यहां तो रोज पर्यावरण दिवस है

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यहां तो रोज पर्यावरण दिवस है

रमा शंकर सिंह  
गर्मियों में अमिया का पना , लौंजी , बेल के शरबत के बाद घर में पकाया कभी मीठा कभी कुछ खट्टामीठा आम चला . साथ में चीकू टूटने शुरू हो गये. बीच बीच में केले आते ही रहते हैं. एक जैसे भुसावली नहीं तरह तरह के विभिन्न स्वाद वाले . कभी कच्चों की सब्ज़ी बनाओ कभी पका कर आनंद लो. पूड़ी और अमरस गुजरात ने सिखा ही दिया था. अचार भी डाला गया है. तरह तरह का.  
जैसे ही आम चीकू केलों से निपटे . देखा करौंदे बहार पर आ रहे हैं. अब थाली में करौंदें हरी मिर्च की भाजी जरूर चटनी की जगह ले लेगी. क़रीब पचास तोतों और एक सैकड़ा गिलहरियों के झुंड का निशाना अब छोटे कच्चे अमरूदों पर है. इनसे बमुश्किल पांच फीसद  भी नहीं बचेंगें और जो बचेंगें वे बहुत होंगें.  
सब्ज़ियों में लौकी तोरई भिंडी टमाटर बैंगन मिल ही रहे हैं. सुबह उठकर  हाथ मिट्टी में सानने पड़ते हैं. कुछ पसीना भी बहेगा जब उसके बाद सात किमी की तेज कदमताल होगी. घर की मुर्ग़ियॉं और गाय दूध दही अंडे दे देंगी उनके इंतज़ामात को देखने में भी कुछ वक्त लगाना होता है.  
यह प्रतिदिन का पर्यावरण दिवस है .तब प्रकृति से तादात्म्य बनता है और जितनी कामना करो प्रकृति उससे कई गुना अधिक देती है और ख़ुश होकर. गाँवों में रहो तो सब मिलेगा वरना लटके रहो दस मंज़िल ऊपर और दस गमलों के साथ पर्यावरण दिवस मनाते रहो. 
कई बार कहा है कि शहरी एक फ़्लैट के बदले कुछ बीघा ज़मीन ज़्यादा बेहतर है. कोरोना ने कई सबक़ दिये हैं उसमें से कुछ तो हम समझें .रमा शंकर सिंह की वाल से 

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