अलविदा राजकुमार केसवानी !

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अलविदा राजकुमार केसवानी !

अशोक पांडे  
बारह साल पहले उनसे परिचय हुआ था – ‘बाजे वाली गली’ से जो उनके अद्वितीय ब्लॉग का नाम था. फिर उनका लिखा खोज-खोज कर पढ़ा और ज्ञान जी से उनका नम्बर लेकर उन्हें फोन किया. एक प्रसन्न और भरी-भरी आवाज ने मेरे साथ ऐसे बर्ताव किया जैसे हम बरसों पुराने यार हों. 

कह पाना मुश्किल है उनके लिखे से मुझे मुहब्बत ज्यादा थी या ईर्ष्या. हमेशा उनका शैदाई रहा. हमेशा उनके जैसा लिखने की नाकामयाब कोशिशें करता रहा.  

फिर मालूम चला उनका जन्मदिन 26 नवम्बर को पड़ा करता था – ज्ञानरंजन जी के जन्मदिन से पांच दिन बाद और मेरे जन्मदिन से तीन दिन पहले. पिछले कुछ वर्षों से यह सिलसिला बन गया था कि 26 नवम्बर को मैं उन्हें फोन करता और वे उठाते ही कहते – “मेरी एब्सिंथ की बोतल बची है या उड़ा गए?” 

फोन पर उनसे बातें करते कई दफा तीन-तीन घंटे बीत जाते. वे अपनी स्मृति, मेधा और नफासत से चमत्कृत कर दिया करते थे. बताने को उनके पास इतने सारे विषयों पर इतनी सारी विविधतापूर्ण बातें होती थीं.   

फिल्मों पर उनका लेखन अद्वितीय है. संगीत पर भी. खेलों पर भी. उर्दू अदब पर भी. हिन्दी साहित्य पर भी. उनके संस्मरण अलौकिक हैं. एक जमाने में अपनी अखबारनवीसी के झंडे गाड़ चुका यह जिंदादिल इंसान दुनिया के किसी भी विषय पर बोल-लिख सकने में उस्तादी रखता था. 

दसेक साल पहले तक सोशल मीडिया वाली हिन्दी इतनी लोकप्रिय नहीं हुई थी. ज्यादातर उपलब्ध हिन्दी साहित्य अतीव मनहूसियत और खोखल दर्शन से अटा होता. लोकप्रिय विषयों पर लिखना साहित्यकारों के लिए वर्जित समझा जाता था. 

इस मामले में वे अग्रणी और पायनियर शख्स थे कि उन्होंने गुलशन नंदा और इब्ने सफी जैसे बेहद लोकप्रिय लेखकों पर शानदार लेख लिखे. इन लेखकों को कूड़ा बताने की लम्बी परम्परा चली आ रही थी लेकिन राजकुमार केसवानी एक व्यापक, वैश्विक दृष्टि रखते थे और शोध-खोज में यकीन करने वाले पुख्ता आदमी थे.  

मेरा ठोस यकीन है कि सिनेमा, खेल और फिल्मी संगीत पर किया गया उनका काम किसी लाइटहाउस की तरह आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दिखाएगा और अपनी तरह की अकेली नजीर बनेगा. मैं कहीं पढ़ रहा था उनके पास पुराने-नए हजारों फिल्मी रेकॉर्ड्स का नायाब कलेक्शन भी था. हाल ही में ‘मुगल-ए-आज़म’ फिल्म पर लिखी गयी उनकी आलीशान किताब छपकर आई थी.  

पिछले दशक में उन्होंने ज्ञानरंजन के साथ ‘पहल’ की जिम्मेदारी सम्हाली और उसे डिजिटल माध्यम में डाले जाने की जरूरत को समझा. इस तारीखी पत्रिका को उन्होंने अपने अनूठे कॉलम 'उर्दू रजिस्टर' से समृद्ध भी किया. वे उर्दू की समकालीनता के गहरे जानकार भी थे और हिन्दी के संसार को उन्होंने इस्माइल मेरठी से लेकर तेग अली जैसे उर्दू के अजाने नगीनों से परिचित कराया.  

उनके पास देश के बड़े-बड़े साहित्यकारों से दोस्ती के एक से एक शानदार किस्से थे. मुझे शरद जोशी और दिलीप चित्रे पर लिखे कुछ अन्तरंग स्मरण-चित्रों की याद आ रही है. अपने नगर भोपाल से बेइंतहा मोहब्बत करते थे और बातचीत में अक्सर वहां रहने वाले अपने वरिष्ठ शायर मित्र इजलाल मजीद के शेर कहा करते.  

छह-सात साल पहले मेरे पास कहीं से एब्सिंथ की एक बोतल आई. उन्हें बताया तो बोले, “विन्सेंट वान गॉग और पॉल गोगां इसी शराब को पीकर लड़ा करते थे और क्लासिक्स रंगते थे. ख़बरदार जो उस बोतल को हाथ लगाया! मैं हल्द्वानी आऊंगा. हम उसे ख़त्म करेंगे और क्लासिक्स लिखेंगे. मौका मिला तो लड़ेंगे भी.” फिर ठठाकर हंसे.  

जाहिर है मुझे यकीन था वे जरूर आएँगे. उनकी एब्सिंथ आज तक वैसी ही धरी है. दुनिया से उनके चले जाने की खबर आ रही है. 

वे होते तो इजलाल मजीद का ही शेर कहते – 

"कोई मरने से मर नहीं जाता 
देखना वो यहीं कहीं होगा" 

शेर तो उम्दा है लेकिन आपके जाने से मैं अधूरा रह गया हूँ. बाजे वाली गली वीरान है. अलविदा भाई साहब!अशोक पांडे की वाल से साभार 

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