बादलों और धुंध के स्वप्न लोक में

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बादलों और धुंध के स्वप्न लोक में

सतीश जायसवाल 

इन दिनों दार्जीलिंग अशांत है. पृथक गोरखालैण्ड की मांग फिर से उठी है. ये दार्जीलिंग के अपने दिन नहीं हैं. इन पर किसी की छाया पड़ रही है,जो इसे अशांत  कर रही है.दार्जिलिंग की हरियाली को किसी दुष्ट ग्रह का ग्रहण लगा है. मैं उसके ग्रहण मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रहा हूं . उसकी यह हरियाली उसके चाय बागानों से है. हमारे यहां की सबसे उत्तम और सबसे महंगी चाय पत्तियां दार्जीलिंग के इन्हीं बागानों से आती हैं. और उनका ९० फीसद निर्यात हो जाता है विदेशी मुद्रा कमाने के लिए.

कभी दार्जिलिंग के माल पर शाम के समय बैगपाइप बजा करते थे. अब दार्जीलिंग में बैगपाइप नहीं बजते. लेकिन सत्यजित रे ने अपनी रंगीन बांग्ला फिल्म- कांचनजंगा- में बैगपाइप के सँगीत को बाँध लिया है. 'कांचनजंगा' के एक दृश्यांक में खूब देर तक 'बैगपाईप' बजा है. फिल्मों में 'बैगपाइप' का यह प्रयोग सत्यजित रे की विलक्षण दृष्टि के लिए ही सम्भव था. लेकिन इस छोटे से प्रयोग ने दार्जिलिंग को उसकी समग्र पृष्ठभूमि दे दी. कभी दार्जीलिंग के माल पर 'बैण्डस्टैण्ड' था और वहाँ शाम के समय 'बैगपाइप' बजा करते थे. बैगपाइप बजाते हुए उन लोगों को देखना एक दृश्य होता था. 'कांचनजंगा' के बहुत बाद में राजकपूर की एक फिल्म ''संगम' में भी यह बैगपाइप बजता है. लेकिन बिलकुल ही अलग दृश्य में.

आज हमारा -- कांचनजंगा -- देखने का कार्यक्रम है. तनवीर हसन ने उसका वीडियो हासिल कर लिया है.'कांचनजंगा' सन १९६१ की फिल्म है. फिल्म की शूटिंग के दौरान सत्यजित रे अपनी फिल्म यूनिट के साथ वहाँ माल पर,एक पुराने मशहूर होटल -- कैवेंटर्स में बैठा करते थे. कैवेंटर्स ने उनकी उपस्थिति को अपनी अनुभूतियों में सहेज कर रखा है. मैंने उसका स्पर्श किया. और देर तक 'कैवेन्टर्स' की खुली छत पर बैठकर, वहाँ से दार्जिलिंग के मॉल को देखता रहा. उस समय तनवीर हसन के साथ, दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध प्रोफ़ेसर धीरेन्द्र बहादुर भी कैवेन्टर्स की खुली छत पर थे. और देख रहे थे या अनुभव कर रहे थे ? क्या पता ! धीरेन्द्र बहादुर इन दिनों हिन्दी निकाय के अपने छात्रों को फिल्म विकास का इतिहास भी पढ़ा रहे हैं. उनके लिए शायद यह एक बिलकुल ही अलग अनुभव होगा. 'कांचनजंगा' की शूटिंग के दिनों में दार्जीलिंग का मॉल यहां से कैसा दिखता रहा होगा ?

यह मेरा अजब खब्त है कि फिल्म को यथार्थ में रूपान्तरित करके देखने की कोशिश करता हूं . और यथार्थ को किसी फ़िल्मांक में रूपान्तरित करना चाहता हूँ. शायद यही -- सपनीले यथार्थ -- की रचना प्रक्रिया हो, जिसे योरोपीय विचारकों ने --सर्रियलिज़्म कहा ?दार्जिलिंग को मैं ऐसे ही देखता हूँ. 'कांचनजंगा' में दार्जिलिंग और दार्जिलिंग में 'कांचनजंगा.' एक और फिल्म है, राजकपूर की फिल्म -- श्री ४२०. इसमें बारिश है. प्रेम है. गीत है. एक छतरी है. और पनपते प्रेम के साथ २ लोग हैं. यहां, दार्जिलिंग के माल पर एक अकेली छतरी दिखी लेकिन उसके नीचे प्रेम करने वाले कोई दो जने नहीं हैं. माल सूना था. या मेरा मन ? लेकिन मैं तो कहीं नहीं था. मैं किसी पते पर नहीं होता.

