चंचल
आम , अमरूद , कटहल को फलाकांक्षी लोग , पानी देते आ रहे हैं . नीम , तुलसी , बरगद , पीपल को ' भगत और भक्तिन ' जल चढ़ाते हैं . गांव में यह प्रचलन अब भी है . इलाहाबाद पलट पढ़ाकू पिंटुआ , नीम , बरगद तुलसी वगैरह को जल चढ़ाने वालों को 'बैकवर्ड ' और हिंदी में दकियानूस कहता है .
फल देने वाले पेड़ों को पानी देना , फल प्राप्ति की अभिलाषा से जुड़ी रही है , लेकिन नीम, बरगद , पीपल , ,बेर , महुआ जैसे अनेक पेड़ हैं , जिन्हें एक प्रथा और आस्था के चलते ' जल चढ़ाया ' जाता रहा है . एक साल पहले हमने इस विषय पर फेसबुक में ही एक लंबा लेख लिखा था जिस पर दो तरह की प्रतिक्रिया मिली , जैसा कि रिवाज और रवायत है ,फेसबुक की . हमने लेख में एक शब्द लिख दिया था - ' धर्म ' . पाणिनि कहते हैं हर पदार्थ का एक धर्म है जो उस पदार्थ विशेष को दूसरे पदार्थ से अलग कर देता है , और वही धर्म नाम में तब्दील हो जाता है . भारतीय वांग्मय कहता है -' तत्व ज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नही और योग से बड़ा कोई बल नही . ' इस तत्वज्ञान ने ही मानवीय सभ्यता को विकसित किया और उसकी तरबियत को सँवारा है . सबका वर्गीकरण यही तत्वज्ञान करता है . पठार ,पहाड़ में फर्क , पठार , पहाड़ के भी अनगिनत प्रकार वगैरह . आज हम जिस महामारी में डूबे खड़े हैं इस पर शोध होना चाहिए . हमने प्रकृति के साथ क्या क्या षड्यंत्र किये , उसे किस तरह तबाह किया इसका खुलासा हुआ तो हम उघार हो जांयगे .
यह महामारी आदिवासी इलाकों , और गांवों से हट कर संभ्रांत शहरों को ही क्यों चपेट में लिया ? ( गांव और जंगल में विचरण कर रही , आदिवासी बसावट में इसका प्रकोप अगर कहीं मिला भी, तो वह शहर से आयातित है ) कोई भी शहर यह बता सकता है कि वह सौंदर्य के नाम पर जिन दरख्तों को लगवाया है उनका जातीय धर्म ( पेड़ का गुण ) क्या है ? किसी भी शहर के पास यह जानकारी नही है . गांवों में हर घर के दरवाजे पर एक या एक से अधिक नीम के पेड़ हैं , हर गांव में आदिमकाल से बरगद या पीपल के दरख़्त जरूर मिलेंगे क्यों कि कल तक जब तक शहरी फितरत से निकला ' विकास ' गांव की ओर नही आया था गांव का पीपल और बरगद देवता स्वरूप स्थापित थे और सामुदायिक केंद्र थे .मरनी -करनी , शादी बिआह , कथा प्रवचन वगैरह तमाम कार्य इन्ही 'पवित्र ' दरखों के छांव में सम्पन्न होते रहे हैं . लेकिन विकास ने इसे उजाड़ कर दिया .
आपने यह सोचा कि विकास के तमाम नातेदार , रिश्तेदार जो अपने आपको सड़क , बिजली , टीबी , डिब्बहवा खानपान , सौंदर्य प्रशाधन वगैरह मिल बैठ कर गांव को बाजार बना दिये , उससे केवल समाज ही विखण्डित नही हुआ , हमारा प्रकॄति से रिश्ता ही टूट गया . आबादी बढ़ी , जमीन तो बढ़ी नही , जंगल, बगीचे खेत बनने लगे . हमारे सामुदायिक केंद्र पीपल, के छांव से हट कर नए बने चौराहे पर तिवारी जलपान गृह की बेंच पर आ गिरी . कुंज बिहारी , दादू , अइया , बैताली सब अंगूठा टेक थे लेकिन बगैर नहाए , नीम , पीपल , बरगद , तुलसी को जल चढ़ाए , मुह में अन्न नही डालते थे . लेकिन जब से मैकाले मदरसे से निकले लोग गांव में बढ़ने लगे बेपढ़ों को खारिज करने लगे . अइया की जगह परानपुर वाली लमका आई , मैनपाल , दादू , कुंजविहारी की दूसरी पीढ़ी बे लगाम हो गयी अल सुबह जो मिला ' भकोस ' लिए . गुड़ और माठा की जगह रानी मुखर्जी की कुरकुरी आ गयी . तुन्निया बम्मई पलट है , बगैर तीन चाय पिये दिशा नही जाता . हम आपको न तो पीछे लेजाना चाहते हैं न ही आपकी ' वैज्ञानिक ' सोच को चुनौती देना चाहते हैं कि आप दकियानूसी बने . आप जिसे धर्म और आस्था मानकर चल रहे थे , दकियानूसी .फोटो साभार
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