फिलिस्तीन -इसराइल विवाद और भारत

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फिलिस्तीन -इसराइल विवाद और भारत

प्रेमकुमार मणि  
जब जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी शक्तियां यहूदियों को तबाह कर रही थीं ,तब भारत में आरएसएस और अनुसंगी सोच के लोग हिटलर का समर्थन कर रहे थे . हिटलर के यहूदी विरोधी विचार उन्हें अपने मुस्लिम  विरोधी विचारों से मिलते -जुलते प्रतीत होते थे . हिटलर यहूदियों और कम्युनिस्टों के सख्त खिलाफ था ,आरएसएस भी मुसलमानों और कम्युनिस्टों के वैसे ही विरुद्ध था .  

लेकिन जब 1948 में यहूदियों का एक देश इसराइल के रूप में स्वीकार लिया गया और उस वक़्त मौजूद फिलिस्तीन की धरती के लगभग आधे हिस्से पर उसे मान्यता दी गई ,तब एक नई स्थिति बनी . फिलिस्तीन मुस्लिम बहुल देश था,हालांकि वहाँ यहूदियों की भी आबादी थी . इसके खंडित होने और उस पर यहूदियों के एक नए देश के रूप में उभरने को संघ के लोगों को थोड़े विस्मय में ला दिया . लेकिन अभी वह मौन थे . जैसे -जैसे फिलिस्तीन और इसराइल का संघर्ष बढ़ने लगा ,संघ मानसिक तौर से इसराइल के निकट होने लगा . 1967 के छह रोजा लड़ाई में इसराइल ने एक साथ अनेक मुस्लिम देशों को तबाह कर दिया . इससे इसराइल मध्य -पूर्व का मुस्लिम विरोधी देश और ताकत के रूप में सामने आया . अब तो इसराइल और संघ का निकट होना बिलकुल स्वाभाविक था .  

सर्वविदित है इसराइल और फिलिस्तीन की निरंतर लड़ाइयों में अब नाममात्र का ही फिलिस्तीन शेष रह गया है . संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख वाले यरूशलम शहर पर भी इसराइल का कब्ज़ा बना हुआ है . फिलिस्तीन के पास कोई ताकत नहीं बची है . उसका बड़ा हिस्सा लोकतान्त्रिक तरीके से अपनी लड़ाई लड़ रहा है और अधिक से अधिक ईंट-पत्थर से अपना विरोध दर्ज करने केलिए विवश हैं . वहीं हमास (एक अतिवादी संघटन ) के कब्जे वाले गाजापट्टी से लघु फिलिस्तीन मिसाइलें दागकर अपनी खीझ व्यक्त करता है . इसराइल की विकसित मिसाइल रोधक मशीनरी इन मिसाइलों को बस फुलझड़ी मानती है . सच्चाई यही है कि जब -जब लड़ाई हुई है ,इसराइल का भूगोल बढ़ता गया है . उसके  कब्ज़ा वाले इलाके में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है . अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देश इसराइल के कंधे पर अपना हाथ रख कर मुस्लिम देशों की औकात समय -समय पर बताते  रहे हैं . यह तथाकथित सभ्य और सेकुलर देशों की प्रच्छन्न मजहबपरस्ती है .  

इसराइल की आबादी एक करोड़ से कम है . उसमे लगभग सत्रह प्रतिशत मुस्लिम धर्मावलम्बी हैं . यहूदियों ,मुसलमानों और ईसाइयों के सांस्कृतिक सम्बन्ध निकट के हैं . उनकी तुलना हिन्दुओं , सिक्खों और बौद्धों से कर सकते हैं . यरूशलम बहुत पुराने समय में यहूदियों का मूल धार्मिक केंद्र था . वहीं बैथेलहम में ईसा मसीह का भी जन्म हुआ . मुसलमानों की मान्यता है कि मक्का और मदीना के बाद अल अक्सा मस्जिद उनकी तीसरी पवित्र जगह है . इसलिए वहाँ तीनों धर्मों का केंद्र है . ये तीनों एकीश्वरीय धर्म हैं .  

लेकिन क्या धर्म का मामला बहुत ताकतवर रह जाता है ? यदि ऐसा होता तो इसराइलियों और फिलिस्तीनियों के बीच समझौता हो चुका होता . जो लोग इसे धर्म की लड़ाई मानते हैं और यहूदी -मुस्लिम संघर्ष के रूप में देखते हैं , उन्हें पुनर्विचार की जरूरत है . असली समस्या राजनीतिक है और इसे उसी वक़्त जवाहरलाल नेहरू जैसे राजनयिक ने समझा था . यहूदियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी नेहरू ने आरम्भ में इसराइल का समर्थन नहीं किया था . अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों को देखते हुए 1950 में भारत ने इसराइल को मान्यता दी .  

इसराइल का जिन स्थितियों और शर्तों पर निर्माण हुआ था ,वह ब्रिटेन और अमेरिका की एक सोची -समझी चाल थी . वह इस नए देश के माध्यम से मध्यपूर्व पर अपना प्रभुत्व रखना चाहते थे . इसमें वे सफल भी हुए . नेहरू अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार थे . दुनिया का इतिहास उनकी उँगलियों पर होता था . युवाकाल में ही उन्होंने ग्लिम्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री जैसी किताब लिखी . वह इतिहासकार नहीं थे . यह किताब एक राजनेता की इतिहास दृष्टि है . वह इसराइल और फिलिस्तीन से अपने भारतीय उपमहाद्वीप की स्थितियों को भी निश्चित तौर पर तौल रहे होंगे .  

