में मैं उनके प्रति आभार स्वरूप संगीतकार सचिनदेव बर्मन की प्रामाणिक जीवनी ले गया था, जिसे अनिरुद्ध भट्टाचार्य तथा बालाजी विट्ठल ने लिखा है.दि प्रिंट
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