समुद्र में भारत को घेर चुका है चीन !

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

समुद्र में भारत को घेर चुका है चीन !

चंद्रभूषण   
फारस की खाड़ी से लेकर बंगाल की खाड़ी तक हिंद महासागर में भारत के इर्द-गिर्द का समूचा इलाका अभी चीन की अति सक्रियता को लेकर चर्चा में है. ईरान ने इसी हफ्ते भारत को फरजाद-बी ऑयलफील्ड से बाहर कर दिया. सन 2002 में अटल सरकार द्वारा हस्ताक्षरित इस साझा परियोजना में भारत 40 करोड़ डॉलर लगा चुका है, लेकिन माना जा रहा है कि बीते मार्च में चीन और ईरान के बीच हुए 25 वर्षीय रणनीतिक समझौते के बाद से स्थितियां बहुत बदल गई हैं. चाबहार-जाहिदान रेलवे लाइन के बाद अभी फरजाद-बी और आगे अधबीच में पड़ी अन्य कई परियोजनाओं से भी भारत को बाहर किया जा सकता है.  

इलाके के पूर्वी छोर पर वापस लौटें तो म्यांमार में सत्तारूढ़ सैनिक जुंटा को खुले चीनी समर्थन के चलते वहां की जनता में चीन के खिलाफ काफी गुस्सा है. बीते कुछ दिनों में ही 37 चीनी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया है. लेकिन म्यांमार में, खासकर रणनीतिक महत्व वाले उसके क्यौकफ्यू बंदरगाह में अधिक से अधिक चीनी पूंजी लगे, ऐसा जननेता आंग सान सू की भी मानती रही हैं. ऐसे में म्यांमारी जनता का यह आक्रोश हिंद महासागर में चीन की सक्रियता पर कोई स्थायी प्रभाव डालेगा, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है. 

भारत के लिए इन दोनों मामलों और पाकिस्तान में कारोबारी ठिकाने से ज्यादा चीनी नौसैनिक अड्डे की तरह विकसित किए जा रहे ग्वादर बंदरगाह से भी बड़ी चिंता का विषय फिलहाल पड़ोसी मुल्क श्रीलंका बना हुआ है, जिसकी संसद ने बीती 20 मई को चीन के साथ दो विवादास्पद समझौतों पर मोहर लगा दी है. एक तो मंदिरों और स्तूपों के लिए विख्यात ठेठ दक्षिणी कस्बे हंबनटोटा में चीन के सहयोग से बनाए गए बंदरगाह और उसके आसपास 660 एकड़ जमीन पर विकसित किए जा रहे विशेष आर्थिक क्षेत्र को 99 साल के लिए चीन को ही लीज पर देने का समझौता, दूसरा राजधानी कोलंबो के ही एक छोर पर समुद्र पाटकर हासिल की जा रही 269 एकड़ जमीन पर कोलंबो पोर्ट सिटी बसाने का समझौता.  

इन दोनों परियोजनाओं से महिंद राजपक्षा सरकार को आधिकारिक रूप से 2 लाख अस्थायी और 85 हजार स्थायी रोजगार पैदा होने की उम्मीद है. कहा जा रहा था कि श्रीलंकाई विपक्ष इन समझौतों को कानूनी रूप दिए जाने के खिलाफ कुछ भी करने को तैयार हो जाएगा. लेकिन संसद में दोनों प्रस्ताव 148 और 59 के मतविभाजन के साथ पारित हुए. प्रस्तावों के विरोध में वोट देने वाली पार्टियों की दलील भी समझौतों पर अमल के दौरान राजपक्षा सरकार की बदइंतजामी के अंदेशे से जुड़ी थी. चीन के खिलाफ जाने वाली इसमें कोई बात ही नहीं थी. इस मामले में हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए था, क्योंकि यह कोई एक झटके में हो गई करामात नहीं है.  