भारत और फिलिस्तीन की स्थिति लगभग समान थी . ब्रिटेन ने एक को 15 अगस्त 1947 को मुक्त किया था और दूसरे को 14 मई 1948 को . भारत में जबरन एक मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान बना दिया गया .,वह भी दो छोरों पर . फिलिस्तीन में एक नया यहूदी राष्ट्र इसराइल बना दिया गया और देश के एक हिस्से यरूशलम को संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख में रख दिया गया . यह एशिया के दो राष्ट्रों का बंदरबांट था ,जिसे कोई भी समझ सकता था .  

भारत ने कॉमनवेल्थ की सदस्यता तो जरूर स्वीकार की ,लेकिन ब्रिटेन की अधिक धौंस कभी नहीं स्वीकार की . अमेरिका और ब्रिटेन अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक ही नीति अपनाते थे . मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हों . ब्रिटेन के कारण ही कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में गया . ब्रिटेन की कोशिश उसे भारतीय यरूशलम बनाने का था,जो एक हद तक हो भी गया . बाद में ब्रिटेन का पराभव होते गया और अमेरिका की दादागिरी बढ़ती गई . अमेरिका की कोशिश भारत को पाकिस्तान के माध्यम से कमजोर करने की थी . लेकिन 1948 , 1965 और 1971 के तीन युद्धों में पाकिस्तान की लगातार फजीहत हुई . 1965 में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय दबाव में यदि ताशकंद समझौता नहीं किया होता ,तो पाकिस्तान का अस्तित्व अगले कुछ वर्षों में समाप्तप्राय होता . आज के फिलिस्तीन की तरह वह किसी गाजापट्टी से मिसाइलें दागने भर की स्थिति में भी शायद नहीं होता . 1971 की बंगलादेश लड़ाई में भारत ने एक करिश्मा कर दिखाया . बंगलादेश तो पाकिस्तान से छिटका ही दिया गया ,पाकिस्तान के एक लाख सशस्त्र सैनिक आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिए गए . यह मामूली बात नहीं थी . भारत से नीतिगत गलती यह हुई कि उसे बंगलादेश पर पूरा नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहिए था .  

ब्रिटेन और अमेरिका पाकिस्तान को इसराइल बनाना चाहते थे . उसने बनने की कोशिश भी की . यह राजनीति में धर्म का खुला इस्तेमाल था . लेकिन भारत ने उसके मंसूबों को संभव नहीं होने दिया . पाकिस्तान की कोशिश भारत को समेट देने की थी . कश्मीर ,हैदराबाद ,जूनागढ़ पर उसके जीभ लपलपाते रह गए . वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान लगातार कमजोर होता जा रहा है . विदेशी सहायता पर जीने का उसे चस्का लग चुका है . अमेरिका और चीन उसके माई -बाप बने हुए हैं . फिलिस्तीन की हालत भी मुस्लिम देशों ने ऐसी ही बना दी है . वह आर्थिक रूप से परजीवी हो चुका है . ऐसा देश अपनी आज़ादी की रक्षा नहीं कर सकता .  

दूसरी तरफ इसराइल अपनी ही अकड़ में है . आज वह आर्थिक रूप से भी अमेरिका या किसी अन्य के भरोसे पर नहीं है . यदि वाकई संयुक्त राष्ट्र संघ चाहता तो वहाँ अमन बहाल किया जा सकता था . अमेरिका अपनी सह इसराइल से हटा ले और ये मुस्लिम देश इस्लाम का नारा कुछ कम कर दें ,तो एक अंतर्राष्ट्रीय पहल के द्वारा फिलिस्तीन -इसराइल समस्या का समाधान संभव है . लेकिन फिलिस्तीन की ओर से हमास नहीं यासर अराफात जैसा नेता होना चाहिए और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समझौते केलिए नेहरू जैसे व्यक्तित्व वाला कोई राजनेता .  

इसराइल के यहूदियों का भय समझा जा सकता है . वे जहीन और मिहनती हैं . उन्होंने दर -दर की ठोकरें खाई हैं . दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी में उनपर जो हुआ और उनके शरणार्थी जहाजों को जिस तरह देश -देश से दुरदुराया गया वह सब उनके जहन के हिस्सा होंगे . उन्हें वे कैसे भूल सकते हैं . उन्हें लगता है यदि इसराइल छूट गया तो फिर जाने कितनी सदियों तक उन्हें हर देश का हिटलर रौंदता रहेगा .  

अब कोई घडी को उलटी दिशा में नहीं घुमा सकता . आज वह निश्चित तौर पर ताकतवर हैं ; लेकिन उन्हें जिम्मेदार और मानवीय भी बनना है . फिलिस्तीन और इसराइल मिलकर एक देश बनें . हो सके तो इसका नया नाम यरूशलम हो जाय . वहाँ हिंसा और युद्ध ख़त्म हो . लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उस क्षेत्र में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी हस्तक्षेप बंद हो ;साथ ही मुस्लिम देशों का भी अनर्गल हस्तक्षेप स्थगित हो . फिलिस्तीन की लड़ाई मुस्लिम देशों को अपनी लड़ाई क्यों लगती है ? वे यदि अपने को मुस्लिम देश घोषित करते हैं ,तो फिर किसी दूसरे को यहूदी देश घोषित करने से कैसे रोक सकते हैं .  
हमारे भारत के फिलिस्तीनी और इस्राइली मानसिकता के लोग इस लड़ाई से कुछ सीखते तो बेहतर होता . 
 

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