शीशपाल गुसाईं
पहले नदी पर शिकारी फ़्रेडरिक बिलसन ने रस्सी का पुल बनाया, ऊपर से देवदार की लकड़ियों का प्रयोग किया. रस्सी और लकड़ी के सहारे कई लोग आर पार जाते थे. तब गंगोत्री इसी प्रकार जाना आना होता था. तब गंगोत्री यहाँ से 12 किलोमीटर पैदल का रास्ता था. लेकिन सबसे बड़ी बाधा और चुनौती यह कच्चा पुल होता था. बीच बीच में इसकी लकड़ी बदली जाती थी. 1882 में लिखी अपनी पुस्तक हिमालयन गजेटियर में एटकिन्सन ने इस पुल का ज़िक्र एक रस्सी के सहारे किया है. बाद 70 के दशक में स्थानीय कुछ लोग गाड़ी का टायर , और पुर्जे खोल कर दूसरी तरफ शिफ्ट करते थे. और वहां पुर्जो को जोड़कर गाड़ी गंगोत्री तक जाती थीं. क्योकि 1985 तक मोटर वाहन पुल नहीं था. सबसे ज्यादा कठिनाई सेना को होती थी. 1962 का युद्ध हमने इस पुल के बगैर लड़ लिया था. साधन सीमित थे.
डबरानी , गंग नानी, 5 अगस्त 1978 को कनूडियागाड़ की ओर से आयी भयंकर बाढ़ से डाबरानी के पास भागरथी पर ऊंची झील बन गई थी. करीब 15 घण्टे तक पानी रुका रहा.
उत्तरकाशी बाजार में एलर्ट कर निचला हिस्सा खाली करा दिया था. कई लोग वरुणावत और ज्ञानसू के ऊपर पहाड़ियों में चढ़ गए थे. क्योंकि यह सूचना थी कि डबराणी की झील कभी भी टूट सकती है. सेना ने विस्फोट किया परिमाण स्वरूप झील से पानी रिसने लगा. इस भयंकर बाढ़ के पानी से भैरों घाटी पुल के जो पार्ट पड़े सब बह गये. इस बाढ़ का असर ऋषिकेश तक के निचले स्तर तक रहा. हज़ारों हेक्टियर भूमि बह गई थी. पुल का सामान बहने पर यूपी सेतु निगम को कार्य दिया गया. डिजाइन ने समय लिया. सेतु निगम ने भैरोघाटी पुल को लोहे से जोड़ने का काम रेलवे को दिया. क्योंकि तब रेलवे ही इस कार्य को अंजाम दे सकता था. उसने यह कार्य किया. भेरोंघाटी में नीचे खाई देखने पर घबराहट हो जाती है. सोचिए जिन काबिल इंजीनियर ने इस कार्य को किया होगा, उन्होंने अपने जीवन में कितना जोखिम लिया होगा. इस पुल बनने के बाद ऋषिकेश से गंगोत्री की सड़क लोनिवि से हटा कर बीआरओ को दी गई. तब वही इस सड़क को बना रहा है.
इस पुल के साथ राजकपूर की 1985 में आई हिट फिल्म" राम तेरी गंगा मैली" फ़िल्म की भी यादें जुड़ी हैं. अभिनेता राजकपूर ने गंगोत्री में लगने वाले सेट के लिए नीचे धार में बने छोटे पुल से अपना माल ढोया. उन्हें और उनके मजदूरों को कितनी चढ़ाई चढ़नी पड़ी होगी? आज का हीरो खाई देख कर भाग जाते. इस फ़िल्म में गंगोत्री से गंगा सागर तक भाग फिल्माया गया है. वैसे तो काफी स्पॉट जोखिम भरे रहे होंगे. लेकिन यह तो बहुत जटिल था. गंगोत्री और हर्षिल में मंदाकिनी के मासूमियत अभिनय की उस दौर में सभी लोगों ने प्रशंसा की थी. खूब देखी गई यह फ़िल्म.
#मंदाकनी, गीत गाती है " तुझे बुलाये ये मेरी बाहें , न ऐसी गंगा कहीं मिलेगी. मैं तेरी जीवन, मैं तेरी किस्मत कि,तुझको मुक्ति यहीं मिलेगी. इसी क्षेत्र में इस गीत और अभिनय ने एक यादगार लम्हा बना दिया था. जो वर्षों वर्ष तक नहीं भूलता. मैंने भी यह फिल्म जब बड़ा हुआ, कई बार देखी.
इस पुल का उद्घघाटन 1986 में यूपी के चीफ मिनिस्टर नारयण दत्त तिवारी ने किया था.उन्होंने सोच लिया होगा कि, इस इतिहास की चीज बनने में मदद की जाय. तिवाड़ी का नाम आज भी पुल पर आज भी पढ़ा जाता है. पुल यूपी लोनिवि भटवाड़ी डिवीजन, सेतु निगम यूपी, और अंत में रेलवे को बनाने के लिए ज़िमेदारी दी गई.
जो सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस सड़क की देखरेख करती है. पुल बनने के बाद जैसी गंगोत्री की किस्मत खुल गई. लोगों की आसानी से पहुँच गंगोत्री मंदिर तक हो गई. आर्थिक उदारीकरण की इबारत लिखी जाने लगी. लेकिन सवाल है क्या हमने 62 का लड़ाई बगैर भरोघाटी के पुल के लड़ी? भैरोंघाटी से आगे नेलांग का रास्ता है. बीआरओ और हमारी यूपी सरकार के लोनिवि का यह ऐतिहासिक काम था. करीब 500 मीटर गहराई में नदी में अच्छे अच्छे की हिमत्त नहीं होती है पुल बनाने की. लेकिन यह देर से बना. बहुत बड़ा स्पान का है. कहने को तो हावड़ा बन गया था. लेकिन वहाँ 1910 तक देश की राजधानी थीं कलकत्ता. फिर गंगोत्री का भैरोंघाटी पुल क्यों नहीं ? गंगोत्री का इतना प्रचार भी उस दौर में नहीं था. अब हुआ है. इस पुल से यात्रियों की सहूलियत के जैसे पंख लग गए है. लेकिन ज्यादा सुरक्षा बलों को है. जिनकी गाड़िया यहीं से तिब्बत बॉडर पर जाती हैं. हमारी हिफाज़त चीन से करती है. जो चीन कथित रूप से अपनी सीमा चिन्यालीसौड़ तक बताता आया है. साभार
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