संजय कुमार सिंह
दैनिक भास्कर में जम्मू व कश्मीर के राज्यपाल का इंटरव्यू पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपा है. शीर्षक है, फोन और इंटरनेट देश के दुश्मनों के लिए हथियार, हम अपना ही गला काटने के लिए उन्हें ये हथियार नहीं पकड़ा सकते: राज्यपाल. अव्वल तो राज्यपाल ने ऐसा किस आधार पर कहा है, यह पता नहीं है. इसलिए संबंधित रिपोर्टर का काम था कि राष्यपाल से सवाल पूछकर इस मामले को स्पष्ट करता. पर ऐसा कुछ नहीं किया गया है और मेरे जैसा पाठक यह सोच रहा है कि इंटरनेट और फोन अगर सरकार के खिलाफ हथियार है तो आमलोगों को यह सुविधा क्यों उपलब्ध है?
वैसे तो अनुभवी राज्यपाल इस कुर्सी पर 30 साल बाद बैठने वाले कोई राजनेता बताए गए हैं और उन्हें यह कहा बताया गया है, फोन-इंटरनेट उपद्रवियों, दुश्मनों और पाकिस्तानियों का हथियार है. सवाल उठता है कि जहां यह सुविधा है, वहां क्या वहां कोई भी देश का दुश्नमन नहीं हैं? या जहां यह सुविधा बंद की गई है वहां कोई देश भक्त है ही नहीं? यह सब कब और कैसे तय हुआ? हेमंत अत्री/उपमिता वाजपेयी की बाईलाइन वाली इस बातचीत के साथ अखबार ने दावा किया है, घाटी के मौजूदा हालातों पर राज्यपाल ने पहली बार किसी अखबार से बात की. आवश्यक सूचनाओं के बिना राज्यपाल ने दैनिक भास्कर को चुना और उसने बिना सूचना की बातचीत छापी - यह पूरी तरह अखबार और राज्यपाल के बीच का मामला है.
पाठक को इस पहली बातचीत से क्या मिला? दुनिया जानती है कि प्रधानमंत्री प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते हैं. उन्हीं का बनाया एक राज्यपाल जब किसी अखबार से बात करे तो सूचनाएं ऐसी आनी चाहिए जो आम तौर पर उपलब्ध नहीं हैं. अखबार का काम फोन और इंटरनेट कनेक्शन जैसी बुनियादी जरूरतों से मोहताज किए जाने का कारण बताना नहीं है. उसे हर कोई जानता और समझता है. खास बात यह है कि अखबार ने इस जवाब से संबंधित बुनियादी सवाल तक नहीं पूछे. क्या कश्मीर के सभी नागरिक देश के दुश्मन हैं? मुमकिन है, (राज्यपाल समेत) देश भक्तों के फोन और इंटरनेट चल रहे हों और इसी तरह देश के दूसरे हिस्सों में देश के दुश्मनों के बंद हों – अगर ऐसा है तो खबर यह है. और शीर्षक यही होना चाहिए था.
अगर अखबार वाकई एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करना चाहता था तो मूर्ख या बिल्कुल अनजान बनकर भी दो चार कायदे के सवाल पूछने चाहिए थे वरना पहली बार की इस बातचीत में खबर कुछ नहीं है. उदाहरण के लिए, राज्यपाल से सवाल था - आपको अनुच्छेद-370 हटाने की जानकारी कब मिली? जवाब है, मैं जब यहां आया, चर्चा तभी से थी कि 370 हटेगा. मैंने यहां के राजनेताओं को बता दिया था. यह कोई जेब से निकाला हुआ फैसला नहीं है. इसे संसद में लाया गया. वोटिंग हुई, तब जाकर अनुच्छेद हटाया गया. अगर आपको लगता है कि यह सवाल का पूरा और सही जवाब है, या आप यह बात नहीं जानते थे, तो मैं कुछ नहीं कर सकता. मैं इंटरव्यू कर रहा होता तो यह जरूर पूछता कि जब कश्मीर में भारी सुरक्षा बलों की तैनाती हुई थी तो यह क्यों कहा गया था कि यह रूटीन है.
तीन अगस्त 2019 की बीबीसी की एक खबर के अनुसार, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने शनिवार को (यानी तीन अगस्त को ही) नेशनल कॉन्फ़्रेंस के प्रतिनिधिमंडल से मिलने के बाद बयान जारी किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि उन्हें किसी संवैधानिक प्रावधान में बदलाव की ख़बर नहीं है. अगर बातचीत करने वालों को यह खबर नहीं थी तो क्या उन्हें राज्यपाल से बातचीत करने का हक है? और अखबार बता रहा है कि राज्यपाल ने पहली बार किसी अखबार से बात की. मेरा मानना है कि राज्यपाल ने इसलिए बात की होगी कि उन्हें पूरा आश्वासन होगा कि परेशान करने वाले सवाल नहीं पूछे जाएंगे. अखबारों के लिए तो ऐसे इंटरव्यू ईमेल और व्हाट्सऐप्प से भी हो सकते हैं. तीन अगस्त वाली खबर के बाद कश्मीर में जो सब हुआ उसमें राज्यपाल से बात करने का कोई मतलब ही नहीं था पर पाठकों को बेवकूफ समझते हुए ऐसे सवालों का दिखावा हद दर्जे की बेशर्मी है.
आइए, बातचीत का एक और सवाल देखें - चुनाव कब होंगे? केंद्रशासित प्रदेश की प्रक्रिया कब पूरी होगी? चुनाव नए परिसीमन के आधार पर होंगे. परिसीमन आयोग का गठन किसी भी वक्त हो सकता है. इसमें छह महीने से एक साल तक लगेगा. उसके बाद चुनाव होंगे. यूटी की प्रक्रिया 31 अक्तूबर तक पूरी हो जाएगी. इसमें एक ही सूचना पक्की है कि एक राज्य को बांट कर दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और यही वह काम है जो इस सरकार ने पहली बार किया है. बाकी जवाब अनुमान और सर्वविदित है, सामान्य समझ से मैं भी यही जवाब देता. 31 अक्तूबर की तारीख भी छह अगस्त को लगभग सभी अखबारों में छपी थी. ऐसे में 14 अगस्त को छपने वाले इंटरव्यू या बातचीत में यह पुरानी जानकारी है. स्थान की कमी के कारण मैं यहां सभी सवालों और उनके जवाब की चर्चा नहीं कर सकता लेकिन ये सब शुरुआती सवाल है और उसी क्रम में हैं. लोकतंत्र का रामनाम सत्य है.
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