बादलों से घिरे एक पहाड़ी स्टेशन की चाय !

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बादलों से घिरे एक पहाड़ी स्टेशन की चाय !

अंबरीश कुमार  
दिन तो गर्मी के ही थे पर हम जहाँ थे वह जगह तो ठंढी थी .फिर लगातार बरसात ने ठंढ और बढ़ा दी थी .दार्जिलिंग के यूथ हास्टल   से निकले और स्टेशन पर घुम जा रही ट्रेन में बैठ गए .हम यानी मैं ,ओपी और अजय चाय पीने निकले थे .चाय भी स्टेशन पर पी जाएगी यह तय किया था .छाता तो था नहीं इसलिए स्टेशन के रास्ते में थोड़ा भीग भी गए .मेरा मन था कैवेंटर्स की खुली छत पर बैठा जाए .बरसात में यह जगह और भी रूमानी हो जाती है .और कालेज के लड़के लड़कियां ज्यादा नजर आते थे .पर अजय मेहरोत्रा नहीं माने बोले ,ट्रेन से घुम जायेंगे और वहीँ प्लेटफार्म पर चाय बिस्कुट लिया जायेगा .फिर उस सडक से लौटेंगे जिसपर राजेश खन्ना ट्रेन में जा रही शर्मीला टैगोर को देख कर गीत गा रहे थे .विचार हमें भी पसंद आया .स्टेशन पर चाय पीने का मजा भी अलग होता है खासकर अगर कोई स्टेशन सात हजार फुट की उंचाई पर बादलों में डूबा हुआ हो .यह तो देश का सबसे ज्यादा उंचाई वाला स्टेशन है ..कुछ समय बाद ही हम घुम रेलवे स्टेशन पर थे .बादलों से घिरा यह स्टेशन बहुत अदभुत लग रहा था .इस स्टेशन के दोनों तरफ से ट्रेन गुजरती है .रेल पटरियों के बीच एक टापू की तरह .एक छोर पर जहां से स्टेशन का प्लेटफार्म शुरू होता है वहां ऊपर लिखा हुआ था BUILT 1891 जबकि दूसरी तरफ लिखा था ESTD SEC 1881 . 
यहीं से दोनों प्लेटफार्म शुरू होते और फिर अंत में जाकर ये मिल जाते .हवा भी थी और बादल भी आते फिर आगे चले जाते .ठंढ की वजह से मुंह से भी भाप निकल रही थी .चाय के लिए बोला और बेंच पर बैठ गए .भाप के इंजन वाली ट्रेन इस बीच भाप छोडती हुई निकल गई .चाय और मोटे वाले बिस्कुट आ चुके थे .कुछ देर बाद प्लेटफार्म खाली हो चुका था .कौन ऐसा सिरफिरा होगा जो प्लेटफार्म पर घूमने आया हो .पर हम तो थे .प्लेटफार्म पर घूमने का भी शौक रहा है .मुंबई से पापा के ट्रांसफर के बाद एक वर्ष मुझे गोरखपुर में रहना पड़ा पढने के लिए .दो ठिकाने थे एक गोरखपुर में आरोग्य धाम के सामने बसारतपुर में एंग्लों इन्डियन बस्ती के पुराने बंगले में जो छोटी लीची  और आम के दरख्त से घिरा था तो दूसरा रेलवे की बिछिया कालोनी .जब बिछिया कालोनी की तरफ रहता तो गोरखपुर स्टेशन के प्लेटफार्म पर घूमने जाता .कितना लंबा और साफ सुथरा प्लेटफार्म था .भीड़ भी नहीं होती .फिर यह अनुभव शिमला के रेलवे स्टेशन पर मिला जहां हम लोग शाम गुजारने आ जाते .फिर ऊपर वाले पुल से दूसरी तरफ चले जाते .पर घुम स्टेशन तो बहुत ही उंचाई पर बना बहुत छोटा सा स्टेशन है .  घुम में ही घुम मठ और दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे का प्रसिद्ध मोड़ बटासिया लूप हैं.यह  2,258 मीटर (7,407 फीट) की ऊँचाई पर बना है . 
एक दौर था जब यह यात्रा बहुत लंबी हुआ करती थी .1878 तक कोलकाता से दार्जिलिंग की यात्रा में पांच छह दिन लगते थे.वह भी खाली ट्रेन का सफ़र ही नहीं होता बल्कि नाव ,पालकी और बैलगाड़ी सब का सहारा लेना पड़ता था .क्योंकि तब सब जगह नदियों पर पुल नहीं होते थे . तब पहले भाप इंजन से चलने वाली रेल गाड़ियों से यात्रा शुरू होती . भाप इंजन के बाद नाव .नाव से गंगा पार कर साहेबगंज आना और फिर बैलगाड़ी या पालकी का उपयोग करना पड़ता था. 1878 में सिलीगुड़ी को भारत के रेलवे मानचित्र पर आया, जिसने दो दिनों की लंबी यात्रा को समाप्त कर दिया. बहरहाल स्टेशन पर कुछ समय बैठने के बाद आगे बढ़ गए .तब फिल्मों की शूटिंग वाली जगह देखने का भी बहुत शौक हुआ करता था .फिर आराधना फिल्म में राजेश खन्ना का जीप वाला वह गीत तो बहुत ही मशहूर हुआ .बाद में दिल्ली में जब एक शाम राजेश खन्ना के साथ लंबी बैठकी हुई तो उस किस्से को उनसे भी साझा किया कैसे उनके उस गाने वाली जगह को देखने गए थे . 
खैर लौटते हुए दोपहर हो चुकी थी .एक तिब्बती रेस्तरां में छंग के साथ नुडल्स लिया गया और फिर यूथ हास्टल लौट आये . 
 

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