कश्मीर में अलगाव बढेगा या घटेगा ?

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कश्मीर में अलगाव बढेगा या घटेगा ?

संदीप पांडेय 

नई दिल्ली . केंद्र सरकार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 370 व 35ए, जो 1947 में भारत और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के बीच कश्मीर के भारत के साथ विलय के समय हुए समझौते के आधार पर बने था, को कमजोर करने की कोशिश जम्मू व कश्मीर के लोगों के साथ विश्वासघात माना जाएगा.  जम्मू व कश्मीर का विशेष दर्जा उस समझौते की आत्मा है जिसके आधार पर जम्मू व कश्मीर भारत के साथ मिलने को तैयार हुआ.  वहां के लोग भारत के साथ ही रहना चाहते थे यह इस बात से स्पष्ट है कि जम्मू व कश्मीर के संविधान में इस बात का उल्लेख है कि जम्मू व कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है जो बात भारत के संविधान में भी नहीं लिखी गई है.  किंतु हिन्दुववादियों ने एक अभियान चलाकर जम्मू व कश्मीर को बदनाम किया जैसे मानो उसके विशेष दर्जे के कारण उसे कोई अतिरिक्त सुविधा मिल रही है.  हकीकत तो यह है कि भारत सरकार की नीतियों के कारण जम्मू व कश्मीर के साथ हुए समझौते की कई बातों की अवहेलना हुई और वास्तव में जम्मू व कश्मीर एक समस्याग्रस्त राज्य बन गया जो लगातार अस्थिरता व हिंसा का शिकार रहा है.  संविधान के अनुच्छेद 370 व 35ए के साथ जम्मू व कश्मीर के लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं और इनके साथ छेड़-छाड़ यहां के लोगों में भारत सरकार के खिलाफ और अधिक अलगाव पैदा करेगा जिससे परिस्थियां बिगडे़ंगी ही. 


       जम्मू व कश्मीर के धार्मिक आधार पर दो टुकड़े कर और उन्हें केन्द्र शासित क्षेत्र का दर्जा देना हास्यासपद व वहां के लोगों के साथ क्रूर मजाक है.  जबकि शेष भारत में कई जगहों पर जनता छोटे राज्यों की मांग कर रही है, जैसे उत्तर प्रदेश में मायावती के मुख्य मंत्रित्व काल में राज्य को चार छोटे राज्यों में बांटने का प्रस्ताव विधान सभा से पारित है, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र की पृथक राज्य की पुरानी मांग है, उत्तर कर्नाटक की पृथक राज्य की मांग है, इन मांगों को न मान, जम्मू व कश्मीर पर विभाजन थोपना गैर लोकतंात्रिक है.  राज्य का विशेष दर्जा समाप्त कर उसे सामान्य राज्य के भी दर्जे से वंचित कर एक केन्द्र शासित क्षेत्र बना देना, जिसमें अब पुलिस भी राज्य सरकार के अधीन नहीं रहेगी, देश के अन्य केन्द्र शासित क्षेत्रों द्वारा पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने और दिल्ली जैसे प्रदेश द्वारा पूर्ण राज्य की मांग के माध्यम से सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के प्रयास से उल्टी दिशा में प्रक्रिया चलाई गई है.  साफ है कि केन्द्र नहीं चाहता कि जम्मू व कश्मीर में लोकतंत्र बहाल हो.  वह उसे लकवाग्रस्त राज्य और अपने ऊपर आश्रित ही बनाए रखना चाहता है ताकि जब चाहे वहां मनमानी कर सके.  जम्मू व कश्मीर में जो किया जा रहा है वह सत्ता का केन्द्रीयकरण है जिसके परिणाम हमेशा बुरे होते हैं. 

       कश्मीर में लम्बे समय से सेना व अर्द्ध-सैनिक बलों की उपस्थिति से हालात कभी सामान्य नहीं हुए.  उल्टे कई मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं हुईं जिससे आम जन का भारत सरकार से मोह भंग हुआ.  हाल के वर्षों में छर्रे वाली बंदूकों का इस्तेमाल तो निर्दयता की हद है.  क्या भारत सरकार इस किस्म के हथियारों का प्रयोग देश के किसी भी अन्य हिस्से में किन्हीं प्रदर्शनकारियों के खिलाफ करेगी? यह दिखाता है कि भारत ने कश्मीर के लोगों के साथ हमेशा भेदभाव किया है और उन्होंने अपने साथ होने वाले अत्याचार को बरदाश्त किया है. 

