इस संकट में न्यायपालिका ग्रीष्मावकाश पर !

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इस संकट में न्यायपालिका ग्रीष्मावकाश पर !

श्रवण गर्ग 
जिस समय देश के करोड़ों-करोड़ नागरिकों के लिए एक-एक पल और एक-एक साँस भारी पड़ रही है, सरकारें महीने-डेढ़ महीने थोड़ी राहत की नींद ले सकतीं हैं. यह भी मान सकते हैं कि जनता चाहे कृत्रिम साँसों के लिए संघर्ष में लगी हो देश के नियंताओं को कम से कम किसी एक कोने से तो ताज़ा हवा नसीब हो गई है. कोरोना चिकित्सा के क्षेत्र में चीजों को तुरंत प्रभाव से दुरुस्त करने की हिदायतें देकर न्यायपालिका एक महीने से अधिक समय के लिए ग्रीष्मावकाश पर चली गई है.( सुप्रीम कोर्ट में 10 मई से 27 जून तक अवकाश रहेगा.इसी प्रकार उच्च न्यायालयों में भी कम से कम एक माह के लिए छुट्टी रहेगी) 

अंग्रेजों के जमाने में वर्ष 1865 से लम्बे अवकाशों की उक्त सुविधाएँ माननीय न्यायाधीशों को तत्कालीन परिस्थितियों में प्रदान की गईं थीं. इनका लाभ आज़ादी के बाद भी आज तक उन्हें परम्परा के आधार पर प्राप्त है. यह अवकाश इस समय ज़्यादा चर्चा में इसलिए है कि अभूतपूर्व संकट की घड़ी में अदालतें ही नागरिक-हितों की रक्षा के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं. देश के कई उच्च न्यायालय तो अपनी न्यायिक सक्रियता को लेकर आरोप भी बर्दाश्त कर रहे हैं कि वे अपनी समानांतर सरकारें चला रहे हैं. पुराने आक्षेप और बहस अपनी जगह क़ायम हैं कि न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्रों में ग़ैर-ज़रूरी दखल दिया जा रहा है. 

देश इस समय असाधारण परिस्थितियों से गुज़र रहा है.  नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के मामले में राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह से अक्षम साबित हो चुका है. प्रशासनिक व्यवस्थाएँ भी नाकाफ़ी सिद्ध हो रही हैं और रोजाना सैंकड़ों लोगों की जानें जा रहीं हैं. दुनिया के प्रतिष्ठित  मेडिकल जर्नल ‘लांसेट’ ने अगस्त महीने तक भारत में  कोई दस लाख लोगों की मौत होने की आंशका जताई है. ’लांसेट ‘ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अगर ऐसा हो जाता है तो इस स्व-आमंत्रित तबाही के लिए कोई और नहीं बल्कि मोदी सरकार ही ज़िम्मेदार होगी. हम केवल ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं कि ‘लांसेट’ द्वारा जताई जा रही आशंका पूरी तरह से ग़लत साबित हो. पर ‘अगर सच हो गई तो’ की पीड़ा के साथ ही तैयारियाँ भी करनी पड़ेंगी और डरते-डरते समय भी बिताना होगा. 

आज देश का हरेक आदमी लाम पर है. हालांकि युद्ध इस समय सीमाओं पर नहीं बल्कि देश के भीतर ही चल रहा है और मदद सीमा पार से भी मिल रही है. नागरिकों की जानें नागरिक ही हर तरह से सहायता करके बचा रहे हैं. यह ऐसा दौर है जिसमें नागरिकों के पास अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए केवल अदालतों की सीढ़ियाँ ही बचीं हैं.और यह भी उतना ही सच है कि सरकारें इस समय चिताओं की आग से कम और अदालती आक्रोश से ज़्यादा झुलस रही हैं. उच्च न्यायालयों के हाल के दिनों  के कुछ  निर्णयों और टिप्पणियों  से सरकारों की भूमिका से निराश हो रहे नागरिकों को काफ़ी सम्बल मिला है और व्यवस्थाएँ कुछ हद तक सुधरी भी हैं. 

चिंता का मुद्दा यहाँ यह है कि स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में उपजी मौजूदा आपातकालीन परिस्थितियों में जब देश का प्रत्येक नागरिक साँसों की लड़ाई लड़ रहा है, तब क्या न्यायपालिका को एक दिन के लिए भी अवकाश पर जाना चाहिए ? न्यायपालिका के इस परम्परा-निर्वाह से सरकारों को  निश्चित तौर पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती और न ही उनकी ओर से उक्त कदम के विपरीत किसी निवेदन की ही अपेक्षा की जा सकती है. 

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता श्री बी एल पावेचा ने पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर निवेदन किया था कि महामारी के इस कठिन समय में न्यायपालिका को इस वर्ष तो अपना अवकाश स्थगित कर देना चाहिए. श्री पावेचा ने उल्लेख किया कि न्यायपालिका का अवकाश पर जाना एक औपनिवेशिक विलासिता है. देश की पराधीनता के दौर में जब उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई थी, तब अंग्रेज जजों के लिए चालीस से पचास डिग्री गर्मी में काम करना कठिन होता था. उस समय न तो बिजली होती थी और न ही पंखे .उस परिस्थिति में अंग्रेज जज स्वदेश चले जाते थे. आज वैसी कोई कठिनाइयाँ नहीं हैं. अदालतों में प्रकरणों के अंबार लगे हुए हैं. नए प्रकरणों को स्वीकार नहीं किया जाए तब भी लम्बित प्रकरणों को ही निपटाने में कोई पच्चीस से तीस साल लग जाएँगे. 

श्री पावेचा ने पत्र में  कहा है कि अदालती अवकाश के दौरान दो अथवा तीन न्यायाधीशों की उपस्थिति में सप्ताह में केवल दो दिन ज़मानतों आदि के आवेदनों सहित अति महत्वपूर्ण प्रकरणों की सुनवाई की जाती है जो कि वर्तमान की असाधारण परिस्थितियों में अपर्याप्त है.न्यायपालिका का लम्बे अवकाश पर जाना न्यायसंगत तो कतई नहीं होगा, बल्कि इससे नागरिकों में संदेश जाएगा कि इस दुःख की घड़ी में उसे प्रजातंत्र के उस महत्वपूर्ण स्तम्भ की ओर से जरूरी सहारा नहीं मिल रहा है जो उसकी आशा की अंतिम किरण है. 

दुख की आपातकालीन घड़ी में न्यायपालिका के अवकाश को लेकर व्यक्त की जा रही चिंता का इसलिए सम्मान किया जाना चाहिए कि इस समय समूचा देश चिकित्सा सेवा की गिरफ़्त में है. लोग अस्पतालों में ही नहीं, घरों में भी बंद हैं. नागरिकों को इस क़ैद से रिहाई के लिए चौबीसों घंटे अदालतों की निगरानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित टास्क फ़ोर्स की अपनी सीमाएँ हैं. वह अदालतों की तरह सरकारों में ख़ौफ़ नहीं पैदा कर सकता. इस समय तो निरंकुश हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था से उसकी जवाबदेही के लिए लगातार पूछताछ किए जाने की ज़रूरत है और यह काम केवल न्यायपालिका ही कर सकती है. न्यायपालिका के लिए भी यह सबसे महत्वपूर्ण क्षण और अवसर है.ऐसे कठिन समय में न्यायाधीशों का लम्बे समय के लिए ग्रीष्मकालीन अवकाश पर जाना संवेदन शून्यता का संदेश देता है !

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