शायद वो दोनों दार्जीलिंग के रेलवे प्लेटफॉर्म के आखरी छोर पर, वहाँ बादलों और धुंध में छिपे बैठे प्रेमालाप कर रहे हैं. या कहीं ऐसा तो नहीं कि यह वृद्ध दंपत्ति, जो अभी थोड़ी देर पहले तक हमारे साथ दार्जीलिंग की धरोहर ट्रेन में सफर कर रहा था वही जोड़ा है जो उस फिल्म में, बरसती बारिश में एक छतरी के नीचे साझा कर रहा था ? उनका प्रेम पक कर धरोहर बन गया है. और अब धरोहर हमारे साथ बनी हुई है ! प्रेम मनुष्य-जाति की एक धरोहर है. आत्मा में वास करती है.अपने लिए दार्जिलिंग से मैं एक सुन्दर सी रंगीन छतरी लेकर आया था. और अब बारिश का रास्ता देख रहा था. लेकिन बारिश कहीं और अटकी हुयी थी. हमारी यह पहाड़ी रेलगाड़ी विश्व धरोहर की सूची में एक महत्वपूर्ण स्थान पर है. यह दार्जिलिंग की एक पहिचान भी है.और पर्यटन राजस्व का एक प्रमुख स्रोत भी.यह ट्रेन हमारे लिए ठोस विदेशी मुद्रा भी कमाती है.यह बस्ती के बीच से होकर निकलती है तो बस्ती को अपने साथ लेकर चलती है.दुलकी चाल चलती है.

दार्जीलिंग से घूम की यह यात्रा बादलों और धुंध के एक स्वप्न लोक तक पहुंचाती है.और वहां से वापस लौटती है तो उस स्वप्न लोक को अपने साथ लेकर आती है.मैं उस स्वप्न लोक को अपने साथ ले आया कि हम सब उसमें साथ-साथ विचरण कर सकें.मालूम नहीं कौन-किसके साथ.लेकिन वह धरोहर ट्रेन अभी भी चल रही है, जिससे दार्जीलिंग की पहिचान पूरी दुनिया में है. और सड़क के साथ-साथ, बस्ती के भीतर से होती हुयी, यह ट्रेन आगे भी चलती रहेगी.

बीच में तो खतरा हो गया था कि इसे बन्द कर दिया जाये. इसे चलाने का खर्चा बढ़ता जा रहा था. तब रेलवे ने इसके किराये का पुनर्निर्धारण किया. इसकी टिकट उस हिसाब से तय कर दी, जितना इसके चलने में खर्चा आता है. दार्जीलिंग से घूम तक कोई ०८ किलोमीटर की दूरी है. इसके वहाँ तक जाने और लौटकर वापस आने का एक व्यक्ति का किराया ८०० रुपये लगा.सारा रास्ता बादलों और धुंध के बीच से होकर निकला. और घूम की पुरानी बौद्ध मोनेस्ट्री तो धुंध में गुम सी गयी थी.


रंगीन छतरियां

पहले के दिनों में हमारे लिए काले रंग के कपडे वाले छत्ते का विधान था. फूलों वाली रंगीन छतरियों पर सुन्दर स्त्रियों का अधिकार था. अब रगीन छतरियां हमारे हिस्से में भी आ गयी. पहले वाली रंगीन छतरियां छोटी होती थीं. और आसानी से मोड़कर महिलाओं के वैनिटी बेग में रखी जा सकती थीं. काले छत्ते हम अपने हाथों में रखकर चलते थे. कुछ लोगों की चाल की शान ही उनके छत्तों से होती थी. 

अब रंगीन छतरियां उन काले छतों के बराबर बड़ी हो गयी हैं. और बारिश से पूरा बचाव करती हैं. लेकिन मोड़ कर रखने पर और भी छोटी हो जाती हैं. वज़न में हलकी भी होती हैं.आज, सत्यजित रे की रंगीन बांग्ला फिल्म कांचनजंगा  देखने का मेरा कार्यक्रम था. तनवीर हसन ने उसका वीडियो हासिल कर लिया था. वहाँ से वापसी में बारिश मिल गयी. मेरी रंगीन छतरी के भीगने के लिए पहली बारिश. घर लौटकर भीगी छतरी को बंद किया तो उसकी परतें एक बड़े फूल की भीगी हुयी पाँखुरियों की तरह खुल गयी. कोई एक छतरी कैसे किसी फूल की पंखुरियों की तरह दिखने लग सकती है. कमाल है ! ये चीनी लोग भी कमाल के लोग हैं. दार्जीलिंग के बाजार में चीनी सामानों की भरमार है, जहां से मैंने यह छतरी खरीदी है.

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