देवताओं के देश में

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देवताओं के देश में

अंबरीश कुमार

तिरुअनंतपुरम में केरल पर्यटन विभाग का होटल स्टेशन के पास है. यह काफी आरामदेह भी है इसलिए तय किया गया कि रुकेंगे यहीं और घूमने के बाद लौट आया करेंगे. वैसे भी तमिलनाडु और केरल के बीच जो बांध विवाद चल रहा था उसके चलते टैक्सी वाले शाम तक तिरुअनंतपुरम लौट आने की शर्त पर जाने को तैयार हो रहे थे. साल का अंतिम हफ्ता था. सैलानियों की भीड़ उमड़ी हुई थी. हम जिस होटल चैथरम में रुके थे उसके सामने ही टैक्सी स्टैंड था. स्टेशन भी वहां से बाएं तरफ करीब सौ मीटर की दूरी पर था. ठीक बगल में एक मीनार जैसे भवन में इंडियन कॉफी हाउस. यह ऐसा कॉफी हाउस था जिसमें चिकन बिरयानी से लेकर रोगन जोश तक परोसा जाता है. खैर यहां से तिरुअनंतपुरम का मुख्य बाजार से लेकर मंदिर तक सभी दस पंद्रह मिनट की दूरी पर है इसलिए ठहरने के लिहाज से यह जगह ठीकठाक है. अंत में तय हुआ कि सुबह कन्याकुमारी के लिए चलकर रात तक लौट आया जाए. रास्ते में त्रावनकोर के राजा का बनवाया मशहूर पदमानभापुरम महल और सुचिंद्रम का थानुमलायन मंदिर देखा जाए. दिसंबर का अंतिम हफ्ता होने बावजूद गरमी इतनी थी कि गाड़ी का एसी चलवाना पड़ा.

 तिरुअनंतपुरम शहर से बाहर निकलते ही नारियल के पेड़ों की हरियाली से कुछ माहौल बदला. खेतों के बीच सुपारी के खूबसूरत पेड़ देखते बनते थे जो पतले तने के पर नारियल से ज्यादा ऊंचे और सीधे खड़े नजर आते हैं. नारियल के पेड़ तो कई जगह टेढ़े-मेढ़े भी नजर आए, पर सुपारी के पेड़ सीधे ही नजर आए. रास्ते में छोटे-छोटे बाजार जिसमें कई दुकानों पर केले और नारियल बिकते नजर आ रहे थे. केले की भी यहां कई प्रजातियां होती हैं जिसमे पीले रंग के छिलके वाले छोटे आकर के केले से लेकर करीब एक फुट का लाल केला भी शामिल है. सुबह बिना नाश्ता किए निकले थे इसलिए महल देख कर बाहर निकलते ही केले लिए और नारियल पानी पीकर प्यास बुझाई. राजा त्रावनकोर का यह महल वास्तुशिल्प के लिहाज से अद्भुत है. लकड़ियों का काम देखते ही बनता है जिसमें सागौन से लेकर कटहल तक की लकड़ी का इस्तेमाल हुआ है. महल में ही संग्रहालय है जिसमें उस समय की मूर्तियों से लेकर कलाकृति भी प्रदर्शित की गई है. इस महल को जल्दी-जल्दी देखने में भी करीब डेढ़ घंटे से ज्यादा लग गए. इससे पहले तिरुअनंतपुरम में राजा रवि वर्मा के संग्रहालय को देखकर रोमांचित था. पर यहां का संग्रहालय इस अंचल के इतिहास, कला और संस्कृति की झलक भी दिखा देता है. महल देखकर हरेभरे खेतों के बीच से होते हुए कन्याकुमारी की तरफ बढ़े. कन्याकुमारी पहले कई बार आना हुआ है पर बच्चों के साथ पहली बार जा रहा था. सबसे पहले परिवार के साथ गया था तब विवेकानंद मेमोरियल के बड़े से अतिथिगृह में रुकना हुआ था. आज भी याद है मदुरै से कन्याकुमारी बस से चले थे और पहुंचते-पहुंचते रात के दस बज चुके थे. तब कन्याकुमारी एक गांव जैसा था जो रात में दस बजे तक शांत हो जाता था. भूख सभी को लगी हुई थी और अतिथिगृह के मैनजर से खाने की व्यवस्था के बारे में पूछा तो उसका विनम्र जवाब था- आपने पहले से जानकारी नहीं दी थी इसलिए अब नहीं बन पाएगा. पर गुजरात से एक ग्रुप आ रहा है उनकी संख्या ज्यादा नहीं हुई तो आप लोगों को भी खाने पर बुला लेंगे. करीब चालीस मिनट बाद ही उन्होंने खाने पर बुला लिया और गर्म चावल के साथ सांभर,रसम ,छाछ और सब्जी परोसे गये. उस खाने का स्वाद कभी भूलता नहीं है.विवेकानंद मेमोरियल का अतिथिगृह का परिसर काफी बड़े इलाके में फैला हुआ था. कमरे भी बिना तामझाम वाले किसी अच्छे धर्मशाला की तरह के थे. यहां से सुबह और शाम दोनों समय सूर्योदय और सूर्यास्त दिखने के लिए बस जाती थी. सुबह की चाय ,नाश्ता और भोजन का समय भी निर्धारित था. जमीन पर बैठकर बहुत दिन बाद यहां भोजन किया तो गांव की शादी-बारात याद आ गई. तब यह अतिथिगृह समुद्र तट से दूर निर्जन इलाके में था. इस बार जब हम कन्याकुमारी के बाजार में दाखिल हुए तो पहला झटका इस अतिथिगृह को देखकर लगा जो बाजार का हिस्सा बन चुका था. कन्याकुमारी अब कोई गांव नहीं है यह छोटे से शहर में बदल चुका है. भीड़-भाड़ और ट्रैफिक की समस्या के चलते वहां समुद्र तट से पहले एक पार्किंग बनानी पड़ी जो केरल सरकार के अतिथि गृह से लगा था. बगल में तमिलनाडु पर्यटन विभाग का होटल है जिसके सामने पहले जो खुला खुला समुद्र नजर आता था वह अब उतना खुला नहीं रह गया है. नब्बे के दशक में जब सविता के साथ यहां आया था तो इसी होटल के सामने वाले सूट में रुका था. बड़ी सी बालकनी में झूला लटका हुआ था जिस पर देर रात तक बैठकर समुद्र को देखा करते थे. रात में सिर्फ लहरों की आवाज ही सुनाई पड़ती थी. पर अब तो यह कंक्रीट का जंगल बन चुका है. भीड़ इतनी की हर जगह लाइन लगाना पड़े. 