       जम्मू व कश्मीर के लोग जब आजादी की बात करते हैं तो केन्द्र सरकार उनका दमन करती हैं.  आजादी तो दूर वह उन्हें स्वायत्ता भी देने को तैयार नहीं.  किंतु स्वायत्ता कौन नहीं चाहता? जो विशेष दर्जा जम्मू व कश्मीर को मिला है वह तो हरेक राज्य को मिलना चाहिए.  जम्मू व कश्मीर के अलावा दस अन्य राज्यों के लिए भी अनुच्छेद 371 के तहत विशेष प्रावधान किए गए हैं.  संविधान के अनुच्छेद 243 के अंतर्गत तो ग्राम सभा के स्तर पर भी स्वशासन की कल्पना है.  पूर्व में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि राज्यों ने अपनी स्वायत्ता का एहसास कराया है.  राबड़ी देवी व ममता बैनर्जी जैसी मुख्य मंत्रियों ने अपने को प्रधान मंत्री के अधीन मानने से इंकार किया है.  कर्नाटक की सिद्दारमैया सरकार ने राज्य का अलग झंडा बना लिया था और जम्मू व कश्मीर के बाद दूसरा ऐसा राज्य बन गया.  नागालैण्ड भी अलग संविधान व झण्डे की मांग कर रहा है.  वह भारत के अधीन नहीं बल्कि भारत के साथ सह-अस्तित्व चाहता है.  तमिल नाडू की सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तीन भाषा फार्मूले के बजाए अपने हिन्दी विरोध के कारण सिर्फ दो भाषा फार्मूला मानती है.  क्या ऐसे निर्णयों से देश की एकता और अखण्डता खतरे में पड़ जाती है? फिर हम जम्मू व कश्मीर की स्वायत्ता की चाहत को लेकर इतना परेशान क्यों होते हैं? इस देश में ऐसे भी लोग हैं जो देश के कानूनों की खुले आम धज्जियां उड़ाते हैं और सरकारें उनका साथ देती हैं क्योंकि वे शासक दल से जुड़े हुए होते हैं.  ताजा उदाहरण उन्नाव के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का है.  देश और दुनिया में चहुं तरफ उसके कृत्यों की निंदा हो रही है लेकिन उन्नाव में उसकी जनता पर पकड़ कायम है.  लोग डर से उसके खिलाफ बोलने को तैयार नहीं.  क्षत्रिय महासभा जिसमें भाजपा के नेता भी शामिल हैं उसको निर्दोष बता रही है.  पूर्व में उसके सहयोगी उन्नाव जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों पर एक से ज्यादा बार गोली भी चला चुके हैं.  लेकिन इस किस्म के स्वंभू अराजक लोगों से हमें इतना खतरा नहीं लगता जितना कश्मीर की महिलाओं-बच्चों द्वारा सुरक्षा बलों पर पत्थर चला देने से.  क्यों? क्या यह कश्मीर के लोगों के साथ धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं है जो एक किस्म की राजनीति है जिसने आज देश को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया है? हम ऐसी राजनीति का साथ क्यों देते हैं?

       जम्मू व कश्मीर के साथ संवैधानिक व भौतिक दोनों ही प्रकार की छेड़छाड़ जम्मू व कश्मीर व भारत दोनों के लिए ही ठीक नहीं है.  जम्मू व कश्मीर में पूर्व की स्थिति को बहाल किया जाना चाहिए, तुरंत चुनाव कराए जाने चाहिए, सुरक्षा बलों को जम्मू व कश्मीर के अंदरुनी इलाकों के हटाया जाना चाहिए, कश्मीर के लोगों, संगठनों व राजनीतिक दलों के साथ बातचीत कर ऐसा हल निकाला जाना चाहिए जिससे जम्मू व कश्मीर में परिथितियां सामान्य हो सकें. 


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