बारिश,बादल और धुंध के बीच

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बारिश,बादल और धुंध के बीच

सतीश जायसवाल 

तामाबिल से शिलांग तक का पूरा रास्ता बारिश,बादल और धुंध के बीच से होकर गुजरता रहा. करीब १०० किलोमीटर के पहाड़ी रास्ते का कोई ३०-४० किलोमीटर तो इतनी गहरी घुन्ध में से होकर गुजरा कि सड़क कहीं दिख ही नहीं रही थी. सब सूना और सफ़ेद. बीच में कोई गांव पड़ता तो रौशनी दिख जाती.और आगे-पीछे से एकाध कोई गाड़ी गुजरती तो उसकी हैडलाइट या टेल लैम्प से सफ़ेद एकरसता थोड़ी देर के लिए टूटती. टैक्सी ड्राइवर शायद अंदाज़ से ही गाडी चला रहा था. उसे यहां के रास्तों का पता है.

शिलांग पहुंचे तो रात हो चुकी थी और अच्छी ठण्डक थी. त्रिपुरा रिसोर्ट के अपने कमरे में दुबक जाना अच्छा लगा. यह त्रिपुरा का राजकीय भवन है. हेरिटेज होटल में बदल दिया गया है. करीब करीब सभी राज्यों के ऐसे ही रिसोर्ट यहां हैं.

यहां सुबह जल्दी होती है. हम काफी पूर्व में आ चुके हैं. यहां सुबहें जल्दी होती हैं तो शाम भी जल्दी ही पड़ती है. वहाँ, तामाबिल में हमारे समय और स्थानीय समय के बीच आधे घंटे से अधिक का फर्क पड़ चुका था. और दिया बत्ती हो चुकी थी. ये ३-४ दिन बारिश और बादल के रहे. लेकिन शिलांग की सुबह में चमचमाती धूप मिली. पहाड़ पर बसा शिलॉन्ग खिली-खिली धूप में हिलता-डुलता दिखा. कमरे की खिड़कियों से बाहर हवा थी. हवा में चीड़ और दूसरे पहाड़ी पेड़ हिल-डुल रहे थे.

देखने के लिए यहां एक तो ''वार्ड झील'' है और एक जनजातीय संग्रहालय. लेकिन घूमने और महसूस करने के लिए पूरा शिलॉन्ग है. शिलॉन्ग की स्थानीयता यहां के पोलिस बाजार में दिखती भी है और महसूस भी होती है. ''वार्ड झील'' तो कृत्रिम है. लेकिन शिलांग से गुवाहाटी के रास्ते में खूबसूरत ''आर्किड झील'' है. झील जैसी झील. यह गहरी और प्राकृतिक झील है. शिलॉन्ग की चमचमाती खिलखिलाती धूप हमारी वापसी तक हमारे साथ बनी रही. घरों के गीले कपडे बाहर निकल आये थे और खुले में फैले हुए थे. उनसे घरों की छतों और खिड़कियों पर रंगीन सजावट सी हो थी. तब हम शिलॉन्ग से बाहर निकल रहे थे. और अपनी वापसी के रास्ते पर थे.

बांग्लादेश की तरफ


ऊपर की तरफ लगने वाले भूटान के बॉर्डर को छोड़ दिया जाए तो मेघालय बांग्लादेश से घिरा हुआ है. चेरापूंजी से १०० किलोमीटर के भीतर एक तरफ-- शीला प्वाइन्ट है और एक तरफ-- डावकी प्वाइन्ट है,जहां से बांग्लादेश अपनी आँखों के सामने होता है. शीला प्वाइन्ट बिलकुल पहाड़ी कगार पर है. यहां से कोई साढ़े ३ हजार फ़ीट नीचे बांग्लादेश के घरों की टीन वाली छतें, सड़कें, सडकों पर चल रहे लोगों और वाहनों को देखना ऐसा लगता है जैसे किसी ऊंची हवेली के छज्जे से झांकते हुए उस देश को ठीक अपनी आँखों के नीचे देख रहे हैं. यह मेरा देखा हुआ है. ''डावकी प्वॉइन्ट'' भी सरहद पर है. अपने इस प्रवास में मैंने वह भी देख लिया.

डावकी एक सुन्दर नदी है जो भारत-बांग्लादेश की सरहद रेखा भी है. इसके आधे पर भारत का और आधे पर बांग्लादेश का अधिकार है. हम बहुत दूर तक इस नदी के साथ साथ चले. बताया गया था कि अपने नीले तलदर्शी पानी के लिए यह नदी दर्शनीय भी है. लेकिन बारिश भी हमारे साथ-साथ चल रही थी. और उसकी वजह से नदी का पानी मटमैला हो रहा था. नदी से कोई किलोमीटर भर पर, तामाबिल में बॉर्डर का चेकपोस्ट है. तामाबिल एक गांव है लेकिन दो देशों में बंटा हुआ है. इसका आधा भारत में और आधा बांग्लादेश में है. उस तरफ वाला तामाबिल सिलहट जिले में है. मेरे अपने मित्रों में एक - मिहिर गोस्वामी हैं जिनका पैतृक गांव सिलहट जिले में ही है. वापस लौटकर मिहिर को बताऊंगा. शायद वह मुझे बता सकेगा कि इस तामाबिल से उसका अपना पैतृक गांव कितनी दूर होगा. दोनों तरफ के लोगों का आना-जाना भी यहाँ होता रहता है. परमिट मिल जाता है.