हंबनटोटा बंदरगाह महिंद राजपक्षा के पिछले कार्यकाल में एक बड़े कर्जे की योजना के तहत चीन की पूंजी, मशीनरी और इंजीनियरिंग कौशल से बनाया गया था. लिट्टे का सफाया करने के बाद उस समय की राजपक्षा सरकार जब मानवाधिकार से जुड़े सवालों को लेकर पूरी दुनिया के निशाने पर थी और दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय शक्ति भारत इसके खिलाफ साफ शब्दों में अपनी नाराजगी जता चुका था, तब श्रीलंका के आम नागरिकों को हंबनटोटा से अच्छी कमाई होने की उम्मीद बंधाई गई थी. लेकिन इससे होने वाली कमाई इतनी कम निकली कि देश का खजाना भरना तो दूर, चीनी कर्जे की किस्तें चुकाना  भी मुश्किल हो गया.  

महिंद राजपक्षा तो कुछ दिन बाद चुनाव हारकर विपक्ष में बैठ गए लेकिन किस्तें भरने का काम जिन नए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के जिम्मे आया उन्होंने चीन के खिलाफ कही गई अपनी सारी बातें वापस जेब में डाल लीं और भव्य हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को ही लीज पर देने की घोषणा कर दी. अगले आम चुनाव में राजपक्षा सरकार की वापसी के बाद लीज के दायरे में 660 एकड़ के एसईजेड को भी शामिल कर लिया गया और इस इलाके में चीन के ही नियम-कानून लागू होने की बात मान ली गई. चीन के लिए हंबनटोटा बंदरगाह और कोलंबो पोर्ट सिटी रणनीतिक रूप से कितनी महत्वपूर्ण है, इस बारे में हमें अपनी जानकारी बढ़ानी चाहिए.  

अगर हम श्रीलंका द्वीप का नक्शा देखें तो पश्चिम तरफ लगभग मध्य में राजधानी कोलंबो है और उसके दक्षिण में गाले है, जो अभी हंबनटोटा से डेरा उठ जाने के बाद श्रीलंकाई नौसेना का मुख्य बंदरगाह है. उसके भी दक्षिण में, बिल्कुल द्वीप के छोर पर डोंड्रा हेड नाम का इलाका है, जहां से हिंद महासागर में दुनिया भर के जहाजों के रास्ते अलगाए जाते हैं. खुद भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों के बीच जहाजों की आवाजाही भी इसी इलाके से होती है और उनका लेन सेपरेशन भी डोंड्रा हेड से ही होता है. इस जगह से बमुश्किल बीस किलोमीटर पूरब में हंबनटोटा है, जो अगली एक सदी भर, या क्या पता उसके बाद भी हिंद महासागर में चीनियों का एक महत्वपूर्ण सैनिक और व्यापारिक ठिकाना बना रहेगा. 

कहां हम साउथ चाइना सी में चीन की घेरेबंदी के लिए विएतनाम की सहायता में अपने नौसैनिक जहाज गश्त पर भेज रहे थे, कहां चीनी हमारी नेवी की घरेलू आवाजाही पर नजर रखने बैठ गए. ईरान से पाकिस्तान और मालदीव होते हुए श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार तक हिंद महासागर के इस समूचे फैलाव के बीचोबीच भारत अपनी मजबूत सैन्य शक्ति के बावजूद बिल्कुल अलग-थलग नजर आ रहा है. अब से सिर्फ पांच साल पहले यानी जून 2016 में इस समुद्री इलाके में कोई चीन और भारत की ऐसी स्थिति की कल्पना करता तो इसे दूर की कौड़ी कहा जाता. चीन के हिंद महासागर तक पहुंचने की कोशिशों पर तब भी बातचीत होती थी लेकिन कम लोग ही इसे गंभीरता से लेते थे.  

जुलाई 2015 में हम लोग चीन में थे तो दक्षिणी चीनी राज्य युनान की राजधानी कुनमिंग से कोलकाता तक सड़क बनाने की बात डिप्लोमैटिक हलकों में चल रही थी. एक भारतीय अंग्रेजी अखबार के पेइचिंग संवाददाता ने अपनी एक खबर का संदर्भ देते हुए मुझे बताया कि चीनी इस प्रॉजेक्ट को लेकर बहुत गंभीर हैं. उनके उत्साह को खारिज करते हुए मैंने कहा कि भारत में इसको पूर्वोत्तर राज्यों को खतरे में डालने की तरह ही लिया जाएगा, और वैसे भी चीन-पाकिस्तान के साथ भारत की कोई भी जमीनी पहलकदमी धीरे-धीरे ही आगे बढ़ सकती है. कोलकाता-कुनमिंग हाईवे तो खैर आज भी कल्पना से परे है लेकिन कतर से आई 12 अरब घनमीटर गैस और ईरान से आया दो करोड़ बीस लाख बैरल तेल बंगाल की खाड़ी में मौजूद गहरे म्यांमारी बंदरगाह क्यौकफ्यू से पाइपलाइनों के जरिये कुनमिंग तक हर साल पहुंचने लगा है.  