विवेकानंद रॉक मेमोरियल पर जाने के लिए तिरुपति मंदिर जैसे दो घंटे कतार में खड़ा रहना पड़ा तब मोटरबोट पर चढ़ने का मौका मिला. अब विवेकानंद रॉक मेमोरियल की वह भव्यता नहीं रह गई जो पहले थी. तीन समुद्र के संगम में पहले चारो तरफ से यही मेमोरियल दिखता था पर अब दक्षिण पूर्व में एक चट्टान पर प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की विशाल प्रतिमा इसे पीछे कर देती है. इस प्रतिमा को तैयार करने में पांच हजार से ज्यादा शिल्पकार जुटे थे. इसकी ऊंचाई 133 फुट है,जो कि तिरुवल्लुवर के रचित काव्य ग्रंथ तिरुवकुरल के 133 अध्यायों का प्रतीक है. समुद्र तट से करीब दस मिनट में मोटर बोट से विवेकानंद रॉक मेमोरियल पहुंचे तो वह भी भीड़ थी. चारो ओर समुद्र देख कर पुरानी यादें ताजा हो गई. सामने का शहर अब मछुआरों का गांव नहीं बल्कि एक अत्याधुनिक शहर की तरह दिख रहा था. समुद्र तट के पास तक बड़ी-बड़ी इमारतें बन चुकी थी जो दूर तक नजर आ रही थी. जबकि पिछली बार यह नारियल के घने जंगलों से घिरा एक द्वीप जैसा लगा था. करीब दो घंटे बाद वापस लौटे तो कन्याकुमारी मंदिर देखने के लिए फिर लाइन लगानी पड़ी. टिकट लेने के बावजूद घंटा भर लग गया. आकाश ने भीतर जाने से मना कर दिया क्योंकि पुरुष कमर से ऊपर कोई कपड़ा पहन कर नहीं जा सकते हैं. कन्याकुमारी अम्मन मंदिर समुद्र तट पर स्थित है. पूर्वाभिमुख इस मंदिर का मुख्य द्वार केवल विशेष अवसरों पर ही खुलता है, इसलिए उत्तरी द्वार से इस मंदिर में प्रवेश करना होता है. करीब 10 फुट ऊंचे परकोटे से घिरे वर्तमान मंदिर का निर्माण पांड्य राजाओं के काल में हुआ था. देवी कुमारी पांड्य राजाओं की अधिष्ठात्री देवी थीं. मंदिर से कुछ दूरी पर सावित्री घाट,गायत्री घाट, स्याणु घाट और तीर्थघाट बने हैं. इनमें विशेष स्नान तीर्थघाट पर माना जाता है. घाट पर सोलह स्तंभ का एक मंडप बना है. देवी की नथ में जड़ा हीरा इस मंदिर का मुख्य आकर्षण है. जिसे लेकर कई किस्से भी हैं कि कभी इसकी चमक से समुद्री जहाज के नाविक इसे लाइट हाउस की रोशनी समझ लेते थे. पर यह कहानी ही ज्यादा लगती है. अब यह मंदिर भी बाजार के बीच में है. आसपास कई दक्षिण भारतीय रेस्तरां और शंख सीप आदि की दुकानें हैं. वह कन्याकुमारी जो पहले देखा था वह नहीं मिला. न ही नारियल के हरे विस्तार दिखे और न कई रंग के रेत वाला समुद्र तट. अब यह सब सीमेंट की दीवारों से घिर गया है. देश के अंतिम छोर पर तीन समुद्र तट का यह संगम अब बाजार में बदल चुका है जिससे जल्द बाहर निकलना चाहता था. करीब एक घंटे बाद जब नारियल के पेड़ों से घिरे टेढ़े-मेढे रास्तों पर लौटे तो एसी बंद कराकर कार का शीशा खोला तो ताजी हवा से राहत मिली. शाम ढल चुकी थी. आगे एक बाजार में सजा हुआ चर्च दिखा जिसकी रोशनी देखते बनती थी. पर इस कन्याकुमारी को देखकर मन खराब हो चुका था. यह विकास की नई अवधारणा का एक नमूना था.


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