नारियल और सुपाड़ी के पेड़ दोनों तरफ एक जैसे हैं. बांस और कदली वनों की हरियाली दोनों तरफ एक जैसी है. अनानास की फसलें भी दोनों तरफ हैं. और यह अनानास के फलने का मौसम है. फर्क है तो बस इतना कि इधर भारत के स्वागत वाक्य हिन्दी और अंग्रेज़ी में और उधर बँगला और अंग्रेज़ी में लिखे हुए हैं. सामने, बैरियर के उस तरफ काले रंग की कार खड़ी हुयी है. उसकी नंबर प्लेट भी बांग्ला में ही लिखी हुयी है. दो सुन्दर महिलाएं उस कार से उतरीं. और उन्होंने भी हमारी तरह की सुखद विस्मितियों के साथ उधर से इधर देखा. फिर ''बैरियर'' पार करके इधर चली आईं. शायद वो माँ और बेटी होंगी. मैंने उनसे बात करनी चाही. मैं उनकी आवाज़ सुनना चाहता था. क्योंकि वो दोनों उस तरफ से आ रही थीं, जिधर हम नहीं जा सकते थे. क्योंकि उस तरफ जाने के लिए हमारे पास वो ज़रूरी कागजात नहीं थे, जो इधर आने के लिए उन दोनों के पास होंगे.

चेकपोस्ट पर तैनात जवानों ने मुझे उनके साथ बात नहीं करने दिए. और विनम्र परहेज़ के साथ मुझे अपनी तरफ की ज़मीन पर वापस ले आये. अर्थात ''ज़ीरो प्वॉइंट'' से इस तरफ.

सिलिगुड़ी

इस बार करीब 10 वर्षों बाद यहां आया हूं . इतने दिनों में शहर तो खूब बढ़ा है.मेरी तरह के घुमन्तू लोगों की आमद भी बढ़ी है.बागडोगरा का हवाई अड्डा अब शहर से बाहर बहीं लगता.रास्ते में कोई खाली टुकड़ा नहीं दिखा.बसाहट यहां तक फ़ैल गयी है. बाहर से आने वाले घुमन्तुओं की भीड़ का पता बागडोगरा के इस हवाई अड्डे से मिलता है.ऐसी भीड़ जैसे हवाई अड्डा ना हुआ बल्कि भीड़-भाड़ वाला कोईं बस अड्डा हो.सबके सब गंगटोक, सिक्किम की तरफ मुंह उठाये भागे चले जा रहे हैं.सिक्किम का पर्यटन विभाग तो अपने इन घुमंतू ग्राहकों के लिये हेलीकॉप्टर सेवा भीं चलाता है.

एक तरफ हवाई जहाज और दूसरी तरफ सड़कों पर वही पुराने दिनों वाले रिक्शे.

सिलिगुडी इन घुमन्तुओं के लिए सिक्किम-दार्जीलिंग के लिए रास्ते का एक पड़ाव भर होगा.लेकिन हमने रास्ते के इस शहर को एक मुकाम की तरह भी देखा,जहां लोग बसते हैं.उनके अपने घर बाजार हैं, जो उनकी अपनी जरुरतों के अनुसार हैं.और हमने इसे रास्ते के किसी पड़ाव की तरह भी देखा जहां से हमें भी गंगतोक और दार्जीलिंग के लिए थोड़ी देर में निकल जाना है.

हम बाज़ार घूमे.बाजार में लोगों से इस तारह मिले कि भीड़ में हमारे बदन आपस में टकराये. फिर हमने उन लोगों को देखा जिनसे बाजार में रौशनी हो रही थी.और देखने वालों की आँखों में चौंध पड़ रही थी.हमने यहाँ के लोगों की तरह बाजार में खड़े होकर उनके यहां की मलाई-रबड़ी वाली कुल्फी भी खाई.तब शायद यहां के कुछ लोगों ने हमें भी देखा होगा ! 

रास्ते में सिलिगुडी के कलात्मक गमले और उन गमलों को बनाने वाले, मिट्टी के उन कारीगरों को भी देखा जिनके बनाए हुए कलात्मक गमले पूरे भारत के बाजारों में पहुँचते हैं.और घरों तक फूलों की बागबानी के शौक को घरों तक पहुंचा रहे हैं.


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