अंबरीश कुमार
इंदु जी ,इंदु जी क्या हुआ आपको
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
यह नागार्जुन की कविता है .जेपी की वाहिनी वाले खूब गाते थे अन्य बहुत से गीत भी .इसे सुनाने के चक्कर में अपने महात्मा भाई को पुलिस उठा ले गई थी .वे महात्मा भाई चले गए.बहुत खला यह सुनकर . अपनी कई मुलाकात रही पर एक बार की लंबी मुलाकात यादगार रही . एक महीने तक रामगढ़ में साथ रहे . करीब एक दशक तो हो ही गया है . छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के पुराने साथी हर एक दो साल में मिलते हैं .मित्र मिलन के नाम से . जब 2010 में उत्तर प्रदेश में यह मित्र मिलन होना था तो वाहिनी के साथी राजीव हेम केशव इंतजाम में जुटे . गर्मियों के दिन थे मैंने सुझाव दिया क्यों न रामगढ़ में कर लिया जाए .राजीव ने कहा करीब साठ सत्तर लोगों के लिए चार दिन रुकने और खाने पीने का इंतजाम करना होगा . पर इस सब में वाहिनी के मित्र लोग मदद करेंगे .वाहिनी के आंदोलनों और कार्यक्रमों से अस्सी से जुड़ा रहा हूं . बोध गया में कई बार सम्मेलनों और तरह तरह के कार्यक्रमों में देखा था कैसी व्यवस्था होती है. मैंने कहा कि कुछ लोग साथ पहले चले तो इंतजाम कर लेंगे . लखनऊ से निकले तो अवधेश राजीव से लेकर महात्मा भाई तक सब जुटे .अवधेश तराई के किसान भी हैं दो बोरा बासमती जैसा अच्छा चावल अरहर की दाल और आटा गाड़ी में रखवा दिया . लखनऊ से गए मुरादाबाद तो वाहिनी के साथी राकेश रफीक मीनाक्षी आदि ने और सामान मसलन तेल घी आदि के साथ अपना कुक भी दे दिया महीने भर के लिए . सारे सामान के साथ रामगढ़ पहुंच गए . यही से महात्मा भाई की भूमिका शुरू हुई . महात्मा भाई बोले ,मसाला पीसने का कोई इंतजाम नहीं दिख रहा है तो बताया दो मिक्सी नमी की वजह से खराब हो गई है . उनका जवाब था ,हम लोग तो लोढ़े से मसाला पीसते हैं . सब मसाला तो पीसा हुआ मिल भी जाए पर सरसों तो पीसना ही होगा तो मैंने पूछा किसलिए ? जवाब था आर मछली कैसे बनेगी बिना सरसों लहसुन पीसे हुए . मुझे लगा था ये लोग शुद्ध सात्विक भोजन वाले होंगे पर यह मछली कहां मिलेगी ?
मैंने महात्मा भाई को दिक्कत बताई . बोले बाजार कितनी दूर है भवाली की हमने बताया तेरह किलोमीटर . फिर उन्होंने सूची बनाई . सौ लीटर पानी का ड्रम . पाँच सौ पत्तल ,सिल बट्टा ,मिट्टी का हजार कुल्हड़ . कसोरा आदि आदि . हल्दी ,नमक सबूत वाला लाल मिर्च ,पोस्ता आदि आदि . ज्यादातर सामान मिल गया .सिल बट्टा बड़ा सा था उसे बगल में जो एक दो मंजिल पहाड़ी शैली का घर लिया था उसके दालान में आड़ू के पेड़ के नीचे स्थापित कर दिया . यहीं पर लोगों को रुकना था दस बारह हजार में यह जगह महीने भर के लिए मिल गई थी . रजाई गद्दा तकिया सब टेंट वाला ले आया . पर महात्मा भाई रात में अपने यहाँ रुकते और किस्से सुनाते . बात खानपान की आई तो बताया इमरजंसी में जन कवि नागार्जुन के साथ वे जेल में थे . अपराध यह था कि इन लोगों में पहली आजाद जिला सरकार का ऐलान कर दिया था . खैर जेल में महात्मा भाई ही बाबा नागार्जुन का खाना बनाते . खाने के बाद उनका गाने का कार्यक्रम होता क्रांतिकारी गीतों का . पहाड़ पर जब वे गाते तप पहाड़ के लोक गीत गाने वाले गिर्दा की याद आती .महीने भर साथ रहे महात्मा भाई . अपनी छोटी सी रसोई उनके हवाले थी . चाय से लेकर सब्जी रोटी ,बघार लगी दाल तक सब वे बनाते . साथ जो रसोइया आया था उसके लिए भी . खाने के बाद मीठा भी जरूर बनाते . फिर किस्सागोई का दौर शुरू होता . जेपी के किस्से और जेपी आंदोलन के किस्से सुनाते . वे चाहते तो बिहार में विधायक मंत्री हो जाते पर वे आंदोलन के कार्यकर्ता ही बने रहे . किसी फकीर की तरह . पहाड़ पर आए तो गर्म कपड़े नहीं थे हमने कहा ,गांधी आश्रम से लेते है तो बोले एक खादी की जैकेट टंगी तो है . मैंने संकोच में कहा यह पुरानी है तो जवाब था ,मेरा काम इससे चल जाएगा क्यों फालतू में खर्च करना . इंतजाम उन्ही के हवाले था नाप तौल कर राशन देते रसोइये को . कोई भी सामान खराब नहीं ही खाना बचना नहीं चाहिए . संगठन के आदमी थे ,जमीन के आदमी थे . वाहिनी के उस सम्मेलन में पूर्व केंद्रीय मंत्री भक्त चरण दास से लेकर शुभा शमीम ,प्रभात ,अनुराधा ,मीनाक्षी ,जैसे दर्जनों आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता शामिल हुए थे . यह महात्मा भाई का ही इंतजाम था किसी को कोई असुविधा नहीं हुई और हमे सीखने को मिल उनसे जो आम आदमी की बात करते गांव की बात करते . जेपी आंदोलन से निकली ताकतों के हश्र पर दुखी भी रहते थे . आंदोलन के दौर में बिहार के दिग्गज नेताओं को घुड़क देने वाले महात्मा भाई ने काभी अपने लिए कुछ नहीं सोचा परिवार के लिए कुछ न सोच और न कर पाए . पर सपना तो था ही कि देश बदलेगा समाज बदलेगा . जीरादेई बदलेगा जिस गांव को वे अंतिम समय तक जीते रहे . जीरादेई के साथ राजेंद्र बाबू भी उनकी यादों में रहते . जेपी के नामपर तो जीवन ही जिया उन्होंने . उनका सिर्फ नाम ही महात्मा भाई नहीं था वे जेपी आंदोलन के बड़े सिपाही भी थे . यह फोटो मैंने ही खींची थी उनकी .
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बड़े जीवट इंसान थे महात्मा भाई
घनश्याम
यह चिरंतन सत्य है कि एक न एक दिन सबों को इहलोक से जाना पड़ेगा. लेकिन महात्मा भाई जैसा इंसान इस तरह धत्ता बताकर चल देगा ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था. हमें तो लगता था कि यह आदमी जिस तरह अपने सच के लिए किसी से भी लड़ बैठता था ,वैसे ही वह काल के करवाल से भी लड़ बैठेगा. शायद वह तीन-चार दिनों तक चार चार हाथ किया भी हो. दिनेश जी रह रह कर जब हमसबों को सूचित कर रहे थे तब हमें ऐसा ही लग रहा होता.हमें लगने लगा था कि इसबार जरूर महात्मा भाई काल को परास्त कर जीरादेई लौट जायेंगे.
लेकिन आज (25 अगस्त 21)अलसुबह विनोद रंजन की दहाड़ मार रोने की आवाज मोबाइल पर सुनयी पड़ी तो मेरी आंखें भी छलक आईं, यह जानकर कि "महात्मा भाई अब नहीं रहे." कितने आत्मीय थे हमसब.ऐसा जब मैं कहता हूं तब शायद ऐसा ही दावा उनके सैकड़ों मित्र कर रहे होंगे.महात्मा भाई ऐसे ही इंसान थे. आज सुबह एक शोकसभा में साथी कलानंद ने महात्मा को संघर्ष वाहिनी का फकीर कहकर संबोधित किया.सचमुच महात्मा जैसे इंसान और फकीर एक दूसरे के लगभग पूरक ही तो होते हैं.
लेकिन वे अपने स्वभाव से जितना फकीर थे अपने दिल से उतना ही स्वाभिमानी भी. और बाबू राजेंद्र प्रसाद की धरती के सपूत होने का महात्मा को उतना ही गर्व (अहंकार नहीं) था. उनकी बातों में बार बार जीरादेई और राजेंद्र बाबू की यादें झिलमिलाते रहती थीं. संघर्ष वाहिनी की जितनी बैठकें हुईं और जिनमें हमसब साथ साथ रहे ,शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो जब महात्मा ने बाबू राजेंद्र प्रसाद का गुणगान न किया हो.
महात्मा जितना मिलनसार थे उससे कहीं ज्यादा झक्खी थे. घर का कोई कोना आप उनसे छिपा कर नहीं रख सकते थे.और रसोईघर से तो उनको इतना प्यार था कि घरवालों को वे उनके ही घर में भी अतिथि बनाकर छोड़ देते थे. लेकिन यह बात भी थी कि रसोई बनाने और छौंक लगाने की गुणवत्ता अजब की थी. लिट्टी -चोखा/भरता बनाने में तो महारत हासिल था.और ऊपर से गुड़ की खीर बनाने की कला और विज्ञान दोनों के मास्टर थे.
उनका जितने बार मधुपुर आना हुआ अधिकांश बार उन्होंने हमसबों को अपने इस पाककला का परिचय दिया. साल में कम से कम दो बार तो मधुपुर आना उसकी रुटिन सी बन गई थी. पांच-सात उनका ट्रिप होता था.इस दौरान सभी परिचित साथियों के यहां जाना ,उनका और उनके परिवार का समाचार लेना तथा उनसबों के समाचार से स्थानीय अन्य साथियों को अवगत कराना उनकी आदत में शुमार थी. सचमुच गजब के इंसान थे महात्मा भाई ! एक सफल मैसेंजर कहना ज्यादा सटिक होगा.
हमदोनों के बीच अमूमन भोजपुरी में ही बातें होती थी .सच कहें तो थोड़ी बहुत बोलचाल की भोजपुरी हमने महात्मा भाई से ही सीखी .और जब भी हम उनसे मिले मेरे मुंह से अनायास टूटी फूटी भोजपुरी ही निकलती थी.पिछले चार दशक की दोस्ती में बहुत कम ऐसा हुआ होगा कि हमने हिंदी में बात की हो. अब मेरा कोई ऐसा मित्र नहीं जिससे में हम भोजपुरी में बात कर सकेंगे. ऐसे जीवट इंसान बिरले ही मिलते हैं.
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