पांच साल पहले के जिस वक्त की हम बात कर रहे हैं, उस समय आठ दक्षिणी एशियाई देशों का क्षेत्रीय संगठन सार्क जिंदा था और मुंबई आतंकी हमले जैसी भयानक वारदातों के बावजूद भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, भूटान और अफगानिस्तान के राजनेता, राजनयिक और दूसरे जीवन क्षेत्रों से आए लोग आपस में मिलते-जुलते रहते थे. आज सार्क के बेमौत मर जाने के बाद इन सारे देशों से हमारे वन-टु-वन रिश्ते हकीकत में चीन के लिए ही फायदेमंद साबित हुए हैं. स्थितियों का अनुमान लगाने के लिए बांग्लादेश और म्यांमार के साथ पिछले दो-तीन वर्षों में भारत और चीन के सैनिक सहयोग पर एक नजर डालें.  

बंगाल की खाड़ी के पूर्वी हिस्से में मछली पकड़ने और समुद्री सीमा से जुड़े अन्य चिरंतन विवादों में अपने-अपने वर्चस्व को लेकर इन दोनों देशों के बीच लगातार ठनी रहती है. इस टकराव में रोहिंग्या विस्थापितों का एक अतिरिक्त आयाम इधर और जुड़ गया है. कुछ समय पहले चीन ने बांग्लादेशी नौसेना को दो मिंग क्लास पनडुब्बियां और एक फ्रिगेट उपहार में दी तो इसके जवाब में भारत ने म्यांमार को एक किलो क्लास पनडुब्बी गिफ्ट की. शायद यह सोचकर कि आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक म्यांमार को किसी रणनीतिक मजबूरी के चलते चीन की गोदी में नहीं बैठने दिया जाएगा. लेकिन इसके छह महीने बाद ही वहां फौजी तख्तापलट हो गया और हमारी पनडुब्बी भी म्यांमारी सैनिक जुंटा के पास मौजूद चीनी बेड़े का हिस्सा बनकर रह गई. 

भारत ने हाल में बांग्लादेश को अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ बने अपने गठबंधन क्वाड में शामिल करने की कोशिश शुरू की तो चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने खुद इसे बांग्लादेश के दूरगामी हितों के लिए हानिकर बताया. इससे पता चलता है कि इस इलाके की शतरंज में अभी एक-एक मोहरे पर कितने बड़े दांव लगाए जा रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि चीन अभी हिंद महासागर में और खासकर इसके भारतीय प्रभाव क्षेत्र में बहुत बड़ी ताकत बन चुका है. यहां उसके आर्थिक और सामरिक हित अभी ही कमोबेश भारत जितने बड़े दिखने लगे हैं और मौजूदा दशक बीतने तक तो ये काफी बड़े लगने लगेंगे.  

इसके जवाबी उपाय के रूप में भारत कभी बंगाल की खाड़ी तो कभी अरब सागर में क्वाड के नौसैनिक युद्धाभ्यास आयोजित कराता है. लेकिन जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका भारत के पड़ोसी देश नहीं हैं. यह उनके सुख-दुख की जगह नहीं है. जो देश वास्तव में हमारे पड़ोसी हैं और हर मौके पर हमारे साथी हो सकते थे, उनमें एक के साथ भी हमारे रिश्ते ऐसे नहीं रह गए हैं कि हमारे लिए वह चीन को अपने यहां ठिकाना बनाने से मना कर दे. समय आ गया है कि हम सार्क को पुनर्जीवित करें और अपनी विदेश नीति में पड़ोस नीति के लिए अलग से एक जगह बनाएं.वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण की वाल से 

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :